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लोक-कहावतों में जातीयता

(दूसरी किस्त) कहावत अर्थात ऐसा कहा जाता है। तात्पर्य है परम्परागत रूप से कही जाने वाली बात। कहावतों को अनुभूत सत्य माना जाता है। लोक-जीवन में कहावतों का इतना महत्व है कि लोग बात को कहने, समझाने और पुष्ट करने के लिए कहावतों का सहारा लेते हैं। ’लोक-कहावतों को यदि सामाजिक न्याय की चलती-फिरती अदालतें […]

(दूसरी किस्त) कहावत अर्थात ऐसा कहा जाता है। तात्पर्य है परम्परागत रूप से कही जाने वाली बात। कहावतों को अनुभूत सत्य माना जाता है। लोक-जीवन में कहावतों का इतना महत्व है कि लोग बात को कहने, समझाने और पुष्ट करने के लिए कहावतों का सहारा लेते हैं। ’लोक-कहावतों को यदि सामाजिक न्याय की चलती-फिरती अदालतें कहें तो भी अत्युक्ति नहीं। किसी बड़े से बड़े विवाद का कम से कम समय और शब्दों में अचूक निर्णय देने की इनमें अद्भुत क्षमता होती है। दलीलें और उपदेश भी जहाँ हार जाते हैं, वहाँ कहावतें अपना रंग जमाती आई हैं। ये शिलाओं पर अंकित राजाज्ञाएँ नहीं हैं, वरण मानव हृदय से उद्भूत भावनाओं के ऐसे पक्षी हैं जो एक ओंठ से दूसरे ओंठ तक उड़ते हुए शताब्दियों के ओर-छोर नापते आए हैं। ये विचारों के ऐसे तिनके हैं जो डूबते को उभरने का सहारा दे जाते हैं। ये ज्ञान के ऐसे सिक्के हैं जो सब देशों और सब कालों में समान रूप से चलते आए हैं।’2

किंतु, इसका यह अर्थ यह नहीं है कि जो कुछ कहा जाता है वह सत्य या सही ही हो, वह सही नहीं भी हो सकता है। यद्यपि, सामान्यत: कहावतों को लोक-समाज सही मानता है और उन पर अमल करता है। किसी एक व्यक्ति द्वारा कही गयी कोई बात ही प्रचारित होकर कहावत बनती है। ज्योतिष आदि शास्त्रीय विद्याओं का ज्ञान और अध्ययन-अध्यापन का कार्य ब्राह्मणों का रहा है। क्योंकि संस्कृत, देवभाषा (अर्थात ब्राह्मणों की भाषा) रही है, इसलिए देवभाषा में लिखे गए शास्त्रों आदि में जो कुछ भी लिखा गया है, वह सब केवल ब्राह्मण का अनुभव,  तर्क, विश्वास और ज्ञान है। पढ़ने, पढ़ाने और लिखने का काम ब्राह्मण तक ही सीमित रहने के कारण उनको ही लोक द्वारा ज्ञानी और विद्वान माना गया तथा उनके द्वारा लिखी और कही गयी बातें ही लोक में स्वीकार्य हुई। समाज में अपनी श्रेष्ठता और वर्चस्व स्थापित करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा इस तरह के किस्से, कथाएँ गढ़कर लोक को सुनायीं और प्रचारित की गयीं, जो लोगों में पाप, अनिष्ट आदि का भय उत्पन्न करें, और लोग उनसे मुक्ति के उपाय पूछने के लिए ब्राह्मणों की शरण में आएँ। ग्रह-नक्षत्रों को अनुकूल बनाने, रूष्ट देवताओं को मनाने, भूत-प्रेत आदि को क़ाबू में करने के लिए उपायों के नाम पर जो पाखंड और अंधविश्वास ब्राह्मणों द्वारा लोक को परोसा गया, लोक उसे धर्म की तरह मानता आ रहा है।

[bs-quote quote=”बाध, बीज, बेकहल, बनिया बारी, बेटा, बैल, ब्यौहार, बढ़ई, बन बबूल, और बात, ‘ब’ अक्षर से शुरू होने वाली ये बारह चीज़ें जिसके पास हों वही पूरा गृहस्थ है। वही ख़ुद भी सुखी रह सकता है तथा दूसरों को भी सुख दे सकता है। तात्पर्य यह है कि हर प्रकार से सम्पन्न व्यक्ति स्वयं भी ख़ुश रहता है तथा दूसरों को भी सुख देता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

