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ग्राउंड रिपोर्ट

आज़ाद भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था ही नहीं बदली तो क्या बदला?

संविधान निर्माताओं ने सोचा था कि कुछ दशकों में स्थिति बदल जाएगी, चुनाव इसका माध्यम होगा, लेकिन परिणाम हम सबके सामने है। आज भी यह निर्विवाद सत्य है कि लोग डॉ. अंबेडकर के विचारों का पालन करें या न करें लेकिन आज अंबेडकर के नाम पर राजनीति सबसे ऊपर है।  ऊपरी तौर पर ही सही सभी राजनेता आज मानने को बाध्य है कि डॉ. भीम राव अंबेडकर ने हमें दुनिया का सबसे अच्छा संविधान दिया है। लेकिन इसके बाद भी ब्राह्मणवादी सोच ने पूरे देश में दलित,पिछड़े और अल्पसंख्यकों पर हावी हैं। सवाल यह भी होगा कि क्या संविधान बनने के 75 साल बाद भी बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर असफल रहे? क्या उनका सपना बस सपना ही रह गया और अगर ऐसा है तो क्या इसके लिए हम सब जिम्मेदार नहीं हैं?

यह निर्विवाद सत्य है कि अंग्रेज़ों ने साल 1919 में कलकत्ता हाई कोर्ट में ब्राह्मणों को जज बनाने पर रोक लगा दी थी। उनका कहना था कि ब्राह्मणों में न्यायिक चरित्र नहीं होता और वे जाति के आधार पर फ़ैसला लेते हैं। अंग्रेज़ों का मानना था कि ब्राह्मण ‘जाति’ देखकर फ़ैसला लेने की वजह से न्याय व्यवस्था बिगड़ गई है।

इसके आलोक में यह आज की न्याय प्रणाली का कमजोर पक्ष यह है कि आज देश में 90% जज ब्राह्मण हैं, जबकि अंग्रेजों ने ब्राह्मण को जज बनने पर 1919 में रोक लगा दी थी और कहा था – ब्राहम्णों का न्यायिक चरित्र जाति के आधार पर पक्षपात पूर्ण होता है।

यह एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस शासन में ब्राह्मण समाज की 90% हिस्सेदारी थी जबकि भाजपा शासन में ब्राह्मण समाज की हिस्सेदारी मात्र 33% ही है, फिर भी वह तमाम न्यायिक/शासन तंत्र ब्राह्मणी सोच के प्रभुत्व से प्रभावित होकर अपने कर्तव्य को अंजाम देता है। इसका मुख्य कारण परंपरागत और धार्मिक लगाव है। अब सवाल उठता है कि आखिर ब्राह्मण आज भाजपा के साथ क्यों है?

इसके लिए भाजपा का इतना योगदान नहीं है जितना भाजपा की पैतृक संस्था आरएसएस का योगदान है, जिसका मूल लक्ष्य  हिंदू धर्म व मनुवादी संस्कृति को बनाए रखना व इस्लाम के विस्तार पर ही नहीं अपितु इस्लामी तालिम के लिए मदरसों की कार्यप्रणाली पर भी अंकुश लगाना रहा है। आरएसएस का मानना है कि देवबंद के छात्र तालिबानी होकर आतंकवाद फैला रहे हैं। इतना ही नहीं, आज तक आरएसएस का प्रमुख ब्राह्मण जाति के अलावा किसी अन्य जाति का नहीं हुआ है। आम धारणा यह भी है कि गाँधी की हत्या के पीछे आरएसएस का ही हाथ रहा है। सार यह है कि आरएसएस ने ब्राह्मणों को ही अपने धर्म व संस्कृति को बनाए रखने के लिए नियुक्त किया।

थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो पता चलता है कि 15 अगस्त, 1947 को भारत में 3% ब्राह्मण, 33% मुसलमान और 30% कायस्थ सत्ता में थे। ब्राह्मणों के भारत के शासक बनते ही, अंग्रेज़ों की नज़र में जो बेकार थे, वे सब काबिल हो गए और बाकी सब बेकार। कोलकाता हाई कोर्ट में एक प्रिवी काउंसिल हुआ करती थी। अंग्रेजों ने नियम बनाया था कि कोई भी ब्राह्मण प्रिवी काउंसिल का चेयरमैन नहीं हो सकता। ऐसा क्यों नहीं हो सकता? इसके जवाब में अंग्रेजों ने लिखा है कि ब्राह्मणों का चरित्र विवेकपूर्ण नहीं होता।

