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लोकसभा चुनाव : हिंदुत्व के लिए बिहार क्यों है कठिन चुनौती?

बिहार की रैली में जिस बड़े पैमाने पर समाजवादी और साम्यवादी संगठनों के लोग मौजूद थे और गांधी मैदान में कहीं हरे झंडे तो कहीं लाल झंडे एक दूसरे से होड़ कर रहे थे, उससे यह भी लगता है कि देश का पूर्वी हिस्सा भारत के पश्चिमी तट पर केंद्रित कॉर्पोरेट और हिंदुत्व की सत्ता के आगे समर्पण के लिए तैयार नहीं है।

पटना के गांधी मैदान में रविवार यानी तीन मार्च को हुई जनविश्वास रैली ने हिंदुत्व की फासीवादी योजना की चूलें हिला दी हैं। बारिश के बावजूद गांधी मैदान में उमड़ी भारी भीड़ ने यह साबित कर दिया है कि पूंजीपतियों की लुटेरी पूंजी, सवर्णों की दबंगई और राज्य के दमनकारी सांप्रदायिक तंत्र के आगे अभी भी भारतीय संविधान और लोकतंत्र एकदम लाचार नहीं हुआ है। कहीं सड़क पर कीलें गाड़ने वाले तानाशाही गिरोह को पंजाब और हरियाणा के किसानों से चुनौती मिल रही है तो कहीं बिहार के दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की लोकतंत्र की चाहत उसे ललकार रही है। पटना की रैली ने यह भी साबित कर दिया है कि इस देश के डीएनए में ऐसा कुछ है जो दिल्ली के दमनकारी रवैए के विरुद्ध विद्रोह करता रहेगा चाहे दिल्ली से मुंबई तक और लखनऊ से गांधीनगर तक धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से एक ऐसी सत्ता कायम हो जाए जो देश के संसाधनों की साम्राज्यवादी लूट का संकल्प करके चल रही हो।

सवाल उठता है कि आखिर बिहार में ऐसा क्या है कि वह हिंदुत्व की वर्णवादी राज्यव्यवस्था और पूंजीवाद की असमानता आधारित राजनीतिक अर्थव्यवस्था को ललकारने का विवेक और साहस रखता है? इसका एक सूत्र तो 1930 के दशक में आई स्वामी धर्मतीर्थ की `हिस्ट्री आफ हिंदू इम्पीरियलिज्म’ में मिलता है। वे इस पुस्तक में लिखते हैं कि इस देश में जब जब हिंदू समाज की वर्णव्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का आंदोलन खड़ा हुआ है तब-तब समाज के सवर्ण तबके ने किसी न किसी तरीके से उसे हजम करने का अभियान चलाया है। राममंदिर के लिए चलाए गए अयोध्या आंदोलन का एक पक्ष यह भी है कि जब वह आंदोलन खड़ा हुआ, तब उत्तर भारत में कहीं आंबेडकर के विचारों के माध्यम से बहुजन समाज उद्वेलित हो रहा था तो कहीं डॉ. लोहिया के विचारों के सहारे पिछड़ा समाज आंदोलित था। जाहिर है कि मंदिर आंदोलन ने उन दोनों आंदोलनों की धार पहले कुंद की और बाद में उसे हजम कर लिया। लेकिन लगता है कि रामंदिर आंदोलन और अयोध्या में राम के वापस लौटने का आख्यान बिहार में वैसा असर नहीं दिखा पाया है जितना उसने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में दिखाया है।

patna rally 3 march 2024

अगर धर्मतीर्थ द्वारा बताए गए ऐतिहासिक कारणों में जाएं तो पाएंगे कि बिहार में मगध के साम्राज्य के समय से शूद्र जातियों का शासन आता रहा है और संभवतः देश के प्राचीन इतिहास में, मगध, मौर्य और गुप्त वंश के रूप में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना बिहार में ही हुई थी। भले ही डा आंबेडकर की व्याख्या के तौर पर बृहदार्थ मौर्य के सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने वहां पर अपने राजा का वध करके देश की पहली प्रतिक्रांति की लेकिन बिहार उन प्रतिक्रांतियों के विरुद्ध सतत संग्रामरत रहा है। जब देश में एक ओर अयोध्या में राममंदिर के उद्घाटन के बहाने केंद्रीय सत्ता ने की धर्मनिरपेक्षता को तिलांजलि दे दी हो और गुजरात में देश के एक पूंजीपति के बेटे की प्रीवेडिंग के नाम पर वैभव के अश्लील प्रदर्शन के मानक कायम किए जा रहे हों और राजसत्ता से लेकर देश का सारा अभिजात वर्ग वहां थिरकने को तैयार खड़ा हो तब तीन मार्च को पटना की जनविश्वास रैली ने लोकतांत्रिक मर्यादा का संदेश दिया। उसने बता दिया कि लोकतंत्र की आवश्यकता जिन्हें है, वे हार मानने वाले नहीं है।