धार्मिक अंधविश्वास और जात-पांत-मूलक सामाजिक भेदभाव तथा निम्न जातीय लोगों को घृणितऔर मूर्ख सिद्ध करने वाली अनेक लोक-कहावतेंसमाज में प्रचलित हैं। इनमें निम्न जातियों के प्रति हेयता, उपेक्षा और घृणा का भाव है। इस प्रकार की कुछ कहावतें यहाँ द्रष्टव्य हैं:

घाघ की कहावतें

लोक-साहित्य में घाघ की कहावतें बहुत प्रसिद्ध हैं। यद्यपि ये कहावतें लिखित रूप में समाज के समक्ष आयी हैं, किंतु लोक-जीवन और लोक-व्यवहार से जुड़ी हुई हैं इसलिए लोक-कहावतों के रूप में विख्यात हैं। यहाँ प्रस्तुत है उनकी कुछ कहावतें-

(1) उत्तम खेती माध्यम बान। निषिद चाकरी भीख निदान।।3

अर्थात आजीविका के लिए खेती करना सर्वोत्तम कार्य है। व्यापार माध्यम कार्य है, किंतु चाकरी करना निकृष्ट कार्य है। चाकरी ना ही करनी पड़े तो अच्छा है। भीख माँगना सबसे बुरा है। सेवा कर्म करने वाले दलित इस कहावत से सीख ले सकते हैं कि दूसरों की चाकरी या सेवा करना भीख माँगने से भी निकृष्ट है, इसलिए उनको अपनी आजीविका के लिए सेवा कर्म छोड़कर अन्य सम्माजनक कार्य करने चाहिए।

(2) आठ कठौती माथा पीवै, सोरह मकुनी खाइ। उसके मारे न रोइये, घर के दलिद्दर जाय।।4

जो व्यक्ति आठ परात मट्ठा पीता हो, सोलह मकुनी अर्थात सत्तू भरी रोटी खाता हो, उसके मरने पर रोना नहीं चाहिए। ऐसे लोगों के मरने से उनके साथ घर की दुःख-दरिद्रता जाती है।

(3) अधकचरी विद्या दहे राजा दहे अचेत। ओछे कुल तिरिया दहे दहे कलर का खेत।।5

यदि व्यक्ति का अधकचरा ज्ञान, राजा की राजकाज की असजगता, नीच कुल की स्त्री और कपास की खेती, ये सब दुखदायी हैं।

(4) घाघ बात अपने मन गुनहीं, ठाकुर भगत न मूसर धनुहीं।6

जिस प्रकार मूसल झुककर धुनाई नहीं कर सकता, उसी प्रकार ठाकुर कभी भगत अर्थात विनम्र नहीं बन सकता। यह कहावत संकेत करती है कि ठाकुर के स्वभाव में विनम्रता नहीं होती हैं। वे रोब-रुतबे और कठोरता से रहने के आदी होते हैं। ऐसा करके ही वे निम्न जातीय लोगों पर अपना रोब और दबदबा बनाकर रखते हैं।

(5) बाध, बिया, बेकहल, बनिक, बारी, बेटा, बैल। ब्यौहार, बढ़ई, बन बबुर,बात सुनो यह छैल।।

    जो बकार बारह बसैं, सो पूरन गिरहस्त। औरन को सुख दे सदा, आप रहै अलमस्त।।7

बाध, बीज, बेकहल, बनिया बारी, बेटा, बैल, ब्यौहार, बढ़ई, बन बबूल, और बात, ‘ब’ अक्षर से शुरू होने वाली ये बारह चीज़ें जिसके पास हों वही पूरा गृहस्थ है। वही ख़ुद भी सुखी रह सकता है तथा दूसरों को भी सुख दे सकता है। तात्पर्य यह है कि हर प्रकार से सम्पन्न व्यक्ति स्वयं भी ख़ुश रहता है तथा दूसरों को भी सुख देता है।

