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कितनी खतरनाक है आरक्षण में बंटवारे के पीछे की मूल मंशा

ताज़ा उदाहरणों से भी जानना हो कि भाजपा को ज्यादा पीछे रह गए ओबीसी-एससी-एसटी समाज की कितनी चिंता है तो लैटरल इंट्री की ख़तरनाक पॉलिसी को ही देख लीजिए, जिसे अभी-अभी भारी दबाव के चलते स्थगित तो करना पड़ा है। इसके जरिए भारत की नौकरशाही पर कारपोरेट वर्चस्व को न केवल स्थापित करना है बल्कि आरक्षण को भी हायर लेवल पर पूरी तरह खत्म करने की योजना की झलक साफ-साफ दिखती है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हरियाणा पहला राज्य है जिसने एससी-एसटी आरक्षण के वर्गीकरण को लागू करने का ऐलान कर दिया है।

यह पहला भाजपाई राज्य भी है, जो यह करने जा रहा है, हालांकि वहां चुनाव के चलते, कैबिनेट का फैसला लागू नही हो सकता, पर एक राजनीतिक निर्णय है, जो ले लिया गया है।

उम्मीद के मुताबिक ही कोई आंकड़ा भी नही पेश किया गया। किस समाज का कितना प्रतिनिधित्व है, यह बगैर जाने ही बंटवारे का ऐलान कर दिया गया है। यानि अपरकास्ट प्रचार को ही तथ्य मानकर, कुछ दलित जातियों को दंडित करने वाले अंदाज मेंनिशाने पर ले लिया गया।

जाहिर है चुनाव से ठीक पहले, हरियाणा में लिया गया यह फैसला अन्य राज्यों के लिए भी नज़ीर बनेगा। यानि यह अराजकता राज्य दर राज्य वायरस की तरह फैलेगी। मसलन आंकड़े जुटाने की जहमत नही उठाईं जाएगी। जाति जनगणना को इग्नोर किया जाएगा। तत्कालीन राजनीतिक वजहों से फैसले लिए जाएंगे और कुछ संघर्षशील जातियों को टारगेट किया जाएगा। एससी-एसटी समाज के छोटे-छोटे अंदरूनी तनावों को बड़े टकरावों में बदला जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मोदी कैबिनेट के फैसले ने एक भ्रम फैलाया था कि मोदी सरकार गोया कोर्ट के फैसले के खिलाफ है। लेकिन उस दिन भी क्रीमीलेयर पर कुछ ढुलमुल बातें कर,बंटवारे के सवाल पर चुप्पी साध ली गई थी। अब हरियाणा सरकार के निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भाजपा असल में कहां खड़ी है?

हम सब जानते हैं कि भाजपा की राजनीति का सेंटर प्वाइंट ही है विभाजन। इसका उद्देश्य हर तरह की एकता को तोड़ना है लेकिन इस लोकसभा चुनाव में दलित-आदिवासी और ओबीसी समाज की एकता ने भाजपा को जोर का झटका दिया था। इसलिए अब इस एकता को तोड़ना ही भाजपा का केंद्रीय एजेंडा है। अब इस दिशा में दर्जनों रास्ते अख़्तियार भी किए जाएंगे।

हालांकि अगर सचमुच भाजपा को कमजोर दलित आदिवासी जातियों की चिंता रहती, तो फिर मोदी काल में, लाखों बैकलॉग के पद खाली क्यों रखे जाते? पिछले 10 सालों में ‘नाट फाउंड सुटेबुल’ लोकप्रिय मुहावरा कैसे बन जाता?