पटना की रैली ने यह बता दिया कि अगर इतिहास बिहार में सबसे पहले लोकतंत्र की उत्पत्ति का दावा करता है और समता के मार्क्सवादी विचार से 2500 साल पहले बौद्ध धर्म ने समतामूलक क्रांति बिगुल फूंका था तो आज भी जब देश में नागरिक अधिकारों का हनन करते हुए असमानता पर आधारित दमनकारी सत्ता कायम की जा रही हो तो बिहार उसे चुनौती देने से बाज नहीं आएगा।

बिहार की रैली ने न सिर्फ हिंदुत्व के वर्चस्व को चुनौती दी है बल्कि भारत की पौराणिक मान्यताओं की समकालीन व्याख्या भी की है। एक ओर माकपा के नेता सीताराम येचुरी यह कहते हैं कि समुद्र मंथन के इस दौर में अमृत का कलश असुरों के हाथों में और विष का कलश देवताओं का हाथों में चला गया है और अब उसे छीन कर सही हाथों में देना होगा। दूसरी ओर लालू प्रसाद का कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी मां के निधन पर संस्कार और कर्मकांड का पालन न करके यह साबित किया है कि वे हिंदू नहीं हैं। इन दोनों व्याख्याओं ने लोकतंत्र के विमर्श को सांस्कृतिक धरातल पर मजबूती प्रदान करना है।

लेकिन बिहार की रैली में जिस बड़े पैमाने पर समाजवादी और साम्यवादी संगठनों के लोग मौजूद थे और गांधी मैदान में कहीं हरे झंडे तो कहीं लाल झंडे एक दूसरे से होड़ कर रहे थे उससे यह भी लगता है कि देश का पूर्वी हिस्सा भारत के पश्चिमी तट पर केंद्रित कॉर्पोरेट और हिंदुत्व की सत्ता के आगे समर्पण के लिए तैयार नहीं है। वह जनता के माध्यम से उसे चुनौती देने को तैयार है।

यह कॉर्पोरेट सत्ता वही है जिसे बारे में बिहार में रहने वाले समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा आंतरिक उपनिवेशवाद(इंटरनल कॉलोनी) की संज्ञा देते हैं। भारत के समाज को चलाने के लिए महाराष्ट्र में जन्मे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सांस्कृतिक और राजनीतिक सिद्धांत और भारत की अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए गुजरात और मुंबई में केंद्रित कॉर्पोरेट घरानों की नीति को एक तरह से पूर्वी भारत के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की योजना के रूप में देखा जाना चाहिए। बिहार की इस रैली ने संदेश दिया है कि कॉर्पोरेट समृद्धि और बेरोजगारों की फौज एक साथ नहीं रह सकती। दोनों के बीच में टकराव होना ही है। तेजस्वी यादव की सरकारी नौकरियों की योजना तो महज एक प्रतीक है उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के विरुद्ध। रोचक तथ्य यह है कि तंत्र की तमाम विफलताओं का कलंक झेल रहे बिहार ने जिस फुर्ती से पांच लाख नौकरियां दे दीं वह उत्तर प्रदेश जैसे चुस्त कहे जाने वाले बुलडोजर राज्य को करारा जवाब है, जहां कभी सिपाही की भर्ती में पर्चे आउट होते हैं तो कहीं आरओ की भर्ती में और बाद में परीक्षाएं रद्द हो जाती हैं।

बिहार में जनवरी के महीने में सत्ता में जो उथल पुथल हुई वह इस बात का प्रमाण थी कि राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे पूंजी और सत्ता के अनैतिक चक्रव्यूह से वह राज्य बाहर नहीं है। क्योंकि बिहार के मौजूदा घटनाक्रम को हम सिर्फ नीतीश कुमार की आलोचना से नहीं समझ सकते और न ही कुछ जातियों के आपसी रागद्वेष के आधार पर उसकी व्याख्या कर सकते हैं। नीतीश कुमार के रूप में बिहार के राजनीतिक पतन और तेजस्वी यादव के रूप में इंडिया गठबंधन की जनविश्वास रैली को समझने के लिए इतिहास की व्याख्या का सहारा लेना पड़ेगा। जाहिर सी बात है कि बिहार ने हिंदू साम्राज्यवाद और कॉर्पोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध बिगुल बजा दिया है। अब देखना है कि देश के अन्य राज्य इस आह्वान को किस हद तक समझते हैं।

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