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आज का युवा संस्कृताइजेशन का शिकार है

देखिये, यह स्थिति हमारे देश में सन 1947 के बाद बहुत तेजी से विकसित हुई. ऐसा नहीं है कि आज का यूथ केवल आज का यूथ है और उसको राजनीतिहीन या राजनीतिविरोधी बना दिया गया है. बल्कि पूरी दुनिया में पीपुल बिलो थर्टी एक बुनियादी घटक रहा है जिसपर सबका ध्यान रहा है. यानी सारी […]

देखिये, यह स्थिति हमारे देश में सन 1947 के बाद बहुत तेजी से विकसित हुई. ऐसा नहीं है कि आज का यूथ केवल आज का यूथ है और उसको राजनीतिहीन या राजनीतिविरोधी बना दिया गया है. बल्कि पूरी दुनिया में पीपुल बिलो थर्टी एक बुनियादी घटक रहा है जिसपर सबका ध्यान रहा है. यानी सारी सत्ताएं इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती रही हैं. चाहे उनका विकास हो या विनाश हो, युवा ही उसकी बुनियाद में रहे हैं. सभी की उम्मीदों के केंद्र में युवा रहे हैं. और युवाओं के साथ अपने सम्बन्ध को मजबूत बनाने के लिए हर संस्था, चाहे वह राजनीति हो चाहे समाज हो , एक व्यवहार तय करती रही है जिसका चरम रूप संस्कृति के तौर पर दिखाई देता है.

आज़ादी के पहले हमारे देश में शिक्षा और संपर्क की दो भाषाएँ थीं – हिंदी और अंग्रेजी . राजनीतिक सरगर्मी के कारण हिंदी भी एक ज़रुरत बन गई थी और गैर-हिंदी भाषी लोगों के साथ संपर्क के लिए अंग्रेजी की आवश्यकता थी.1947 के बाद भारत की अनेक क्षेत्रीय भाषाओँ को आधिकारिक दर्जा दिया गया . प्रतियोगी परीक्षाओं में आप चुन सकते हैं कि किस भाषा में आप पढ़ाई करेंगे और परीक्षा देंगे. लेकिन इस सुविधा के बावजूद एक दिक्कत यह थी कि अगर आपको बहुत अधिक आगे जाना है तो अंग्रेजी जानना जरूरी है. दुनिया ही नहीं इस देश में भी आगे बढ़ना है तो अंग्रेजी सबसे बड़ा संपर्क साधन हो गई. तो जो ऊपर का हिस्सा है और निर्णायक है वह अपने देश की भाषाओँ से कटा हुआ है और उसकी जरूरत नहीं समझता और इसलिए वह जिस भाषा में अपना काम करता है और सारे देश और दुनिया के पैमाने पर अपने को फैलता है उसका माध्यम अंग्रेजी है. अंग्रेजी जानना इसलिए अनिवार्य होता गया क्योंकि ऊपर के लोगों का काम इसके बिना नहीं चलता और उनसे संपर्क इसके बिना नहीं किया जा सकता.

सिने परदे पर विभिन्न सामजिक बुनावट की वास्तविकता दिखाने वाले निर्देशक श्याम बेनेगल (साभार -sautuk.com)

इसके दो स्वाभाविक परिणाम हुए . एक तो प्रोडक्शन कल्चर बिलकुल अलग तरह से विकसित हुआ और दूसरे जो लोग बाहर थे वे अगर इस सिस्टम का हिस्सा होना चाहते थे तो उनको अपने को इसके अनुरूप ढालना था. ऐसे में उस पूरी ऐतिहासिक प्रक्रिया का विकास एक ऐसे रूप में होना था जिसे हम आज देख रहे हैं , यानी एक तरफ कॉर्पोरेट कल्चर और उपभोक्ता संस्कृति और दूसरी ओर गरीबी और पिछड़ेपन की शिकार एक विशाल आबादी. लेकिन पूँजी ने अलग-अलग रूपों में इस आबादी में सेंध लगा दी और इससे उसकी वह परंपरागत विशेषता कमजोर पड़ने लगी कि काम का निर्धारण जाति अथवा जन्म के आधार पर होता था. मैं नहीं कहता कि यह विशेषता पूरी तरह नष्ट हो गई लेकिन काफी हद तक सब तरफ एक लचीलापन आया. और इसी के गर्भ से आज के यूथ का जन्म हुआ है.