आज  न्यायिक स्थिति का अवलोकन किया जाय तो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट पर ब्राह्मणों का ही कब्ज़ा है। इस समय हाईकोर्ट में करीब 600 जज हैं और एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी के करीब 18 जज हैं। देश में करीब 582 जज ब्राह्मण और उच्च जातियों के हैं। ब्राह्मणों का न्यायपालिका पर अनियंत्रित नियंत्रण है। इसलिए संविधान का उल्लंघन करने वाले जजों को न्याय के कटघरे में लाया जाना चाहिए। वामन मेश्राम कहते हैं, ‘मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि ब्राह्मणों का विरोध करना गांधी जी के नारे लगाने के बराबर है, यानी अंग्रेजों भारत छोड़ो। ब्राह्मणों भारत छोड़ो। ब्राह्मण इस नारे का विरोध भी नहीं कर सकते।’

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ब्राह्मणों को लगता है कि ऐसा करना खतरनाक है। उन्हें पता है कि जो लोग ब्राह्मणों का विरोध कर रहे हैं, अगर उनका विरोध किया गया तो उनकी पोल खुल जाएगी। इसलिए वे चाहते हैं कि एससी, एसटी, ओबीसी के लोगों को लगातार दुष्प्रचार के ज़रिए यह यकीन दिलाया जाए कि उन्होंने योग्यता के आधार पर यह कब्ज़ा किया है। योग्यता को लेकर प्रचार करने के पीछे दूसरा उद्देश्य यह भी है कि वे दलित/पिछड़ी जातियों के लोगों में हीनता की भावना पैदा करना चाहते हैं। मनोचिकित्सकों के अनुसार मानसिक हीनता एक प्रकार की बीमारी है।

इसका मतलब यह है कि अगर एक व्यक्ति लगातार यह प्रचार करता है कि आप योग्य नहीं हैं, आप लायक नहीं हैं, तो दूसरे व्यक्ति में धीरे-धीरे हीन भावना बढ़ने लगती है। उनका उद्देश्य यही होता है कि वे हमारे लोगों में हीन भावना पैदा करना चाहते हैं। जब किसी के अंदर हीन भावना आ जाती है, या पैदा हो जाती है, तो वे खुद ही स्वीकार कर लेते हैं कि मैं हीन हूं, कमजोर हूं। मैं इसी लायक हूँ और मुझे ऐसा ही होना चाहिए। इस भयानक बात को लगातार बढ़ावा देकर इसे लोगों के दिमाग में घुसाया जा सकता है। यानि लगातार कोशिश करने से ये चीजें दिमाग में डाली जा सकती हैं। यह एक बहुत भयंकर साजिश का हिस्सा है। इसीलिए इस साजिश को समझना बहुत जरूरी है।

अगर आप इस साजिश के खिलाफ कोई आंदोलन शुरू करना चाहते हैं तो वह आंदोलन तब तक शुरू नहीं हो सकता जब तक आप इस साजिश को नहीं जानते। तब तक आप कोई कदम नहीं उठा सकते। इसीलिए सबसे पहले इस साजिश को जानना/पहचानना  होगा, तभी इसका प्रतिरोध और विरोध संभव है। इसे जानने और समझने के लिए मैं आपको यह बता रहा हूँ।

क्या आप भी मानते हैं कि आरक्षण जाति के बजाय आर्थिक आधार पर होना चाहिए? क्या आप भी आरक्षण के खिलाफ हैं? तो थोड़ा रुकिए  मैं आपको एक उदाहरण देने जा रहा हूँ, जिसे अगर आपके अंदर थोड़ी भी तार्किक क्षमता है, तो आपके विचार अचानक बदल जाएँगे। जी हाँ, एक पूर्व जज ने एक मौजूदा जज के जातिगत भेदभाव को लेकर ऐसा खुलासा किया है, जो भारत की सबसे बड़ी बीमारी को दर्शाता है। आपको यकीन नहीं होगा कि जज की कुर्सी पर बैठे लोग भी इतनी गहरी मानसिकता रखते हैं।

आप अपने ही देश के नागरिकों के बारे में सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि जिस संविधान को पढ़कर उसकी शपथ  लेकर लोग जज की कुर्सी पर बैठे हैं, उसी संविधान के निर्माता के बारे में वे क्या सोचते होंगे? क्योंकि उनके कारनामे बेहद शर्मनाक हैं। सवाल यह भी होगा कि क्या संविधान बनने के 75 साल बाद भी बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर असफल रहे? क्या उनका सपना बस सपना ही रह गया और अगर ऐसा है तो क्या इसके लिए हम सब जिम्मेदार नहीं हैं?

