जब से आम बजट को पेश किया गया है, एकांगी क़िस्म के चर्चाओं की बाढ़ आयी हुई है।
मध्यम वर्ग के लिए टैक्स छूट की राहत को क्रांतिकारी बदलाव बताया जा रहा है। सारा गोदी मीडिया उछल-उछल कर इसका स्वागत कर रहा है।
चैनलों पर प्रकट हो रहे प्रवक्ता व तथाकथित विश्लेषक, झूम-झूम कर इस पहल को न केवल मध्यवर्ग के लिए बल्कि
समूची अर्थव्यवस्था को गतिशीलता प्रदान करने वाला क़दम बता रहे है।
पर यह कितना बदलाव है, इस बारे में खुद निर्मला सीतारमण ही अपने बजट भाषण के दौरान जो व्याख्या कर रहीं थी उसमें कोई ऐसी उत्साहित करने वाली बात बिल्कुल ही नहीं दिख रही है।
उनका कहना है कि हर साल 12 लाख तक वेतन पाने वाले की लगभग साल भर में 80000 रूपए की बचत यानि हर महीने मात्र 6666 रूपए की बचत।
यानि 142 करोड़ लोगों वाले देश में मात्र 3 करोड़ लोगों को हर महीने मामूली सी राहत को कैसे बड़े बदलाव के बतौर देखा जाए।
जिस तरह महंगाई दर बढ़ती जा रही है,यानि मुद्रा स्फीति लगातार 5 से 6 फीसदी बनी हुई और सब्जियों की महंगाई दर तो लगभग 9 फीसदी तक चली जा रही है,आर्थिक सर्वे भी इसी तरफ़ इशारा कर रहा है.
ऐसे में टैक्स छूट पाने वाले लाभार्थी हिस्से को भी सोचना पड़ेगा,और हिसाब-किताब लगाना पड़ेगा कि टैक्स में छूट का फायदा,बढ़ती महंगाई को देखते हुए वास्तव में और कितना कम हो जाएगा।
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इस संदर्भ में ठीक-ठीक जानकारी, एक सप्ताह बाद ही लग पाएगा, जब संसद में फाइनेंस बिल पेश किया जाएगा,
तब ही यह पता चलेगा कि इस टैक्स छूट के साथ, जिसे ऐतिहासिक बताया जा रहा है, में कितने किंतु-परंतु और जोड़ दिए गए हैं।
यह भी पहली बार हो रहा है जब बजट के साथ फाइनेंस बिल पेश नहीं किया किया जा रहा है, शाय़द इसके पीछे दिल्ली की चुनावी जंग है, और इसलिए भी, टैक्स छूट का मसला शक-सुबहा के दायरे में आ गया है।
सत्ता और मीडिया द्वारा चलाए जा रहे इस कैम्पेन की भी पोस्मार्टम होनी चाहिए कि टैक्स में छूट वाली पहल से वास्तव में अर्थव्यवस्था को कितनी गति मिलेगी।
लगभग सभी जनपक्षधर अर्थशास्त्री बार-बार पहले से ही कह रहे हैं और बजट पेश होने के बाद भी कह रहे हैं कि व्यापक मजदूर-किसान व गरीब आबादी को कोई आर्थिक राहत दिए बगैर यानि उनके जेब में पैसा डाले बगैर,अर्थव्यवस्था को गतिशीलता प्रदान की ही नहीं जा सकती।
अगर केवल टैक्स छूट की ही बात थी तो सरकार को अप्रत्यक्ष कर कम करने पर ध्यान देना चाहिए था, जो 18 से 28 फीसदी तक है और जिसने लगभग भारत की 100 करोड़ आबादी को भारी संकट में डाल रखा है और बाजार को भी और फिर इसी तरह अर्थव्यवस्था को भी गतिहीन कर रखा है।
ऐसे में केवल दो-ढाई या तीन करोड़ लोगों को,कर राहत देकर कोई बड़े बदलाव की उम्मीद पालना और उसका प्रचार करना या तो मूर्खता है या फिर सचेत तरिके से अर्थव्यवस्था की खराब होती सेहत पर पर्दा डालने जैसा है.