अब दूसरी बात , एक समाजशास्त्री थे एम एन श्रीनिवास जिन्होंने आज़ादी के बाद भारत में बहुत तेजी से सामने आई एक विशेषता को रेखांकित किया – संस्कृताइजेशन. यह संस्कृताईजेशन क्या है ? समाज के पिछड़े हिस्से में पैदा हुआ कुलीनताबोध और अगड़ों की तरह ही अपने को प्रस्तुत करने की कोशिश. यानी जैसे-जैसे आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती गई वैसे-वैसे वर्चस्वशाली समूहों के तौर-तरीकों और रवैये को अपनाते जाना. तो जब हम अंग्रेजी की बात करते हैं तो हमें यह जानना होगा कि अंग्रेजी एक कल्चरल बिहेवियर के तौर पर भारत के व्यापक समूहों तक अपनी पैठ बनाती गई . भारत में हम जातीय और आर्थिक रूप से वर्चस्व में तीन सोपान देखते हैं. अगड़ा, पिछड़ा और निम्नवर्ग. जाति-व्यवस्था में ब्राह्मण अगड़ा माना जाता है जबकि आर्थिक रूप से वह उन लोगों से बहुत पीछे है जिनके हाथ में उत्पादन और व्यापार है. इसी तरह उत्पादन और व्यापार पर वर्चस्व रखने वाले हैं जिनको कल्चरली वह प्रिविलेज नहीं प्राप्त है ब्राह्मण के लिए सहज सुलभ है. एक बहुत विशाल आबादी प्राकृतिक संसाधनों के उत्पादन से जुडी हुई है जिसे हम बैकवर्ड कहते हैं. और इसी के साथ ग्राम्य-व्यवस्था में और जहाँ जाति-व्यवस्था के प्रभावशाली फैक्टर है, एक ऐसा समूह है जो अपने परिश्रम के बल पर समाज को चलाता  है उसे हम शूद्र और दलित के रूप में जानते हैं. तो जब देश आज़ाद हुआ और चीजें बदलीं और संविधान ने सबको बराबरी का दर्जा दिया तो सभी सोपानों पर मौजूद समूहों की स्थिति बदलने लगी. जिसकी आर्थिक हालत सुधरती गई वह अपने को उन चीजों से काटता गया जो उसको पारंपरिक रूप से मिली थीं और उन चीजों से जोड़ता गया जो उसे नयी स्थिति में एक सम्मानजनक जगह पर खड़ा करती थीं. भले ही उसे अग्रेजियत के साथ नव ब्राह्मणवाद को अपनाना पड़ा हो. उसने तौर-तरीकों और जीवन के, रोजमर्रा के व्यवहार में ऊपर की चीजों को अपना लिया.यानी खान-पान और पहनावे से ही उसका जीवन स्तर ऊपर नहीं उठा बल्कि बोली-भाषा और अभिव्यक्ति में भी उसने परंपरा को छोड़कर ऐसी चीजों को अपनाया जो उसे विशेष बनाती हैं. भाषा ही नहीं , सम्मान की ललक में वह उन विशेषाधिकारों की ओर भी लपका जो पहले उसे नहीं हासिल था.