इस समय सभी राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से बाबा साहेब अम्बेडकर को केंद्र में रखकर दलित मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कुछ लोग डॉ. अंबेडकर की विचारधारा और उनकी मान्यताओं को दलितों तक ही सीमित रखते हैं, हालांकि ऐसा करना सही नहीं लगता क्योंकि ऊंच-नीच, छूत-अछूत और आजादी का विषय सिर्फ तथाकथित नीची जाति और ऊंची जाति के बीच का नहीं है।

जब डॉ. अंबेडकर छूत-अछूत और आजादी हटाने की बात करते हैं तो उसमें ब्राह्मणों की सभी महिलाएं शामिल होती हैं। अब ब्राह्मणों में छूत-अछूत कैसे? यह सवाल आपके मन में जरूर आ रहा होगा। देश में 75 साल बाद यदि  दलितों की स्थिति की समीक्षा की जाए तो  हाल की बहुत सी ऐसी घटनाएं हैं जिनसे भान होता है कि आज डॉ. भीमराव अंबेडकर के लिए यह श्रद्धांजलि देना ज्यादा महत्वपूर्ण है। डीजे पर नाचना, प्रतिमा पर माला चढ़ाना, धूपबत्ती जलाना आदि। क्या एक प्रकार का दिखावा नहीं? असली सम्मान तो तब है जब हम उनके बताए रास्ते पर चलें। किसी कौम विशेष के लिए नहीं, बल्कि हर भारतीय के लिए।

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 बात न्यायपालिका की

हमारे देश का जो संविधान है, उसके आधार पर न्यायपालिका से लेकर प्रशासन तक सब काम करते हैं। संविधान से सबको ताकत मिली हुई है। लेकिन सोचिए, संविधान से ताकत छीनकर अगर कोई संविधान की छाती पर कूद रहा हो, तो ऐसे लोगों से क्या आप संवैधानिक फैसले और न्याय की उम्मीद कर सकते हैं?

पूर्व जस्टिस एस मुरलीधर जो इस समय वरिष्ठ अधिकारी हैं, उन्होंने हाल ही में एक कार्यक्रम में सफाई देते हुए एक ऐसी घटना का जिक्र किया, जिससे सवाल उठता है कि क्या हम डॉ. अंबेडकर के विचारों को स्थापित करने में विफल रहे हैं? उन्होंने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक मौजूदा जस्टिस ने अपने चैंबर को गंगाजल से शुद्ध किया। जानते हैं क्यों? क्योंकि उनसे पहले वह चैंबर दलित जज का था। सोचिए, जज की कुर्सी पर बैठा आदमी भी ऐसे ही जातीय भेदभाव का बम लेकर घूम रहा है। ऐसे में उस जज की अदालत में क्या कोई दलित अपने लिए न्याय की उम्मीद कर सकता है?

खास तौर पर जब दलित अस्मिता का मामला हो। फिर जो आदमी इंसान को इंसान की तरह नहीं समझ पाया, वह न्याय की कुर्सी पर बैठने के काबिल है क्या? जिस व्यक्ति के अंदर ये मानसिकता है कि दलित ने चैंबर का इस्तेमाल किया है, अगर गंगा जल छिड़क दिया जाए तो चैंबर शुद्ध हो जाएगा। वह कितना न्यायप्रिय हो सकता है, यह बताने की जरूरत नहीं है।

वैसे गंगाजल छिड़कने की कहानी कोई नई नहीं है। याद कीजिए, 8 साल पहले उत्तर प्रदेश में जब मुख्यमंत्री बदला था, तो नए मुख्यमंत्री ने घर में गंगाजल छिड़का था। यानी एक ओबीसी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मुख्यमंत्री आवास अपवित्र हो गया। योगी आदित्यनाथ आए तो उन्होंने गंगाजल छिड़का। क्या गंगाजल छिड़कने से शुद्धि होती है? हाल ही में राजस्थान में कांग्रेस के एक दलित नेता के मंदिर जाने पर बीजेपी के पूर्व विधायक ने  बुरा मानते हुए, मंदिर पहुँच गंगाजल छिड़कने लगे।