(6) बनिया क सखरज, ठाकुर क हीन, वैद क पूत व्याधि नहिं चीन्ह।

    पंडित क चुप चुप, बेसवा मइल, कहै घाघ पाँचों घर गइल।।8

बनिया का बेटा खर्चीला, ठाकुर का बेटा कमज़ोर हो, वैद्य के बेटे को राज की पहचान न हो, पंडित का बेटा चुप रहने वाला हो और वेश्या गंदी हो तो ये पाँचों जहाँ हों वह घर नष्ट हो जाता है। इस कहावत के माध्यम से इन जातियों का मूल स्वभाव या चरित्र बताया गया है कि बनिया खर्चीला नहीं होता, कंजूस होता है। ठाकुर बलिष्ठ होते हैं। वैद्य को बीमारियों का ज्ञान होता है, पंडित को प्रवचन देने की आदत होती है, वह कभी चुप नहीं रह सकता। और वेश्या तो वैसे ही गंदी मानी जाती है। ये सब अपना स्वभाव छोड़ देने से असर खो देते हैं। इसमें प्रत्यक्ष रूप से शूद्र या दलितों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है, किंतु अन्य जातियों के गुण बताए जाने के साथ शूद्र, अंत्यजों  का जातीय चरित्र भी स्वत: स्पष्ट हो जाता है।

(7)फूटे से बहि जातु है ढोल, गँवार, अंगार। फूटे से बनि जातु है, फूट, कपास, अनार।।

भावार्थ यह है कि ढोल, गँवार और अंगार ये तीनों फूटने से नष्ट हो जाते हैं, लेकिन फूट (भदई ककड़ी) कपास और अनार फूटने से बन जाते हैं अर्थात उनकी क़ीमत फूटने के बाद ही अच्छी होती है।’9

ढोल फट जाए तो वह बजाने के लायक नहीं रहता, बेकार हो जाता है, आग का अंगारा भी फटने के बाद बहुत जल्दी राख बन जाता है, ये बातें सही हैं, किंतु इनके साथ गँवार को जोड़ने का विशेष अर्थ है। इसका एक अर्थ यह है कि गँवार आदमी पता नहीं क्या बोले, इसलिए उसका मुँह जब तक बंद रहे तब तक ही अच्छा है। यूँ अशिक्षित होने के कारण सभ्य-शिक्षित और संभ्रांत लोगों द्वारा सभी ग्रामीणों को गँवार कहा जाता है, किंतु लोक-जीवन में भी यदि किसी को गँवार कहा जाए तो उसका निहितार्थ होता है गँवारों में भी गँवार अर्थात दलित। ध्यातव्य है कि तुलसीदास जी द्वारा भी रामचरित मानस में ‘ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी कहकर गँवार और शूद्र को एक ही श्रेणी में रखा है। दलित लोग ग़रीब, भूमिहीन और आजीविका के साधनों से रहित होने के कारण उच्च जातीय लोगों के घर और खेतों में काम करके गुज़ारा करने को मजबूर हैं। गाँवों में वे उच्च जातीयों के इतने दबाव में रहते हैं कि ठीक से अपनी मज़दूरी भी नहीं माँग सकते। उनका ख़ूब शोषण होता है। दलितों द्वारा अपनी मेहनत की मज़दूरी माँगना अथवा शोषण का प्रतिकार करना उच्चजातीय लोगों को अप्रिय और असहनीय लगता है। हिंसा और दमन के द्वारा उनके मुँह बंद कर दिए जाते हैं। गँवार के संबंध में इस कहावत का असली स्वर यही है कि शूद्र या दलितों को अपना काम चुपचाप मुँह बंद करके करना चाहिए, अपना मुँह नहीं खोलना चाहिए, उनका हित इसी में है।

संदर्भ

  1. रामनारायण उपाध्याय, लोक साहित्य समग्र, पृष्ठ-295
  2. घाघ और भड्डरी की कहावतें, सम्पादक, डॉ. रमेश प्रताप सिंह, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, पृष्ठ-52
  3. वही, पृष्ठ-54
  4. वही, पृष्ठ-116
  5. वही, पृष्ठ-122
  6. वही, पृष्ठ-132
  7. वही, पृष्ठ-133
  8. 9.वही, पृष्ठ-130

लेखक प्रसिद्ध दलित साहित्यकार और दलित साहित्य वार्षिकी के संपादक हैं। दिल्ली में रहते हैं।

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