Saturday, July 27, 2024
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राज्यसभा चुनाव : राजनीति में जागती अंतरात्माएं और मजबूत सरकार

जागने से पहले अंतरात्मा समाजवादी रहती है क्योंकि उसे पता है कि अगर अभी जाग गई तो उसे क्या मिलेगा? अर्थात राज्यसभा आदि अथवा विश्वास मत हासिल करने के मौके पर तो जो मांगो वहीं मिलेगा। इसलिए भला इसी में है कि अंतरात्मा सोई रहे। चाहे स्वामी प्रसाद मौर्य समाजवादी पार्टी के महासचिव रहकर आपके देवता-दानी को कितना भी गरियाएं लेकिन अपनी अंतरात्मा को जबरन सुलाये रखो क्योंकि अभी जाग गई तो कुछ नहीं मिलेगा।

कल राज्यसभा चुनाव निपट गया। उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में परिणाम भाजपा के अनुकूल रहा। पिछले दस वर्षों के दौरान हुये अधिकांश चुनावों में भाजपा की जीत का एक मिथक बन गया है कि वह अपराजेय है और उसके सामने विपक्ष कमजोर है। भाजपा ही एक मजबूत और स्थिर सरकार दे सकती है। इसके लिए वह सबकुछ कर सकती है। ऐसा माना जाना उस दौर में अधिक आसान है जब गोदी मीडिया एकतरफा प्रचार कर रहा हो क्योंकि तब सबसे ज्यादा अभाव तर्क की वैकल्पिक सामग्री का होता है। अब भारत में एक भी सेटेलाइट चैनल ऐसा नहीं है जो नरेंद्र मोदी की गुलामी न कर रहा हो। ज़ाहिर है गुलामी ही नहीं कर रहा है बल्कि अपने आका को महानतम साबित करने के लिए एड़ी का पसीना चोटी तक भी ले जा रहा है।

ऐसे में एक सौ चालीस करोड़ लोगों के देश में सोशल मीडिया के जनपक्षधर यू ट्यूब और वेबसाइटों की पहुँच शायद ही एक करोड़ से अधिक लोगों तक हो। उसमें भी यू ट्यूब, एक्स, फेसबुक और गूगल पर यह आरोप लगता रहा हो कि वह ऐसे चैनलों और वेबसाइटों की रीच को सीमित कर रहा हो। तब यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है भाजपा की अपराजेयता और विपक्ष की कमजोरी का मिथक कितनी आसानी से दिमागों में रोपा जा सकता है।

राज्यसभा का चुनाव परिणाम भी इसी मिथक का एक छोटा सा विस्तार है। लेकिन देखना यह चाहिए कि इसके पीछे वे क्या कारण हैं जो निर्णायक बन गए। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के आठ विधायकों का पाला बदलकर भाजपा के आठवें उम्मीदवार के पक्ष में वोट करने को ही देखा जाय तो काफी कुछ समझ में आ सकता है। ये विधायक ऐन मौके पर किस सिद्धान्त के तहत क्रॉस वोटिंग करने गए इसके पीछे वे अपनी अंतरात्मा की बात कह रहे हैं लेकिन यह अंतरात्मा सपा में रहते हुये कैसे दबी और सोई हुई थी इस पर सवाल उठना लाजिमी है।

जो आठ विधायक भाजपा के पक्ष में गए उनमें से पाँच सवर्ण और तीन पिछड़ी जातियों से आते हैं और सभी के अपने-अपने तर्क हैं। मसलन पूजा पाल ने कहा कि मैंने अंतरात्मा की आवाज पर एक बहन के रूप में एक भाई को वोट दिया। उनकी अंतरात्मा बार-बार कहती रही कि उनके पति राजू पाल के हत्यारे अतीक अहमद को मिट्टी में मिला देने वाले भाई योगी आदित्यनाथ के अहसानों का बदला चुका दो। वे लगभग दस महीने तक इस आवाज को दबाये रहीं और ऐन वोट के दिन उसकी आवाज सुन लिया। पूजा पाल को यह अच्छी तरह पता था कि अदालत अतीक अहमद के मामले में ढील देती रही थी। अदालत में दम नहीं था। लेकिन भैया ने अदालत का काम कर दिया। एकाध जगह अपनी प्रतिक्रिया में उन्होंने यह भी कहा कि अगर अखिलेश यादव उन्हें बोलने का मौका देंगे तो वे अपनी अंतरात्मा के पक्ष में अपने तर्क रख सकती हैं और दिल से अभी भी वे समाजवादी पार्टी में ही हैं।

