Wednesday, October 23, 2024
Wednesday, October 23, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसामाजिक न्यायदलितों-पिछड़ों का वर्गीकरण लेकिन ब्राह्मण-बनियों में क्रीमी लेयर का सवाल क्यों नहीं...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

दलितों-पिछड़ों का वर्गीकरण लेकिन ब्राह्मण-बनियों में क्रीमी लेयर का सवाल क्यों नहीं उठाया जा रहा है

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने दलितों-पिछड़ों के क्रीमी लेयर आरक्षण पर अपना फैसला सुनाया हैं। लोग अपने-अपने तरीके से सुप्रीम कोर्ट के फैसले की व्याख्या कर रहे हैं। असल में मामला वर्गीकरण का था और फैसला वहीं तक सीमित रखा जाना चाहिए था लेकिन कोर्ट के बहुत से न्यायमूर्तियों की टिप्पणियाँ यह दिखा रही हैं कि बहुतों को तो आरक्षण नाम की व्यवस्था से ही परेशानी है। कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट और राज्यों में हाई कोर्ट के कई निर्णय ऐसे आए हैं जिनसे लगता है कि ब्राह्मणवादी शक्तियाँ इस प्रश्न को न्याय प्रक्रिया में उलझाना चाहती हैं। प्रस्तुत है सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले पर विद्या भूषण रावत का विश्लेषण।

अनुसूचित जातियों में उपजाति या जातीय वर्गीकरण करके उन्हें आरक्षण देने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर जहाँ राष्ट्रीय पार्टियाँ चुप हैं वहीं बहुजन समाज पार्टी, आजाद समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, वंचित बहुजन आघाड़ी आदि पूरी तरह से इसके समर्थन में आ गए हैं। हालांकि तमिलनाडु में डी एम के, ए आई डी एम के, पी एम के, वी सी के, एम डी एम के ( अर्थात वहाँ की सभी पार्टियों ने ) इसका समर्थन किया है। याद रहे की तमिलनाडु मे 69% आरक्षण है जिस पर वहाँ की सभी पार्टियों का व्यापक समर्थन रहा है। तमिलनाडु में 60% आरक्षण में 30% पिछड़े वर्ग के लिए, 20% अति पिछड़ों के लिए, 18% दलितों के लिए और 1% आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। दलितों के लिए आरक्षण में 3% आरक्षण अरुंधतियार समुदाय के लिये है जो सफाई के पेशे से जुड़ा है।

इस प्रकार राज्य में आरक्षण असल में जातियों के अनुपात के आधार पर बांटा गया है। तमिलनाडु राज्य और विशेषकर डी एम के ने पिछड़े वर्ग के अधिकारों के लिए सबसे बड़ा आंदोलन किया है और कुल मिलाकर भारत में कोई दल इस संदर्भ में उतना बड़ा दावा नहीं कर सकता जितना डी एम के का होता है। मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने इस फैसले को उनके द्रविड़ियन मॉडल की जीत बताया है।

दक्षिण के एक दूसरे महत्वपूर्ण राज्य कर्नाटक ने भी उच्चतम न्यायालय के फैसले को ऐतिहासिक बताया है। यहाँ भी राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उनकी सरकार ने दलित पिछड़ों के लिए लगातार कार्य किया है। सरकार ने कहा है कि वह इस वर्गीकरण को तुरंत लागू करेगी। पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश, जहाँ तेलुगु देशम पार्टी ने चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व में  सरकार बनाई है, ने इस फैसले को ऐतिहासिक बताया है और इसे लागू करने के लिए कहा है। इसी प्रकार तेलंगाना के मुख्य मंत्री रेवंत रेड्डी ने अपने राज्य में इस वर्गीकरण को शीघ्र लागू करने की बात कही है। असल में, तेलंगाना में इस संदर्भ में अधिक बड़ा और तीखा संघर्ष चला है क्योंकि ‘मदिगा राज्य पोराटा समिति’ के अध्यक्ष मांदा कृष्ण मदिगा ने सबसे पहले वर्गीकरण हेतु यहीं से संघर्ष किया था।