विश्लेषक तो यहां तक कह रहे हैं कि ये जो 12 लाख सैलरी वाला और 3 करोड़ संख्या वाला मध्यवर्ग है, यह भी ढेर सारे कर्ज़े में हैं। इसने होम लोन ले रखें है, कार लोन ले रखें है, महंगाई की मार उस पर भी पड़ रही है,जो उसकी सैलरी से ज्यादा गति से बढ़ रही है।
सो वह अपनी मामूली बचत भी कहां खर्च कर पाएंगा, शायद सबसे पहले उसका ध्यान अपने कर्ज़े चुकाने की तरफ़ जाएगा। उसकी ईएमआई ही उसकी प्राथमिकता में होगी।
अर्थव्यवस्था का संकट
जब अर्थव्यवस्था के संकट पर सोचते हैं और वर्तमान आर्थिक सर्वे पर ध्यान देते है तो पता चलता है कि संकट बहुत बड़ा है।
कोरोना के बाद हमारी अर्थव्यवस्था सबसे खराब स्थिति में है, विकास दर 6.3 फीसदी तक ही सिमट गई है, यह तस्वीर भी केवल औपचारिक क्षेत्र का है, जिसे हम संगठित क्षेत्र भी कहते हैं। यह जानना भी जरूरी है कि संगठित क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था का सिर्फ 6 फीसदी है।
यानि 6.3 फीसदी ग्रोथ रेट, अर्थव्यवस्था के बेहद छोटे हिस्से की तस्वीर पेश करता है, जिसकी सेहत भी कोरोना काल के बाद सबसे खराब स्थिति में है।
अनौपचारिक क्षेत्र या असंगठित क्षेत्र की सेहत तो,जो इकोनॉमी का 94 फीसदी है,और भी ख़राब है,सरकार जिसका आंकड़ा भी नही लाती है,और संगठित क्षेत्र के आधार पर ही इस क्षेत्र के बारे में भी अनुमान लगा लेती है।
अगर इस सेक्टर की भी सांइटिफिक आधार पर आंकड़े इकट्ठे किए जाएं तो निश्चित तौर पर सरकार खराब नीतियों के चलते, अनौपचारिक क्षेत्र की ग्रोथ रेट 2 फीसदी के आसपास ही पायी जाएगी,जो कि भारत की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद ख़तरनाक संकेतक है।
पहले नोटबंदी फिर खराब जीएसटी और कोरोना के दौरान पालिसी पैरालिसिस के चलते भी लघु व मध्यम वर्ग उद्यमों को लगभग बर्बाद कर दिया गया, कृषि क्षेत्र को भी संकटग्रस्त किया गया, जबकि भारत में इन्ही क्षेत्रों से 94 फीसदी रोजगार उपलब्ध होता है, जिन पर बार-बार बड़ी पूंजी के हित में नीतिगत प्रहार किए गए। लेकिन बजट की दिशा बता रही की हमला अभी जारी है।
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समाधान की दिशा क्या होनी चाहिए
बजट की मूल दिशा क्या होनी चाहिए जब हम इस पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करना ही हमारी आम बजट की प्राथमिकता में होनी चाहिए.
पर सरकार की प्राथमिकता में यही नही है। ग्रामीण विकास जो की रोजगार उत्पादन का बड़ा सेंटर हैं,बजट की प्राथमिकता से बाहर है,इसी तरह मनरेगा के बजट में कोई भी वृद्धि नही की गयी है, और बढ़ती मंहगाई और मुद्रा स्फीति को जोड़ लिया जाए तो वास्तव में मनरेगा का बजट पर्याप्त मात्रा में घटा दिया गया है।
शिक्षा व स्वास्थ्य पर निवेश को,घाटा-मुनाफा वाले एंगल से न देखते हुए,ज्यादातर अर्थशास्त्री भी मजबूत अर्थव्यवस्था व राष्ट्र निर्माण के लिए,व रोजगार में विस्तार लिए,निवेश के बतौर देखते रहे हैं।
इसलिए लंबे समय से शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसदी व स्वास्थ्य पर जीडीपी का कम से कम 3 फीसदी निवेश की मांग होती रही है।
पर मोदी सरकार का यह 12वां बजट भी इस लक्ष्य के आसपास भी जाता हुआ नही दिख रहा है।
कृषि क्षेत्र जो आज़ भी कुल रोजगार का 45 फीसदी मुहैय्या कराता है, वहां भी किसानों की एक भी मांग आम बजट ने नहीं मानी।
यहां तक कि संयुक्त संसदीय समिति की शिफारिशों को भी नहीं माना गया। संसदीय समिति ने साफ-साफ कहा कि किसानों के कर्ज़े माफ़ कर दिए जाने चाहिए, एमएसपी की कानूनी गारंटी दे देनी चाहिए, किसान सम्मान निधि का बढ़ाना चाहिए।
पर आम बजट में एक भी बात नही मानी गई है, बल्कि उल्टे फसल बीमा योजना के बजट को भी घटा दिया गया है।
मोदी सरकार की मजबूरी क्या है
2024 के चुनाव में जनता ने संघ-भाजपा को जो झटका दिया था,अभी भी उससे उबरना भाजपा के लिए बाकी है।
आम बजट की दिशा को भी इसी झटके से उबरने की कोशिश के बतौर ही देखा जाना चाहिए।
2024 मे भाजपा पर संविधान व सामाजिक न्याय विरोधी होने का आरोप चस्पा हो जाने की वज़ह से, दलित पिछड़ा व आदिवासी समाज के बड़े हिस्से ने अपने को अलग कर लिया था। जिसे फिर से जोड़ने की जद्दोजहद अभी भी जारी है।
पर अब भाजपा के सामने उससे भी बड़ा एक और संकट मंडराने लगा है, शहरी मध्यवर्ग जो उसका मूल वोटर हैं, तेजी से निराशा की तरफ़ बढ़ता दिख रहा है। सिर्फ हिंदुत्व की राजनीति के बल पर उसे अपने साथ रखना मुश्किल होता जा रहा है।
बजट में टैक्स छूट देकर बस इसी राजनीतिक मक़सद को साधने की कोशिश की गई है, इस पहल से शायद दिल्ली चुनाव में भी कुछ माइलेज मिल जाए,पर यह पहल अखिल भारतीय स्तर अपने मूल वोटर को निराशा से बाहर लाने की कोशिश है।
कुल मिलाकर इस आम बजट के जरिए,न तो विकराल होती बेरोजगारी,ना ही बढ़ती मंहगाई को और ना ही विस्तार लेती असमानता को ही किसी भी कोण से संबोधित करने की रत्ती भर भी कोशिश नही की गयी है, जो कि बेहद निराशाजनक है।