हाल ही में, उसी उत्तर प्रदेश में दलित सांसद रामजीलाल सुमन के एक बयान से किस तरह से अराजकता फैलाई जा रही है, किस तरह से हत्या की धमकी दी जा रही है। इसी बहाने अखिलेश यादव की भी हत्या की धमकी दी जा रही है। यह सब पूरी दुनिया देख रही है। सवाल यह है कि अगर रामजीलाल सुमन के अलावा कोई और होता तो ये लोग क्या करते? आगरा के अन्य समाज के किसी व्यक्ति ने यह कहा होता तो क्या तब भी ऐसा ही तंज कसा जाता? क्या हजारों की तादाद में करनी सेना के लोग सांसद के घर पर हमला करते? दलित सांसद ने जो कहा, ऐसी बातें सभी किताबों में लिखी हैं।

इसके अलावा पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि चाहे नए संसद का भूमि पूजन हो या उद्घाटन हो या फिर राम मंदिर का भूमि पूजन हो या प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम हो, दलितों और आदिवासियों को, चाहे वो देश के किसी भी सर्वोच्च पद पर बैठे हों, उन्हें जगह नहीं दी गई है। प्रधानमंत्री, कथित ओबीसी समाज से आते हैं, वे हर जगह थे, लेकिन हकीकत क्या है?

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पूर्व जस्टिस मुरलीधर ने दलितों के साथ होने वाले भेदभाव के कई उदाहरण दिए, जैसे दलित दूल्हा घोड़ी पर नहीं चढ़ सकता, उन्होंने कहा कि ग्रामीण इलाकों में आज भी दलितों को खुलेआम घूमने नहीं दिया जाता, शहरी इलाकों में मुसलमानों को किराए पर मकान नहीं लेने दिया जाता। उन्होंने एक और उदाहरण देते हुए बताया कि सत्ताधारी पार्टी के एक विधायक ने अपना घर साफ करवाया, क्योंकि वहां एक दलित रहता था। ऐसे विधायक के खिलाफ कोई कार्रवाई  हुई क्या? नहीं, उसके खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।

मेरा खुद का अनुभव है, अगर आप किराए पर मकान लेने जाते हैं तो मकान मालिक कहते हैं कि दलितों और मुसलमानों की एंट्री नहीं है। अगर आप सहमत हैं तो आएं, नहीं तो चले जाएं। जस्टिस मुरलीधर कहते हैं कि अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 23 के अनुसार ऐसी बातें खतरनाक हैं।

एक दलित पढ़-लिखकर, इन विकट परिस्थितियों से गुजरकर, हाईकोर्ट का जज बनता है, जाहिर सी बात है, उसे पद भी मिला, पैसा भी मिला, लेकिन फिर भी, छूत-अछूत की प्रथा के चलते उसके साथ भेदभाव होता है। यदि कोई दलित भी सर्वोच्च पद पा लेता है तो भी जातीय भेदभाव की बीमारी जाती नहीं। माना पिछले कुछ दशकों में इसमें कुछ कमी आई है, फिर भी इसे खत्म करने में अभी कई और दशक लगेंगे।

 क्या यह नफरती विचारधारा लोगों के मन से खत्म हो पाएगी 

जहाँ तक आर्थिक स्थिति का सवाल है तो वह अच्छी हो सकती है, बुरी भी। लेकिन इसका सवर्ण कलुषित मानसिकता पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। सवाल यह है कि आर्थिक स्थिति पैसे से सुधारी जा सकती है, लेकिन दलितों  के पैसा और पद होने के बाद भी जाति प्रथा बनी हुई है। ऐसे में इस सामाजिक बुराई से उबरने के लिए एक व्यक्ति को एक व्यक्ति के रूप में देखने की जागरूकता पैदा करनी होगी और इसके लिए भेदभाव को खत्म करना होगा। लेकिन सवाल यह है कि यह कैसे होगा? जब 5-5 बार सांसद और चुने हुए सीएम ने गंगा जल छिड़का हो और जज की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति भेदभाव से पीड़ित हो, तो सोचिए लड़ाई कितनी बड़ी है।

