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तमाम मुश्किलों में भी गुलजार है सावित्रीबाई फुले की पाठशाला

भारत की पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले का व्यक्तित्व हमेशा हमको इस बात के लिए प्रेरित करता है कि कैसे हमें कठिन हालात में भी अपने दायित्व को लेकर आगे बढ़ते रहना चाहिए। उनका ज़िक्र आते ही हमें याद आता है कि किस प्रकार उन्होंने वंचित समाजों को शिक्षा की रौशनी से आलोकित किया और साथ […]

भारत की पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले का व्यक्तित्व हमेशा हमको इस बात के लिए प्रेरित करता है कि कैसे हमें कठिन हालात में भी अपने दायित्व को लेकर आगे बढ़ते रहना चाहिए। उनका ज़िक्र आते ही हमें याद आता है कि किस प्रकार उन्होंने वंचित समाजों को शिक्षा की रौशनी से आलोकित किया और साथ ही हमारी नज़र इस बात पर भी जाती है कि अभी भी समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जिस तक शिक्षा आज भी नहीं पहुँच पाई है। आज शिक्षा को बिकाऊ माल बनाने के लिए जिस प्रकार केंद्र और राज्य सरकारें उसे कॉर्पोरेट के हाथों गिरवी रखने को उतारू हैं वह भारत के मेहनतकश और गरीब वर्ग का भविष्य को अंधेरे में धकेलने का एक खुला षड्यंत्र है। लेकिन इसके खिलाफ देश के तमाम हिस्सों में न केवल आंदोलन चल रहे हैं बल्कि कई ऐसी पहलकदमियाँ भी चल रही हैं जिनका उल्लेख अत्यंत जरूरी है। इनमें से एक है सवित्रीबाई फुले पाठशाला।

सावित्रीबाई फुले पाठशाला की एक कक्षा

एक बेहतर दुनिया के निर्माण का छोटा सा प्रयास किया है अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की ग्वालियर इकाई व नींव सामाजिक संस्था ने। ग्वालियर में सावित्रीबाई फुले की पाठशाला के नाम से तीन स्कूल खोले गये हैं। ये तीनों ही स्कूल बस्तियों में खोले गये हैं और इन स्कूलों में बच्चों को निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गई है। तीनों स्कूलों में कक्षा 8 तक बिना किसी जाति-धर्म के भेद के बच्चों को शिक्षा दी जाती है मगर अधिकांश बच्चे दलित व वंचित समुदाय के ही आते हैं। इन स्कूलों में उन बच्चों को भी शिक्षा देने का काम किया जाता है जिनका स्कूल आर्थिक परेशानी से छूट गया है तथा उन बच्चियों को भी शिक्षा दी जाती है जो बेटा-बेटी के भेदभाव के चलते शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह गई हैं।

सावित्रीबाई फुले की पाठशाला में पढ़ने आने वाले बच्चों की स्थिति से सरकारी स्कूलों में शिक्षा की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज भी कई सरकारी स्कूल मात्र एक शिक्षक के भरोसे ही संचालित किये जा रहे हैं, जबकि हमारे प्रदेश में लाखों युवा बीएड डीएड की डिग्रियां इस उम्मीद में हासिल की थी कि वे इन डिग्रियों को लेकर कल के बेहतर भारत की रचना करेंगे। बेहतर भविष्य को गढ़ने का सपना आज भी उन लाखों युवाओं का सपना ही है और वर्तमान सरकारों की नीतियों को देखकर नहीं लगता कि ये सपना सच हो पायेगा।

पढ़ाई और संघर्ष साथ-साथ ताकि इंसानियत और मानवाधिकार की ललक बढ़े

सरकारी स्कूलों के बहुत से बच्चों की उम्र और कक्षा के मुकाबले उनका अक्षर ज्ञान बिलकुल न के बराबर है। कई ऐसे बच्चे हैं जो डिक्लेक्सिया संबंधी बीमारी से ग्रसित हैं और अक्षर को सही से नहीं पहचान पाते, उन्हें पढ़ने-लिखने में बहुत दिक्कत का सामना करना पड़ता है। ऐसे बच्चों को सामान्य बच्चों की श्रेणी में रख कर जब व्यवहार करते हैं तो ऐसे बच्चे सामान्य बच्चों से लगातार पिछड़ते चले जाते हैं। ऐसे बच्चे समय के साथ उद्दण्ड और शरारती हो जाते हैं। सावित्रीबाई फुले की पाठशाला में ऐसे बच्चों पर विशेष ध्यान देकर प्यार से बच्चों को अक्षर ज्ञान देने की कोशिश की जा रही है।

एक बच्ची जिसकी मां बचपन में ही गुजर गई थी जिसकी उम्र 14 वर्ष है मगर कभी स्कूल में दाखिला ही नहीं ले पाई मगर जनवादी महिला समिति के प्रयास से उसने सावित्रीबाई फुले पाठशला में दाखिला लिया और बहुत जल्दी अक्षर ज्ञान सीख लिया और आगे इस बच्ची की शिक्षा जारी रहे, इसका पूरा प्रयास किया जायेगा।