इसी प्रकार वर्गीकरण के समर्थन में महाराष्ट्र के मातंग और मांग समाज के लोग भी खड़े हैं। महाराष्ट्र में भी सरकार ने इस वर्गीकरण को लागू करने की बात कही है। एक अंग्रेजी अखबार के अनुसार महाराष्ट्र में ‘राष्ट्रीय चर्मकार संघ’ के अध्यक्ष और पूर्व शिवसेना विधायक बाबूराव माने ने कहा कि ‘एससी श्रेणी में सभी जातियों को उप-कोटे में विभाजित किया जाना चाहिए… अन्यथा, कुछ चुनिंदा लोगों को लाभ मिलेगा।’ उन्होंने कहा कि ‘अन्य राज्यों में भी ऐसी मांगें की गई हैं।’

अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण के आधार पर आरक्षण के फैसले पर सर्वाधिक मुखर आवाजें महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से उठी हैं। महाराष्ट्र में ‘वंचित विकास आघाड़ी’ के प्रमुख प्रकाश अंबेडकर ने इसका पुरजोर विरोध किया है और इसे आरक्षण को खत्म करने की साजिश बताया है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती ने भी इसे आरक्षण को खत्म करने का षड्यन्त्र बताया है। आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद, लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान और राष्ट्रीय जनता दल ने इसका विरोध किया है। अगर इन सभी लोगों की जातीय लोकेशन देखें तो ये सभी अपने-अपने राज्यों में दलितों में  सबसे बड़े और राजनीतिक रूप से सशक्त समुदाय का नेतृत्व करते हैं। इन्हीं राज्यों में अति दलित जातियाँ जैसे डोम, मुसहर, वाल्मीकि आदि अब अपने लिए अवसर मांग रही हैं।

यह भी पढ़ें  –  कितनी खतरनाक है आरक्षण में बंटवारे के पीछे की मूल मंशा

बिहार के महादलित समुदाय के प्रमुख नेता और केन्द्रीय मंत्री जीतनराम मांझी ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है उसका हम स्वागत करते हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2011-2012 में ही व्यवस्था कर दी थी कि अनुसूचित जाति में एक पिछड़ा और दूसरा अति पिछड़ा वर्ग होता है। ओबीसी में भी पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग है। अनुसूचित जाति में दलित और महादलित भी है। उसको कुछ लोगों ने कोर्ट में चैलेंज भी किया था, जिसे कोर्ट ने अमान्य कर दिया था।

लोग अपने अपने तरीकों से सुप्रीम कोर्ट के फैसले की व्याख्या कर रहे हैं। असल में मामला वर्गीकरण का था और फैसला वहीं तक सीमित रखा जाना चाहिए था लेकिन कोर्ट के बहुत से न्यायमूर्तियों की टिप्पणिया यह दिखा रही हैं कि बहुतों को तो आरक्षण नाम की व्यवस्था से ही परेशानी है।

जजों ने क्रीमी लेयर वाले मामले को लाकर पुनः संकेत दे दिया कि उनकी मंशा क्या है? दुखद बात यह है कि क्रीमी लेयर पर सबसे अधिक जोर जस्टिस बी जी गवई का रहा है जो कि स्वयं एक अम्बेडकरी परिवार की पृष्ठभूमि से आते हैं। उनके पिता आर पी आई के एक प्रमुख नेता थे। उम्मीद की जा रही थी कि सुप्रीम कोर्ट कोई विशेष निर्णय नहीं लेगा और मामला ऐसे ही चलता रहेगा लेकिन जस्टिस गवई ने तो क्रीमी लेयर को लाकर एक नया फ्रन्ट ही खोल दिया। इसलिए इस पूरे निर्णय को दो तरीकों से देखना पड़ेगा।

एक तो यह कि राज्यों में उनकी आबादी के अनुसार वर्गीकरण जो बहुत से राज्यों में पहले से ही मौजूद है, और दूसरे क्रीमी लेयर का प्रश्न। मैं यह मानता हूँ कि वर्गीकरण के लिए बहुत-सी जातियों का संघर्ष पचास वर्ष से चल रहा है और इसलिए वह उचित है, लेकिन क्रीमी लेयर का सिद्धांत तब तक बेमानी है जब तक सुप्रीम कोर्ट हमारी सरकारी नौकरियों की पूरी व्यवस्था का एक ईमानदार विश्लेषण न कर सके।