तो जब हम युवा की और आज के युवा की बात करते हैं तो इन स्थितियों से गुजरता हुआ एक समूह हमारे सामने होता है और हमें यह ध्यान में रखना होगा कि जिस तरह की आर्थिक और सांस्कृतिक परिघटनाओं ने उसका सृजन किया है वह समानता पर उतना जोर नहीं देती थीं जितनी मुनाफे और वर्चस्व पर. इसलिए आज युवा सबसे बड़ा उपभोक्ता है. उसके लिए सिनेमा बनता है. थर्टी प्लस दर्शक सिनेमा हाल में माइनोरिटी में आ गया है. मुश्किल  से दस फीसदी. लेकिन युवा यानी बिलों थर्टी बुनियादी ताकत है . वह दुनिया का सबसे गतिशील तत्व है और उसकी मोबिलिटी ने ही उसे सबसे बड़ी ताकत बना दिया है. उसके लिए बाज़ार बनाये जाते हैं. उसके लिए खेल हैं और पूरा कल्चर उसके हिसाब से ढाला जाता है. उसके इमोशन को अधिक से अधिक बढ़ा कर उसके विवेक को नियंत्रित कर लिया जाता है. आज की अधिकांश फ़िल्में देखिये. उनमें क्या है? उनमें जो संघर्ष है और जो वैल्यूज हैं वे क्या हैं.

देश की राजनीति के पैमाने पर देखिये. युवा सबसे अधिक इस्तेमाल किये जाते हैं. वे जिसकी ओर जायेंगे वह सत्ता के शीर्ष पर पहुंचेगा. जो उनको इग्नोर करेगा उसका हटना तय है. तो यह एक बहुत बड़ी जद्दोजहद है जो युवा पीढ़ी के भीतर चल रही है . वह वर्मन ही नहीं भविष्य के भी संकट से रूबरू है लेकिन उसके सामने क्या रास्ता है. कॉर्पोरेट वर्ल्ड उसके बूते है. कल्चर उसके बूते है. राजनीति की दिशा उसके मुताबिक तय होती है . एक तरफ पावर सेंटर्स उसको अपने हिसाब से साधना चाहते हैं तो दूसरी तरफ स्वयं युवा अपने लिए राह तलाश रहा है. इस चुनाव का उदहारण हमारे सामने है. राहुल गाँधी यूथ के आइकॉन नहीं हैं. वे युवा हैं लेकिन युवाओं से संवाद करने में अक्षम साबित हुए . दूसरी ओर नरेंद्र मोदी ने अपनी उम्र से उलट युवा पीढ़ी से संवाद बनाए. यह स्थिति बताती है कि चहरे से अधिक महत्वपूर्ण विचार होते हैं. बेशक मोदी का प्रचार-तंत्र अधिक मजबूत था लेकिन दूसरे लोगों ने भी अपनी सारी ताकत झोंक दी थी. इस चुनाव में क्या हुआ . शोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला शिफ्ट हो गया. ऐसा क्यों हुआ ? आप सिर्फ ऊपर से नहीं कह सकते कि आपकी राजनीति ही सबसे अच्छी है. आपको शोशल मोबिलिटी के कारक तत्वों को जानने-समझने की कोशिश करनी होगी. जोखिम लेना होगा और सतह के भीतर चल रही खदबदाहट को पहचानना होगा. इस चुनाव में एक बात सामने आई कि आप अपने को हाई-फाई प्रोजेक्ट तो कर सकते हैं लेकिन दिलों में जगह बनाने के लिए इमोशन चाहिए और वास्तविक इमोशन सपनों और कुछ नया करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति से पैदा होता है. लगातार जटिल होती हुई स्थितियों में आज का युवा इमोशनली वहां अटैच होने में सुविधा महसूस करता है जहाँ उसे सार्थकता और सुरक्षा दिखाई पड़ती है.