अब आप सोच रहे होंगे कि यह मामला केवल तथाकथित, उच्च जातियों और तथाकथित, निचली जातियों के बीच का है, इसलिए याद रखें, उच्च, निम्न, कैंसर की बीमारी की तरह हर जगह है। हाल ही में, तथाकथित हिंदू संत रामभद्राचार्य किस प्रकार ब्राह्मणों में जातिगत ऊँच-नीच का खुलासा कर रहे थे। उन्होंने खुलासा किया कि उपाध्याय, चौबे, त्रिगुणायत, दीक्षित और पाठक नीच और हीन ब्राह्मण की श्रेणी में आते हैं। उन्होंने ये भी कहा कि कुलीन ब्राह्मण लोग ऐसे नीच ब्राह्मणों को अपनी बेटियाँ नहीं देते। इस प्रकार अगर सोचें तो दिखता है कि दलितों और ब्राह्मणों में क्या फर्क है। ऐसे जातिगत भेदभाव के खिलाफ डॉ अंबेडकर ने आवाज़ उठाई थी, उन्होंने ही नहीं अमूमन सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आवाज़ उठाई थी और अपनी जान की बाजी लगाई थी।

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लेकिन आप जरा अपने बुजुर्गों से पूछिये कि दलित छात्रों का ऊंची जाति का अध्यापकों का दलित छात्रों के साथ कैसा व्यवहार था? लोग कहते हैं कि अध्यापक जानबूझ कर दलित परिवार के छात्रों को इसलिए  इतना मारते थे ताकि वे स्कूल छोड़ कर चले जाएं। विदित हो कि पुराने समय अधिकतर अध्यापक ब्राह्मण जाति के ही होते थे और वे मानते थे कि दलित वर्ग तो उनकी गंदगी साफ करने, उनकी सेवा करने के लिए ही पैदा हुआ है। वह पढ़-लिखकर क्या करेगा?

डॉ. अंबेडकर जब जातिभेद और भेदभाव के खिलाफ बोलते हैं तब वे हर तरह के भेदभाव के खिलाफ होते हैं। अभी हाल ही में रामराज के इलाहाबाद में, जिसका नाम बदल कर प्रयागराज कर दिया गया, वहाँ से एक घटना सामने आई जिसमें एक 30 साल के दलित युवक की हत्या कर दी गई और उसे गेहूँ के गट्ठों के बीच में जला दिया गया।  इस घटना से जुड़ी अधिकतर खबरों में से आरोपियों के नाम या तो गायब थे या ख़बरों के अंत में दिए गए थे।

सवाल यह है कि किसने आरोपियों के नाम दबाने की साजिश की? अक्सर देखा गया है कि यदि किसी मामले में आरोपी कोई मुसलमान है, तो बड़े-बड़े शब्दों में नाम छापे जाते हैं। करछना पुलिस ने दलितों के खिलाफ़ मामला दर्ज किया और बताया गया कि  अजय सिंह, विनय सिंह, मनोज सिंह, सोनू सिंह, शेखर, मोहित और अज्ञात, 6 आरोपियों को गिरफ़्तार किया गया, जबकि मुख्य आरोपी दिलीप सिंह फरार हो गया। मरने वाला दलित युवा अपने घर का इकलौता बेटा था। मजदूरी करता था। यह स्पष्ट रूप से  देखा जाता है कि ऊंची जाति और नीची जाति, अमीर और गरीब, अमीर और गरीब का फ़र्क सब जगह देखने को मिलता है। अर्थात ब्राह्मणी व्यवस्था ही नहीं बदली तो क्या बदला?

अभी हाल ही में देखा गया कि  जहाँ सैकड़ों की संख्या में लोग एक मंदिर में कतार में खड़े थे, वहीं  देश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए मंदिर में विशेष व्यवस्था की गई। यह फ़र्क तमाम सरकारी तंत्र में देखने को मिलता है। आप थाने चले जाइए या अन्य किसी भी सार्वजनिक स्थान पर चले जाइए, वहाँ आपको सत्ता और पैसे का फ़र्क साफ़-साफ़ दिखेगा।

सच तो यह है कि गरीब कमजोर तबकों और महिलाओं की स्थिति हजारों सालों से ऐसी ही रही है। कितना भेदभाव सहना पड़ता है, यह हम सब देखते हैं। यह अलग बात है कि हम स्वीकार नहीं करते क्योंकि शोषक कभी शोषितों का शोषण स्वीकार करने की हिम्मत सभी नहीं करते क्योंकि उससे उन्हें अपना ही नुकसान दिखता है। सभी डॉ अंबेडकर नहीं हो सकते।

(संदर्भ : https://youtu.be/Iu5hsZ9Xd7g?si=HOhtcqocLwrcCn6G)

 

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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