पिछले कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट और राज्यों में हाई कोर्ट के कई निर्णय ऐसे आए हैं जिनसे लगता है कि ब्राह्मणवादी शक्तियाँ इस प्रश्न को न्याय प्रक्रिया में उलझाना चाहती हैं। जब तक सुप्रीम कोर्ट जनरल और ईडब्ल्यूएस को ठीक से परिभाषित नहीं करेगी तब तक उनका पूरा क्रीमी लेयर का सिद्धांत मात्र एक भाषण और पाखंड ही होगा। आखिर ईडब्ल्यूएस केवल ब्राह्मण-बनियों का आरक्षण क्यों बन गया है?

अब तो राजपूत भी अपने लिए अलग केटेगरी की बात कर रहे हैं। तकनीकी तौर पर दलित, पिछड़े, आदिवासी और सभी समाजों का गरीब तबका ईडब्ल्यूएस में आ  सकता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी एंट्री वहाँ पर बंद कर दी है जो बिल्कुल गलत है। दूसरे, जो अनारक्षित सीटे हैं अब उन्हे ‘सामान्य’ कह कर सवर्ण कोटा बना दिया गया है। इस प्रकार से सुप्रीम कोर्ट की आँखों तले 60% आरक्षण प्रभावशाली जातियों के लिए कर दिया गया है।

आखिर ब्राह्मण-बनियों में क्रीमी लेयर क्यों नहीं है? सवर्णों के नाम पर भी सारा माल दो तीन जातियाँ ही खा रही हैं। इसलिए आवश्यकता है वहाँ पर भी वर्गीकरण  हो और जिन जातियों का प्रतिनिधित्व अधिक है उन्हें कम किया जाए या नौकरियों से बाहर किया जाए। अनारक्षित सीटे भी सभी लोगों के लिए हैं इसलिए जो एससी-एसटी-ओबीसी बिना आरक्षण के क्वालफाइ कर रहे हैं उन्हें वहाँ पर सामान्य में लिया जाए लेकिन दुर्भाग्य यह है कि अब सामान्य कोटे का मतलब सवर्ण कोटा हो चुका है। मतलब अधिकारी और सरकार इसे अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार परिभाषित कर रहे हैं। यदि क्रीमी लेयर की बात होती है तो न्यायालय सामान्य और गरीबों के कोटे को ईमानदारी से परिभाषित करे।

वर्गीकरण का सवाल लगातार उठता रहा है   

उत्तर भारत में इस वर्गीकरण पर जो राजनीति हो रही है वह केवल अपने जातिगत हितों और संख्या बल को अपने साथ रखने की राजनीति है। सोशल मीडिया पर सभी क्रांतिकारी अपनी-अपनी पार्टियों के अनुसार भ्रांति फैला रहे हैं। क्या कारण है कि कोई भी इस बात पर जोर नहीं दे रहा है कि इस प्रश्न पर आपस में बात की जाए। बात होगी कैसे जब आप अपने-अपने जातीय हितों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। सबसे दुखद बात यह है कि एक दूसरे को गालियाँ दी जा रही हैं। कोशिश की जा रही है कि पूरे प्रश्न को केवल आरएसएस का लिंक देकर दूसरे को नीचा साबित किया जाए।

यह प्रश्न केवल वाल्मीकि समाज ने उठाया होता तो जरूर कहा जा सकता है। उपजाति की बात चमार समाज भी वहाँ पर कर रहा है जहाँ वह किसी दूसरे के आगे कमजोर है। आखिर मदिगा समाज का पचास वर्षों का संघर्ष ही इस वर्गीकरण के लिए था। आंध्र, तेलंगाना, कर्नाटक मे मदिगा समुदाय की सबसे बड़ी उपजाति चर्मकार ही है। हालांकि महत्वपूर्ण बात यह भी है  कि मदिगा समुदाय में कुछ एक उपजातियाँ सफाई के पेशे से भी जुड़ी हुई हैं।

मदिगा समुदाय तेलंगाना, आंध्र और कर्नाटक में काफी बड़ी संख्या में है। इस समुदाय की कुछ उपजातियाँ तमिलनाडु में भी हैं। असल में दक्षिण भारत के राज्यों में पहले से ही अनुसूचित जातियों में वर्गीकरण की व्यवस्था है। तमिलनाडु में स्वच्छकार समाज के लोगों को अरुंधतियार कहा जाता है और दलितों को दिए गए 18% आरक्षण में से 3% पर अरुंधतियार समाज के लिए आरक्षित किया गया है।