जहाँ तक मीडिया का मामला है तो वह अब पूरी तरह कॉर्पोरेट का है. पहले उड़ीसा, आंध्र प्रदेश आदि जगहों पर भूख से मौतें होती थीं तो मीडिया इसे एक बड़े सवाल की तरह उठाता था लेकिन अब वे ख़बरें पूरी तरह मीडिया से गायब हो गई हैं. अब वह इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री है. देश के कई हिस्सों में नक्सलवाद है लेकिन उसपर कोई बहस नहीं है. स्त्री उत्पीडन के अधिकांश मुद्दे मीडिया से गायब हैं और दुःख तो तब होता है जब उन्हें इंटरटेनमेंट के तौर पर पेश किया जाता है. उसकी त्रासदी आपकी संवेदना को झकझोरती नहीं, बल्कि आप उसका मज़ा लेने लगते हैं . यह सब खतरनाक है . इन हालात में एकतरफा सोच बनती है. फिल्म , कला , मीडिया और मानविकी के दूसरे सभी पक्ष अपने समय की जटिलता को समझने में नाकामयाब रहते हैं. आपके सामने सबसे बड़ी चुनौती आती है कि आपका सरोकार किन लोगों के साथ है. आप चाहे जिसका भी नाम लेते हों लेकिन सवाल उठता है कि आप मनुष्य के संकटों पर कैसे फोकस करते हैं. आज जिस तरह से हर जगह कॉर्पोरेट का एकाधिकार है उसमें सबसे बड़ा संकट उन आदर्शों पर है जो गैरबराबरी, शोषण और अन्याय के खिलाफ खड़े होते हैं. आज मुद्दे पर आधारित फ़िल्में नहीं बन रही हैं. अगर किसी मुद्दे पर फोकस किया भी जाता है तो मनोरंजन को प्रमुखता दी जाती है. यह फिल्म को एक स्वायत्त कला के रूप में विकसित नहीं होने देते. यह विडम्बना ही है कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा अपनी जिम्मेदारी से हटकर लोगों का दिल बहला रहा है और उसके केंद्र में युवा हैं. स्त्रियाँ हैं जो सबसे ताकतवर ढंग से किसी व्यवस्था को बदल सकते हैं.

अर्थव्यवस्थाओं का विकास किसी देश और समाज में मौजूद प्रवृत्तियों को आधार बनाकर होता है. वहां कितनी लालच है. कितनी ईमानदारी, कितनी बेईमानी और भ्रष्टाचार है. साथ-साथ कितनी भूख और कितना शोषण और अन्याय है . ये वे तत्व हैं जो साधारण मनुष्य के चरित्र और चलन को निर्धारित करते हैं. और जब एकबार इनके आधार पर एक ढांचा खड़ा हो गया तो जैसे-जैसे वह शक्तिशाली होता जायेगा वैसे-वैसे लोगों को अपने हिसाब से ढालता जायेगा. वैसे-वैसे वह उनकी सोच और व्यवहार को अपने नियंत्रण में लेता जायेगा. फिर वह अपने नियंत्रण को मजबूत बनाने के लिए अपना कल्चर और अपने विचार थोपता है. आज का युवा इन चीजों के निशाने पर है. इस तरह यह एक जरूरत तो है कि आज के युवा से संवाद कायम किया जाय क्योंकि वही देश का सबसे गतिशील, प्रभावशाली तथा निर्णायक तत्व है. उसके भीतर अन्याय और गैरबराबरी के खिलाफ प्रतिरोध की दृष्टि को और मजबूत किया जाय. पुराने आदर्शों की लीक से अलग चलकर और एक सही राजनीतिक विजन के साथ. ग्लोबलाईजेशन और कॉर्पोरेट बुर्जुआ के नए दौर ने सारी ऐसी चीजों को नुकसान पहुँचाया है जो प्रतिरोध के आदर्शों और विचारों आगे ले जाती हैं. हर जगह विश्वास का संकट बढा है . बेशक समय की नजाकत को देखते हुए आज हमारी यानि सांस्कृतिक उत्पादन से जुड़े लोगों की भूमिका बहुत बड़ी है कि युवा पीढ़ी के सामने एक ऐसी दुनिया की रूपरेखा रखनी पड़ेगी जो उसके भविष्य को अधिक उज्जवल बना सके और स्वयं उसमें करने की बेचैनी और प्रेरणा भर सके.

  ( मुंबई में रामजी यादव से हुई बातचीत के आधार पर )

 

 

 

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