सावित्रीबाई फुले स्कूल आज विकास के पथ पर बढ़ रहा है तो इसमें बहुत ही महत्वपूर्णं भूमिका स्कूल में पढ़ाने वाली तीन समर्पित लड़कियां रीना माहौर, गीता जाटव और प्रियंका गोंड़ की अथक मेहनत और लगन है जिन्होंने विषम परिस्थितियों में भी स्कूल को बंद नहीं होने दिया है, वह भी बिना किसी व्यक्तिगत अथवा आर्थिक हित के।

एक शिक्षिका प्रियंका जो उम्र में सबसे छोटी होने के बावजूद बेहतर समाज के निर्माण में एडवा से जुड़कर नींव का हिस्सा बनी और बिना किसी पारिश्रमिक के सावित्रीबाई फुले स्कूल में बच्चों को शिक्षा देने का कार्य शुरू किया। इसके साथ-साथ अपनी भी शिक्षा को जारी रखे हुए है। दूसरी शिक्षिका गीता जाटव जो शहरी सीमा से लगे एक दलित गांव से आती है और जो अपने आपमें महिला शिक्षा का जीता जागता उदाहरण है। गीता अपने गांव की पहली लड़की है जिसने स्नातक किया है। जिस धैर्य और जिद से गीता ने अपनी पढ़ाई की है वह शिक्षा के प्रति गीता की जिजीविषा को दर्शाती है। संघर्षों से हांसिल शिक्षा को अपने समाज के बच्चों को देने के लिए गीता आज संस्था से जुड़कर निःस्वार्थ शिक्षा का सूद चुकाने का काम कर रही है। तीसरी शिक्षिका रीना माहौर अपने परिवार की इकलौती बेटा भी हैं और बेटी भी। पिता की दुर्घटना की वजह से रीना के माता-पिता ने भारी मन से अपनी लाड़ली बेटी की शादी कर दी मगर बीमार पिता को देखने के लिए ससुरालवालों की बार-बार घर आने पर रोका-टोकी के चलते रीना ने अपने पति से संबंध विच्छेद कर ससुराल छोड़ दिया और घर आकर अपने माता-पिता की सेवा में लग गईं। एडवा के सम्पर्क में आईं और धीरे-धीरे सावित्रीबाई फुले पाठशाला का हिस्सा बनीं और आज बच्चों की चहेती शिक्षिका के रूप में बेहतर समाज की कल्पना को साकार करने में लगी हैं।

[bs-quote quote=”दूसरी शिक्षिका गीता जाटव जो शहरी सीमा से लगे एक दलित गांव से आती है और जो अपने आपमें महिला शिक्षा का जीता जागता उदाहरण है। गीता अपने गांव की पहली लड़की है जिसने स्नातक किया है। जिस धैर्य और जिद से गीता ने अपनी पढ़ाई की है वह शिक्षा के प्रति गीता की जिजीविषा को दर्शाती है। संघर्षों से हांसिल शिक्षा को अपने समाज के बच्चों को देने के लिए गीता आज संस्था से जुड़कर निःस्वार्थ शिक्षा का सूद चुकाने का काम कर रही है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

एडवा और नींव संस्था ने मिलकर बच्चों की नींव मजबूत हो इसका बीड़ा उठाया है। बच्चों की कक्षा के हिसाब से बेसिक कोर्स तैयार किया है जिसे एक निश्चित समयावधि में पूरा करना बड़ा लक्ष्य था परन्तु समर्पित शिक्षिकाओं ने निश्चित समयावधि में पूरा कर अपने आप से किया वादा पूरा किया किया जो बच्चों में आत्मविश्वास पैदा करता है। शिक्षा संबंधी खिलौनों के प्रयोग से बच्चे खेल-खेल में अक्षर ज्ञान सीख रहे हैं और बच्चों मनोरंजन भी हो रहा है। एडवा और नींव के कार्यों को देखकर श्रीमती नम्रता गण्धे, जो स्वयं एक बड़े कालेज में खेल की शिक्षिका हैं, बच्चों को स्वस्थ रहने के लिए खेल-खेल में व्यायाम कराती हैं ताकि बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास ठीक ढंग से हो।

अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की ग्वालियर इकाई और नींव सामाजिक संस्था ने बेहतर समाज के निर्माण में जो पहल की है उसमें कई लोगों की जो मदद मिल रही है वह हमारा हौंसला बढ़ा रही है, परन्तु हमें यह बात बहुत दुखी करती है कि आर्थिक परेशानियों के चलते हम चाहकर भी बच्चों को पढ़ने के लिए छत की व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं। हम दुखी हो जाते हैं जब बरसात की वजह से बच्चे एक दिन भी शिक्षा पाने से वंचित हो जाते हैं। हमें पीड़ा होती है कि हम इन मासूम बच्चों को आर्थिक परेशानियों के चलते कहीं घुमाने नहीं ले जा पाते परन्तु फिर भी बच्चों का हौंसला देखकर हमें भी यकीन होता जा रहा है कि बोया हुआ पसीना व्यर्थ नहीं जाता, फसल मिलने में देर भले ही हो जाये।

रीना शक्य अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति ग्वालियर की जिलाध्यक्ष और नींव शिक्षा जनकल्याण समिति की सचिव हैं।

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