यह भी पढ़ें- लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा-आरएसएस किस रणनीति पर काम कर रहे हैं।

मदिगा समुदाय के संघर्ष की कहानी बहुत बड़ी है। उन्होंने लगातार आंदोलन किए और हरेक पार्टी से संपर्क किया। 1997 में आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में उनकी बहुत बड़ी रैली के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने उनकी मांगों को स्वीकार करते हुए राज्य में अनुसूचित जाति को चार उपवर्गों में विभाजित कर दिया जिसके विरुद्ध माला जाति ने आंदोलन किया और उनके नेता ई वी चिनय्या, वेंकट राव और माला महानाडु के संस्थापक पी विग्नेश्वर राव ने आंध्र प्रदेश सरकार के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में याचिका दायर की जिसे एक जज की पीठ ने अवैध घोषित कर दिया।

आंध्र सरकार उसके विरुद्ध पहले एक अध्यादेश लाई और फिर कानून बनाकर उसे और मजबूत कर दिया। इस निर्णय को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई लेकिन इस बार उच्च न्यायालय ने उसे वैध ठहराया। 2001 में  हाई कोर्ट के आदेश के विरुद्ध चिनय्या और उनके अन्य साथी सुप्रीम कोर्ट गए। नवंबर 2004 में सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की एक पीठ ने अनुसूचित जातियों मे वर्गीकरण को अवैध ठहराया। लेकिन यह प्रश्न खत्म नहीं हुआ बल्कि विभिन्न जातियों में तनाव बढ़ता ही रहा।

बाद में 2020 मे जस्टिस अरुण मिश्र के नेतृत्व में पाँच जजों की एक पीठ ने 2004 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से असहमति व्यक्त की और कहा कि राज्यों में अनुसूचित जाति को वर्गीकृत किया जा सकता है, क्योंकि चिनय्या केस पर 2004 और 2020 में निर्णय देने वाली जजों की पीठ 5 सदस्यों की थी इसलिए इस प्रश्न को 7 जजों की संविधान पीठ को सौंपा गया, जिसने इस बात को स्वीकार किया कि अनुसूचित जातियोंमें विविधता है और जो समुदाय पीछे छूट गए हैं उन्हें आरक्षण का लाभ देने के लिए राज्यों को इसके वर्गीकरण का अधिकार दिया जाना चाहिए।

महाराष्ट्र और पंजाब में वर्गीकरण का सवाल

इस मामले में महाराष्ट्र में भी बहुत पहले से मातंग और मांग समाज पृथक आरक्षण की मांग कर रहा था। महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों के लिए 13% आरक्षण है और उसमें अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए मातंग, चर्मकार, मांग आदि जातियाँ अलग से आरक्षण की मांग कर रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि बुद्धिस्ट महार लोग ही अधिकांशतः आरक्षण का लाभ ले रहे हैं।

महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों मे 59 जातिया हैं और मातंग समाज सहित अन्य दलित जातियाँ इस आरक्षण को चार वर्गों में विभाजित्त करना चाहती हैं। महाराष्ट्र में पिछड़े वर्ग को 30% आरक्षण है जो पहले से वर्गीकृत किया गया है। इसमें 19% पिछड़े वर्ग के लिए, 11% विमुक्त जातियों के लिए आरक्षित हैं। मजेदार बात यह है कि विमुक्त जातियों के लिए आरक्षित 11% भी चार उपजातियों में विभाजित हैं जिसमें 3% विमुक्त जातियों के लिए,  2.5% घुमंतू जातियों के लिए, 3.5% ढाँगर समुदाय के लिए और 2% वंजारा समुदाय के लिए आरक्षित किया गया है।

