समाज को कैसे देखा और समझा जाय, इसका निर्धारण समाज के मानदंडों से ही होता है और ये मानदंड वे बनाते हैं जो समाज में अपना वर्चस्व रखते हैं। यह घटना मेरे गांव की है। तब मैं बहुत छोटा था। लेकिन इतना अवश्य था कि जब यह घटना घटित हुई थी तो मैंने मां को इसकी जानकारी दी थी।
दरअसल, हुआ यह था कि एक भैंस चोरी गयी थी। मेरे गांव के ही पासी (दलित) परिवार के घर से। उनके लिए वह भैंस बहुत महत्वपूर्ण थी। परिवार की आय के दो ही स्रोत थे। एक तो ताड़ के पेड़, जिनसे ताड़ी उतारकर वे बेचा करते थे और दूसरा स्रोत वह भैंस। एक रात उनकी भैंस किसी ने चुरा ली।सुबह होते ही हल्ला मच गया कि चौधरी चाचा की भैंस चोरी हो गयी। उनके घर की महिलाएं रोने लगीं। स्वयं चौधरी चाचा भी हताश होकर जमीन पर बैठ गए। फिर गांव के नौजवनों ने उन्हें साहस दिया और खोजने को कहा।
गांव के नौजवान पांच टोली में बंट गए। भैंस को पहचानना मुश्किल नहीं था। वजह यह कि चौधरी चाचा की भैंस एकदम सड़क पर ही बंधी रहती थी और थी भी वह खूब मोटी। चौधरी चाचा और उनका परिवार उस भैंस को खूब हरा चारा खिलाते थे। वजह भी उनकी गरीबी ही थी। यदि उनके पास आय का कोई और स्रोत होता जैसे कि मेरे घर में था तो मुमकिन था कि वह अपनी भैंस को सूखा चारा के साथ खल्ली-चोकर आदि भी देते।
[bs-quote quote=”ब्राह्मण पंच की राय थी कि ब्राह्मण ने चोरी नहीं की। भैंस खुद-ब-खुद चलकर ब्राह्मण के घर आयी। चूंकि ब्राह्मण धर्म में घर आये किसी भी मेहमान को भगाया नहीं जाता तो ब्राह्मण ने भैंस को अपने घर में आश्रय दिया है। इसलिए उसके उपर चोरी का आरोप नहीं लगाया जा सकता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
खैर, करीब तीन घंटे के बाद चौधरी चाचा की भैंस मिल गयी। वह गांव के ही एक ब्राह्मण के घर के पिछवाड़े बंधी मिली। वहां उस ब्राह्मण ने नांद पर खूंटे से बांध रखा था। दिलचस्प यह कि भैंस ने चौधरी चाचा को पहचान लिया। देखते ही रंभाने लगी।
लेकिन मामला तो अब शुरू हुआ था। चौधरी चाचा और गांव के नौजवान भैंस खोलकर ले जाने लगे तो ब्राह्मण नौजवान अड़ गए। कहने लगे कि यह भैंस खुद चलकर एक ब्राह्मण के घर में आयी है। अब यह कहीं नहीं जाएगी। मतलब यह कि चोरी करने का कोई मामला ही नहीं था ब्राह्मणों के हिसाब से। खूब कहा-सुनी हुई। फिर तय हुआ कि फैसला पंचायत में होगी।
गांव के मंदिर पर पंचायत हुई। चौधरी चाचा यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि उनकी भैंस खुद से चलकर ब्राह्मण के घर गयी हो। यदि वह किसी वजह से खुल भी जाती तो उसके गले में बंधी घंटी की वजह से उनकी नींद खुल जाती। लेकिन वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे कि एक ब्राह्मण पर भैंस चुराने का आरोप कैसे लगाएं। वहीं भैंस भी महत्वपूर्ण थी उनके लिए। पंचायत के पंच बने एक दूसरे ब्राह्मण जो सबसे उम्रदराज थे और दूसरे पंच थे गांव के कोईरी समाज के बुजुर्ग। दोनों की राय अलग-अलग थी। कोईरी समाज के बुजुर्ग ने अपने फैसले में कहा कि ब्राह्मण ने भैंस चोरी की है और उसे पंचायत में आकर सभी से माफी मांगनी चाहिए। साथ ही, उसे यह भी बताना चाहिए कि गांव में इसके पहले जो चार भैंसें चोरी हुई हैं, उसमें उसकी क्या भूमिका है।