अगर ताज़ा उदाहरणों से भी जानना हो कि भाजपा को ज्यादा पीछे रह गए ओबीसी-एससी-एसटी समाज की कितनी चिंता है तो लैटरल इंट्री की ख़तरनाक पॉलिसी को ही देख लीजिए, जिसे अभी-अभी भारी दबाव के चलते स्थगित तो करना पड़ा है। इसके जरिए भारत की नौकरशाही पर कारपोरेट वर्चस्व को न केवल स्थापित करना है बल्कि आरक्षण को भी हायर लेवल पर पूरी तरह खत्म करने की योजना की झलक साफ-साफ दिखती है।

यह भी संभव है कि जल्दी ही पिछड़ों के बंटवारे पर केंद्रित रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट भी सामने लायी जा सकती है। और इसके पीछे का मक़सद भी पिछड़ गई अति पिछड़ीं जातियों को हिस्सेदारी देना नही, उन्हें आपस में लड़ाना होगा।

2017 में ही ओबीसी समाज की कुछ जातियों को निशाने पर लेने की मंशा के तहत रोहिणी कमीशन को लाया गया था, पर बाद में तथाकथित मजबूत ओबीसी जातियों के एक बड़े हिस्से का भी भाजपा को समर्थन मिलने लगा था। इसलिए भाजपा तब उन्हें भी नाराज नही करना चाहती थी और इन्ही वजहों के चलते रोहिणी कमीशन को लंबे समय के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में, संपूर्ण ओबीसी समाज ने भी दलित-आदिवासी समाज की ही तर्ज पर भाजपा को निशाने पर ले लिया। समाज ने संविधान, समता एवं सामाजिक न्याय विरोधी भाजपा को पूरा-पूरा पहचान लिया, जिसके चलते पूरे उत्तर भारत और खासकर उत्तर प्रदेश में भाजपा को भारी संकट का सामना करना पड़ा।

भाजपा की नयी रणनीति क्या होगी?….

लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा को नयी रणनीति पर काम करना पड़ रहा है। आप अगर ध्यान दें तो भाजपा ने ओबीसी और दलित समाज से अपना रिश्ता नकारात्मक आधार पर बना रखा था। यानि भाजपा, बहुप्रचारित और नीचे तक स्थापित कर दिए गए, एंटी यादव, एंटी जाटव और कुल मिलाकर एंटी मुस्लिम नैरेटिव पर सवार होकर आगे बढ़ रही थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में इस विचार को झटका लगा। सामाजिक अस्मिता का सवाल केंद्र में आ गया और धार्मिक अस्मिता को उस खास समय में अप्रासंगिक हो जाना पड़ा। इसके चलते दलित-ओबीसी-आदिवासी एकता में विस्तार हुआ। एंटी मुस्लिम भावना भी कमजोर पड़ गयी। इन सभी संदर्भों के चलते अचानक भाजपा संविधान, समता और सामाजिक न्याय विरोधी पार्टी के रूप में स्थापित होती चली गई। इसका खामियाजा उसको लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ा। मोदी की लोकप्रियता को बड़ा धक्का लगा। उत्तर भारत में तो जल्दी ही नरेंद्र मोदी जीत की गारंटी नही रह गए। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के कई इलाकों में तो हार की वजह भी बन गये।

यही वह मुख्य वजह है, जिसके चलते भाजपा को अपनी विभाजनकारी राजनीति को नयी दिशा में मोड़ना पड़ रहा है। बांटने के नये रास्ते तलाशने पड़ रहे हैं। भाजपा के सामने अब यह  प्रश्न है कि कैसे एससी-एसटी और ओबीसी समाज की अंदरूनी एकता,जो फिर से मजबूत हुई है, को तोड़ा जाए, जो लोकसभा चुनाव के दौरान ताकतवर होकर उभरी है।

अगर आप ध्यान दें तो भाजपाई रणनीति एससी-एसटी समाज में से कुछ चुनिंदा जातियों को टारगेट करने, निशाने पर लेने या उनके खिलाफ घृणा अभियान संचालित करने की तो थी, पर अन्य जातियां जिन्हें भाजपा की राजनीति पीड़ित बताती रही है, उन्हें कोई ठोस फायदा पहुंचाने की कोई भी योजना भाजपा के पास कभी भी नही थी।