पंजाब की कहानी तो और भी पुरानी है। पंजाब में अनुसूचित जातियों के लिए 25% आरक्षण है। 1975 में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने इस आरक्षण को विभाजित कर 12.5% आरक्षण वाल्मीकि/मजहबी समुदाय के लिए आरक्षित कर एक सर्कुलर जारी कर दिया। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 25 जुलाई  2006 को इस आरक्षण को अवैध घोषित कर दिया। इस निर्णय के विरुद्ध पंजाब में बहुत प्रदर्शन हुए। पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार ने 5 अक्टूबर 2006 में एक कानून बनाकर इस आरक्षण को जारी रखा।

इस प्रश्न पर पंजाब में सभी पार्टियों में एकमत था और अकाली दल ने भी इस बिल को पारित होने में सरकार का सहयोग किया। 29 मार्च 2010 को पंजाब सरकार के इस कानून को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने अवैध घोषित कर दिया। उच्च न्यायालय के इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने 30 अगस्त 2010 को रोक लगा दी।

सुप्रीम कोर्ट में पुनः यह मामला 27 अगस्त 2020 को आया जिसमें जस्टिस अरुण मिश्र के नेतृत्व में एक पाँच सदस्यीय खंडपीठ ने ईश्वरय्या फैसले से असहमति व्यक्त की और कहा कि दलितों में कुछ जातियाँ आगे बढ़ चुकी हैं और अधिकांश पीछे ही रह गई हैं और यदि उन्हें अवसर की समानता नहीं मिली तो यह भी अन्याय होगा।

चूँकि पाँच जजों की खंडपीठ का निर्णय पुराने निर्णय से अलग था इसलिए इस पर सुप्रीम कोर्ट को पुनर्विचार की आवश्यकता पड़ी और उसके लिए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता मे 7 जजों की बेंच बनी जिसने इन सभी मसलों पर राज्यों के और विभिन्न संगठनों की याचिकाओ को सामने लेते हुए यह निर्णय दिया कि अनुसूचित जातियाँ एकांगी ( होमोजिनस) नहीं हैं और उनमें भी बहुलता है। खंडपीठ ने यह कहा कि राज्यों को अनुसूचित जातियों में वर्गीकरण करने का अधिकार है लेकिन यह कार्यवाही पूरी तरह से  शोधपूर्वक एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित होनी चाहिए।

इस प्रश्न पर सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जातियों के बीच सीधे-सीधे गाली-गलौज और आरोप-प्रत्यारोप तीव्र होते गए। यह आरोप लगाना कि कुछ जातियों ने सारा माल हड़प लिया है बेहद निराशाजनक है जबकि अधिकांश सीटें अभी भी नहीं भरी जा रही हैं। लेकिन जिन जातियों से न कोई राजनैतिक प्रतिनिधित्व और न ही कोई किसी भी स्तर पर व्यवस्था में भागीदारी हो रही है वे तो सवाल उठायेंगी।

प्रश्न यह है कि जो जातियाँ संख्या या राजनीतिक और सामाजिक रूप से प्रभावशाली हैं क्या वे अपने ही समाज की दूसरी जातियों के साथ बातचीत भी करने को तैयार हैं? क्या अति दलितों का सत्ता और प्रशासन में  भागीदारी का सवाल गलत है या उनके पास अवसर की समानताएँ उपलब्ध हैं। क्या वाकई यह प्रश्न राज्यों के द्वारा वहाँ की जातीय संरचना के अनुसार नहीं उठाया जाना चाहिए? अक्सर यह कहा जाता है कि दलितों में आपस में छुआछूत या जातिवाद नहीं है लेकिन यह गलत है।

दुर्भाग्यवश हम बाबा साहब की बातों को ही नहीं स्वीकार कर पा रहे जिन्होंने श्रेणीगत असमानता की बात कही है। आज भी गांवों में स्वच्छकार, डोम, बांसफोर, हलखोर आदि जातियाँ अन्तर्जातीय छुआछूत का शिकार होती हैं। सभी जातियों में कोई आपसी सामाजिक या सांस्कृतिक संबंध भी नहीं है।  इन जातियों की  राजनीतिक भागीदारी भी नही है। ऐसी ही बहुत सी अन्य जातियाँ हैं जो संख्याबल में अल्पसंख्यक हैं इसलिए बृहत्तर दलित आंदोलन भी उन तक नहीं पहुंचा है, जिसके फलस्वरूप वह अपने से बड़े समुदाय को हमेशा शक की दृष्टि से देखती हैं। ऐसी स्थिति पूरे दलित आंदोलन के लिए अच्छी नहीं है।