इसी तरह समाजवादी पार्टी के सचेतक विधायक मनोज पांडेय ने विधानसभा में पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अपना इस्तीफा सोशल मीडिया के जरिए दिया। असल में उन्होंने सूचित किया कि मैं जा रहा हूँ। फिर योगी सरकार के मंत्री दयाशंकर सिंह की गाड़ी में बैठकर विधानसभा पहुंचे और वोट डाला। अपने इस्तीफे पर उन्होंने कुछ ज्यादा नहीं कहा बल्कि यह अधिकार दयाशंकर को दे दिया जो बोले कि मनोज जी ने मोदी जी के विकास को वोट दिया क्योंकि वे समाजवादी पार्टी में विकास के पक्ष में कुछ नहीं कर पा रहे थे। जब समाजवादी पार्टी को अयोध्या का नेउता मिला तो मनोज जी चाहते थे कि सभी लोग दर्शन के लिए जाएं लेकिन लोगों ने उसका विरोध किया। आज PM मोदी की नीतियों पर विश्वास कर वे निर्णय ले रहे हैं।

भाजपा में जाने के निर्णय का फल हमेशा मीठा होता है। यहाँ भी मीठा ही हुआ। सूत्रों का दावा है कि राज्य की रायबरेली लोकसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी पांडेय को कैंडिडेट बना सकती है। एक अन्य सपाई विधायक राकेश पाण्डेय के पुत्र रितेश पाण्डेय पहले से भाजपा में हैं और राकेश पांडेय के लिए भी रास्ता खुल गया है।

इसी तरह से अभय सिंह नमक विधायक ने एक दिन पहले मुलायम सिंह यादव के अहसानों के बोझ तले छटपटाने का दुख अनुभव किया और बार-बार इसको दुहराता रहा लेकिन अंततः उसकी अंतरात्मा ने कहा बस्स! बहुत हो चुका। अब योगी जी के हाथ को मजबूत करो और मोदी जी के जादू में जान डाल दो। आखिर ऐसे ही लोगों के बल पर यह नारा मजबूत होता है – मोदी है तो मुमकिन है।

चूंकि मामला अंतरात्मा का है इसलिए यह कहना कि विधायकों की हार्स ट्रेडिंग हुई या खरीद-फरोख्त की गई थोड़ी ज्यादती हो सकती है। विधायक या सांसद असल में एक बिकाऊ माल ही हैं इसलिए उनकी कीमत तो तय होती ही है लेकिन अंतरात्मा का कोई क्या कर सकता है। जब गीता में कृष्ण फरमा गए हैं कि यह न जल सकती है और न मर सकती है, जन्मती भी नहीं न पानी में डूब सकती है। उसे न समुंदर से डर लगता है न चुल्लू भर पानी से तो फिर उसे खरीदनेवाला कौन पैदा हुआ है।

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इसलिए इस बात पर विचार करना चाहिए कि आखिर अंतरात्मा संवेदनाओं अथवा सामाजिक सरोकारों से कैसे बंधी रह सकती है। और अगर यह सच है तो मनोज पाण्डेय की अंतरात्मा क्रॉस वोटिंग के बाद इस बात से दुखी कैसे हो सकती है कि सपा में रामचरित मानस से लेकर भगवान हनुमान, माँ लक्ष्मी और सनातन धर्म को भी गाली दी गई। अब यह सब सहनशक्ति से बाहर हो गया इसलिए उन्होंने अपने ईमान से यह फैसला किया। यह बात उन्होंने एक पोर्टल से कही।

अब सवाल यह उठता है कि फिर उन्होंने उस समय इसके खिलाफ क्यों नहीं बोला? उनका यह इशारा स्वामी प्रसाद मौर्य की ओर है जिनके बयानों से समाजवादी पार्टी पल्ला झाड़ती रही है और जो स्वयं अपनी पुत्री को राज्यसभा में भेजे जाने को लेकर नाराज हो गए और कुछ दिन पहले ही समाजवादी पार्टी छोडकर बाहर निकल गए और अपनी पार्टी बना डाली। मनोज पांडेय उसके बाद निकले। यानी उनकी अंतरात्मा उस समय अपने पूज्य लोगों का झेल रही थी लेकिन जब मौका आया तो खेल गई। बुद्धिमान लोग कहते हैं हथियार पर धार लगाकर रखो और जब मौका आए तब चलाओ।