वहीं ब्राह्मण पंच की राय थी कि ब्राह्मण ने चोरी नहीं की। भैंस खुद-ब-खुद चलकर ब्राह्मण के घर आयी। चूंकि ब्राह्मण धर्म में घर आये किसी भी मेहमान को भगाया नहीं जाता तो ब्राह्मण ने भैंस को अपने घर में आश्रय दिया है। इसलिए उसके उपर चोरी का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
अंत में फैसला यह हुआ कि चोरी का आरोपी ब्राह्मण गांव के मंदिर का पिंडी छूकर कहे कि उसने चोरी नहीं की। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसे चोर माना जाएगा। आरोपी ब्राह्मण ने मंदिर के पिंडी को छूकर कहा कि उसे चोरी नहीं की। फैसला यह हुआ कि भैंस तो चौधरी चाचा को दी जाएगी लेकिन इसके बदले उन्हें आरोपी ब्राह्मण को सौ रुपए का दक्षिणा देना होगा। और चौधरी चाचा ने यही किया। उस समय भैंस की कीमत दस हजार के आसपास थी। सौ रुपए का दक्षिणा का कोई मोल नहीं था।
[bs-quote quote=”मेरे लिए यह सवाल शेष है – क्या वाकई यह ब्राह्मण जाति के लोगों में कोई वंशानुगत दोष है कि वे न्याय के साथ खड़े नहीं होते?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तो इस सच्ची कहानी से मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहता। मैं पूरे के पूरे ब्राह्मण समुदाय को कटघरे में नहीं करना चाहता। लेकिन यह केवल एक घटना नहीं है। एक घटना एकदम ताजी है और यह पिछले साल दिल्ली में हुए दंगे से संबंधित है, जिसकी सुनवाई दिल्ली की निचली अदालत में चल रही है। कल अदालत ने साफ कर दिया कि दंगे के एक महीने के बाद आरोपियों के खिलाफ मुकदमे दर्ज करने के पीछे दिल्ली पुलिस की कोई दुर्भावना नहीं थी। निचली अदालत के जज वीरेंद्र भट्ट ने यह बात कही। उनका कहना है कि दंगे के बाद स्थिति अत्यंत ही विषम थी और दिल्ली पुलिस शांति स्थापित करने के प्रयास में जुटी थी। इस कारण दंगाें के एक महीने के बाद आरोपियों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराए गए। इस प्रकार जज वीरेंद्र भट्ट ने दिल्ली पुलिस पर लग रहे आरोपों को खारिज कर दिया कि उसने जानबूझकर आरोपियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है।
अब इस मामले में पेंच यह है कि एक सप्ताह पहले ही इस मामले की सुनवाई कर रहे अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव का तबादला कर दिया गया था। हालांकि उनके साथ के तीन और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीशों का तबादला भी किया गया था। लेकिन सबसे अधिक सवाल विनोद यादव के तबादले को लेकर उठाया जा रहा था। इसकी वजह यह थी कि अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने सुनवाई के दौरान दिल्ली दंगे को लेकर दिल्ली पुलिस द्वारा किए गए व्यवहार पर सवाल उठाया था और उनके सवालों से दिल्ली पुलिस असहज हो गई थी। इसलिए यह अनुमान लगाया जा रहा था कि जस्टिस विनोद यादव दंगा के मामले में जनपक्षीय फैसला सुनाएंगे। लेकिन सुनवाई पूरी होने के पहले ही उनका तबादला कर दिया गया।
बहरहाल, मेरे लिए यह सवाल शेष है – क्या वाकई यह ब्राह्मण जाति के लोगों में कोई वंशानुगत दोष है कि वे न्याय के साथ खड़े नहीं होते?
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।
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