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पर अब भाजपा नकारात्मक और सकारात्मक दोनों रणनीतियों पर एक साथ काम करने की तरफ बढ़ेगी। कुछ दलित और आदिवासी जातियों को बंटवारे के जरिए अलग से आरक्षण देने का वादा किया जाएगा और को पहले से ही से टारगेट की जा रही जातियों के खिलाफ हेट कैंपेन को और तेज किया जाएगा। यह सिलसिला राज्य दर राज्य चलेगा। उत्तर से दक्षिण तक इस अभियान को संचालित किया जाएगा। पूरे देश में नये सिरे से विभाजन की राजनीति को परवान चढ़ाया जाएगा। हर राज्य में कुछ एससी-एसटी जातियों को चिन्हित किया जाएगा और उन्हें निशाने पर लिया जाएगा। अर्थात यह बिल्कुल स्पष्ट है कि आने वाले समय में अखिल भारतीय स्तर पर एक साथ विभाजनकारी और नफ़रती राजनीति की नयी परियोजना पर भाजपा बड़े स्तर पर उतरने जा रही है।

क्या कर रहा है विपक्ष

विपक्ष की ढुलमुल भूमिका के कारण भाजपा को पहली सफलता मिलती हुई दिख रही है। आरक्षण में बंटवारे के सवाल पर विपक्ष का विखराव साफ-साफ दिखने लगा है। कहीं आपराधिक किस्म की चुप्पी है। कहीं आधे-अधूरे बयान, तो कहीं पहलकदमीविहीन बयान हैं।  विराट कन्फ्यूजन ही विपक्ष का केंद्रीय तत्व बनता जा रहा है।

जाति से जुड़े जटिल प्रश्न ज्यों ही आते हैं, अस्पष्टता और वर्ग संघर्ष की खास तरह की समझ के चलते, मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टियां बेहद असहज हो जाती हैं। वे जनता से भारी अलगाव में चली जाती हैं। आरक्षण के बंटवारे व क्रीमीलेयर के सवाल पर भी वामपंथी खेमा ऐसी ही स्थिति में फिर से चला गया है और वहां लगभग सन्नाटा पसरा हुआ है।

लंबे समय के बाद सामाजिक न्याय की राजनीति की तरफ बढ़ रही कांग्रेस के मुख्य नेता राहुल गांधी ने अभी तक इस मसले पर कुछ बोला ही नही। बहुत देर बाद कांग्रेस अध्यक्ष प्रेस के सामने आए और क्रीमीलेयर का विरोध तो किए पर वर्गीकरण के सवाल पर कोई स्टैंड लेने से ही इंकार कर गये। लेकिन तेलंगाना और कर्नाटक की कांग्रेसी सरकारों  ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत कर दिया।

समाजवादी पार्टी और राजद ने संपूर्ण फैसले का विरोध तो किया पर अपने को केवल बयान देने तक सीमित कर दिया। जनता के बीच जाने, सड़कों पर उतरने से परहेज़ किया।

21 अगस्त को बहुजन जनता द्वारा आयोजित ताकतवर भारत बंद को अगर मोटी आंखों से भी देखा जाए तो समूचा विपक्ष बेहद औपचारिक और लगभग न दिखने वाले समर्थन तक सीमित था। बसपा जरूर (संभवतः कोर्स करेक्शन करते हुए) सक्रिय समर्थन में उतरी। हालांकि पिछले अनुभवों को ध्यान में रखते हुए यह देखना होगा कि आगे बसपा और क्या-क्या बदलती है?

इस खास परिस्थिति में भाजपा को यह लगने लगा है कि यह जो उसका मास्टर स्ट्रोक है वह सही निशाने पर लगा है। यानि जनता में विभाजन और विपक्ष में बिखराव एक साथ होने की संभावना कई गुना बढ़ गई है। पर 21 अगस्त को भारत बंद के जरिए जनता ने अपनी मजबूत एकता का इजहार कर दिया है। जनता ने किसी भी तरह के विभाजन से इंकार कर दिया है। आने वाले समय में आंदोलन और तेज करने का ऐलान भी कर दिया है। अब देखना यह है कि विपक्ष जनता के मूड को कब समझता है, और अपनी एकता की ओर कब बढ़ता है?

मनीष शर्मा
मनीष शर्मा
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बनारस में रहते हैं।

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