असल में अंतरात्मा जातिवादी चीज होती है। इसलिए यह तब जागती है जब इसे अपने लोगों की ताकत को मजबूत करना हो। इसके पहले तक प्रायः वह समाजवादी रहती है क्योंकि उसे पता है कि अगर अभी जाग गई तो उसे क्या मिलेगा? अर्थात राज्यसभा आदि अथवा विश्वास मत हासिल करने के मौके पर तो जो मांगो वहीं मिलेगा। इसलिए भला इसी में है कि अंतरात्मा सोई रहे। चाहे स्वामी प्रसाद मौर्य समाजवादी पार्टी के महासचिव रहकर आपके देवता-दानी को कितना भी गरियाएं लेकिन अपनी अंतरात्मा को जबरन सुलाये रखो क्योंकि अभी जाग गई तो कुछ नहीं मिलेगा।

बहुजन समाजों के जो लोग सत्ता से बाहर हैं और हार्दिक रूप से चाहते कि बहुजनों का राज आए लेकिन न उनके विचार बहुजन नेता सुनते हैं और न उनकी दुआ जनता कबूल करती है। फिर भी वे लोग पते की बात कहते हैं कि बहुजन पार्टियों द्वारा सवर्णों को टिकट देना असल में उनकी अंतरात्मा को थपकी देकर सुलाना है जबकि सच्चाई यह है कि वह मौका पाते ही जाग जाती है। और जागकर हमेशा उस जगह चली जाती है जो उनका पितृ या मातृ संगठन होता है। इतिहास उठाकर देख लीजिये एक नहीं दर्जनों उदाहरण मिल जाएँगे।

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अगर मान लीजिये यह सही है तो फिर उन पिछड़ों और दलितों को क्या कहेंगे जो पाला बदलकर उन लोगों के साथ चले जाते हैं जो उनकी भागीदारी, सामाजिक सम्मान और बराबरी की भावना और विचारों को निजी और सामूहिक रूप से कुचलते हैं। आमतौर पर ऐसे में पाला बदलनेवाले अपनी और अपने समाज की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं अथवा यह दावा करते हैं कि जहां मैं जा रहा हूँ उन लोगों ने मेरे और मेरे समाज के लिए बहुत कुछ किया है, जैसा कि स्वामी प्रसाद मौर्य और पूजा पाल कहते हुये पाये गए।

लेकिन मामला इतना ही नहीं है। जटिल और दोतरफा है। जिन लोगों की अंतरात्मा जाग रही है वे अपने असुरक्षित भविष्य को सुरक्षित करने के लिए सही समय पर पानी के छीटें मारकर अंतरात्मा को जगा रहे हैं। उन्हें पता है कि अब नहीं जागी तो देर हो जाएगी। नैरेटिव के लिए असंतोष और नाराजगी का एक पुलिंदा भी बाँधे रखते हैं ताकि समय पर खोला जा सके। अगर सभी की कुंडलियाँ देखी जाएँ तो अंतरात्मा के संबंध में बहुत से तथ्य मिल जाएंगे।

इधर एक दशक से भाजपा ने लोगों की अंतरात्मा को अच्छी तरह जगाया है। उसके पास जगाने के पर्याप्त औज़ार हैं। उसके पास एलेक्टोरेल बॉन्ड का काफी पैसा है और वह जिस वर्ग के हित में समर्पित है उस वर्ग ने उसे इतनी पूंजी दे रखी है कि वह विधायकों और सांसदों की अंतरात्मा जगा सके। अगर बीस-पचीस साल अंतरात्मा को काम के वक्त जगाया जाता रहा तो सारे जंगल, पहाड़, धरती, खदान, हवाई अड्डे, रेलवे से लेकर सबकुछ को आसानी से उस वर्ग को सौंपा जा सकता है। इस बार भाजपा का बहुमत राज्यसभा में भी होगा। लोकसभा में तो चार सौ पार का दावा है ही। वर्षों से संविधान बदलने और मनुस्मृति को लागू करना का जो शोर मचा हुआ है वह ऐसी ही अंतरात्माओं को जगाकर आसानी से किया जा सकता है।

इसलिए जो लोग बहुजन समाज, पीडीए और भागीदारी आदि के सपने देख रहे हैं उन्हें इस बात से डरते हुये राजनीति करनी चाहिए कि न जाने कब उनके किस विधायक या सांसद की अंतरात्मा जाग जाय। कब वह अपमानित महसूस करते हुये उनका दामन छोड़ दे। कब उन्हें तानाशाह बताने लगे। वैसे भी आजकल ठोस और जन प्रतिबद्ध विचारों वाले लोग राजनीति में घटते जा रहे हैं।

अब पूंजी के हिसाब से लचीले लोगों के लिए ही राजनीति रह गई है क्योंकि पूँजीपतियों के हित में उनकी अंतरात्मा ही जागने की हालत में रहती है।

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