बदलाव की चाह हर कहीं है

आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व मैंने स्वच्छकार समाज के बीच जाना शुरू किया। उस दौर में यह शब्द सबसे पहले उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर जनपद के मुहम्मदाबाद नामक स्थान पर ‘स्वच्छकार कल्याण समिति’ नामक संगठन से शुरू हुआ। देश के उत्तर में सफाईकर्मी अपने लिए वाल्मीकि सरनेम प्रयोग करते थे लेकिन मुहम्मदाबाद जाने पर  मुझे यह सुनकर बहुत अच्छा लगा कि ये लोग बाबा साहब अंबेडकर की विचारधारा पर चल रहे हैं और एक नए शब्द का उपयोग कर रहे हैं।

मेरे मित्र राजकपूर रावत और राजकुमार रावत उस दौर में पूरे समाज में शिक्षा और जागरूकता का मिशन चला रहे थे। जब मैंने वहाँ युवाओं से बातचीत शुरू की तो सबके नए सपने थे। कोई भी युवा यह नहीं कह रहा था कि उसकी मंजिल नगरपालिका मे सफाईकर्मी का काम है। सभी चाहते थे कि वे डॉक्टर, इंजीनियर बनें या प्रशासनिक सेवाओं मे जाएँ।

उस समय वहाँ पर इन बच्चों के सपनों को उड़ान देने के लिए हमने परिवर्तन केंद्र बनाया और स्वच्छकार समाज की लड़कियों के लिए एक छोटा सा कंप्यूटर ट्रैनिंग का केंद्र खोला जिसमें समाज की महिलाओं के लिए भी सिलाई और कढ़ाई के सीखने की व्यवस्था थी।  हमने यह भी व्यवस्था की कि बच्चों को बाबा साहब के जीवन और साहित्य की जानकारी मिले। इसके अलावा तर्क और मानववादी सोच को आगे बढ़ाने वाले साहित्य उपलब्ध करवाए गए।

पूरे मुहम्मदाबाद में स्वच्छकार समाज का युवा अब सपना देख रहा था और शिक्षा के प्रति जागरूक होने लगा था। लड़के-लड़कियाँ कॉलेज और विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने हेतु अपने घरों से बाहर निकल पड़े। बहुतों ने टेक्निकल शिक्षा ली तो कइयो ने बीएड भी किया। दुर्भाग्य यह है कि आज भी स्कूल अध्यापकों से लेकर स्थानीय प्रशासन में स्वच्छकार समाज की अधिकता केवल सफाई के काम में ही है। क्या यह सरकार का कर्तव्य नहीं कि वह सफाई के पेशे और अन्य ऐसे वंशानुगत पेशे से जुड़े लोगों को रोजगार दे ताकि वे भी सत्ता में भागीदारी कर बदलाव की ओर अग्रसर हो सकें।

डोम और मुसहर समाजों में तो ऐसी स्थिति भी नहीं है। वहाँ पढ़ाई का स्तर ऊँचा नहीं हो पाया क्योंकि वे ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। कम से कम उत्तर प्रदेश में इन समाजों का कोई भी व्यक्ति छोटी सी भी नौकरी में दिखाई नहीं देता। समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी लगभग शून्य है और दलित-पिछड़ों की राजनीति में  उनके लिए जगह नहीं है लिहाजा वे विरोधी खेमे में चले जाते हैं।

यह सोचने की बात है कि हमने इस बहस को बेहद नाटकीय बना दिया। जो लोग वर्गीकरण की बात कर रहे हैं वे विश्वविद्यालयों की नौकरियों को ही ढूंढ रहे हैं। मुख्यतः लोग उन सरकारी नौकरियों की बात कर रहे हैं जो राज्य बड़े स्तर पर निकालता है। जैसे हर वर्ष केंद्र की यूपीएससी के जरिए सिविल सर्विसेज़ आदि के लिए हर वर्ष आवेदन मांगे जाते हैं, वैसे ही राज्यों में राज्य स्तरीय सेवाओं के लिए भी आवेदन होते हैं।

यह भी पढ़ें – शहरों में मेहनतकशों के घरों पर बुलडोजर न्याय नहीं, आवास की भीषण समस्या पर पर्दा डालना है

क्या वाल्मीकि, मुसहर, डोम आदि समुदायों के लोगों में कोई पुलिस सेवा में सिपाही, थानेदार, तहसीलदार, अध्यापक आदि नहीं निकल सकते? और यदि वे यहाँ पर कहीं नहीं हैं तो क्या सरकार को यह व्यवस्था करनी चाहिए या नहीं? यदि सरकार थोड़ा व्यवस्था कर भी दे तो क्या समाज को खड़े होकर इसका स्वागत नहीं करना चाहिए?

आखिर जो व्यवस्था हो रही है वह दलितों के लिए ही तो हो रही है। क्या हम यह बात अपने नीति निर्माताओं से नहीं कह सकते कि यदि इन वर्गों से कोई ‘उपयुक्त व्यक्ति’ नहीं मिला तो अनुसूचित जाति के ही अन्य वर्गों से उसकी भर्ती की जाएगी। क्या यह नहीं कहा जा सकता कि अनुसूचित जाति का 17% कोटा किसी भी हालत में  गैर अनुसूचित जातियों को नहीं दिया जाएगा? यह समझ लेना चाहिए कि यह आंदोलन मात्र वाल्मीकियों का नहीं है।

जहाँ चमार समाज को नहीं मिल रहा है वहाँ वह भी बड़े समाज के विरुद्ध खड़ा है जैसे महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों में। आज सभी समाज सत्ता में अपनी भागीदारी चाहते हैं और जिनके पास संख्या और ताकत है वे तो इसे आसानी से दिखाकर ले ले रहे हैं लेकिन जिनके पास ताकत, सत्ता, संख्याबल नहीं है वे अपनी दूसरी रणनीति बनाते हैं और फिर उन पर आरोप लगता है कि वे दुश्मन से मिल गए हैं। हालांकि ‘दुश्मन’ से तो सभी लोग अपनी अपने सुविधाओं के अनुसार मिल ही रहे हैं।

व्यापक संवाद बिना हर बात एकतरफा होगी

बाबा साहब भी इस सवाल को समझते थे। यह केवल नौकरियों की बात नहीं है। दिलों को जोड़ने की बात है। कुछ वर्ष पूर्व जब मै बर्मिंघम में अपने अम्बेडकरी मित्र देविंदर चंदर जी के यहाँ था तो उन्होंने पंजाब की एक बहुत पुरानी फोटो मुझे दिखाई। उस फोटो में बाबा साहब अपने घर के बाहर कुर्सी पर बैठे हैं और लगभग 25 लोग उनके साथ उस तस्वीर में दिखाई दे रहे हैं। ये लोग पंजाब और हरियाणा के रविदासी और वाल्मीकि समाज के लोग थे।

याद रहे, बाबा साहब के साहित्य को सबसे पहले सँजोने वाले ऐडवोकेट भगवान दास थे और वह सफाईकर्मी परिवार से आते थे। उनका पूरा जीवन बुद्धिज़्म और अम्बेडकरवाद को समर्पित था। उनके सबसे अच्छे मित्रों मे श्री एन जी उके  और श्री एल आर बाली थे । तीनों में जातियों की कभी कोई बात नहीं हुई क्योंकि अंबेडकरवाद उनका मिशन था और तीनों बौद्ध धम्म को समर्पित थे। मान्यवर कांशीराम के साथ भी दीनाभाना वाल्मीकि ने सहयोग किया और बहुजन आंदोलन का निर्माण किया।

ये बातें इसलिए क्योंकि अम्बेडकरी मिशन को बढ़ाना है तो दिलों को जोड़ना पड़ेगा। आपसी मतभेद को मिटाने के लिए लोगों की चिंताओं और आकांक्षाओं को अपमानित करने से बचना होगा। राजनीतिक दल और नेता अपने-अपने हितों के अनुसार बात कर रहे हैं लेकिन साथ बैठकर नए तरीकों से सोचकर आगे बढ़ने की जरूरत है। किसी समस्या का समाधान इस बात मे नहीं है कि आप उसे स्वीकार ही न करें अपितु उन समुदायों तक पहुँचने का प्रयास करें और उन्हें अपने साथ आगे बढ़ने का अवसर दें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here