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राजनीतिक झुनझुना और बिहार डायरी (24 जनवरी, 2022)

 बाजदफा बचपन बहुत याद आता है। इस वजह से नहीं कि मेरा बचपन बहुत सुख में बीता अथवा दुख में। याद आने की वजह समयवश परिस्थितियां हैं। वर्तमान के संदर्भ में जब कभी सोचता हूं तो अक्सर बचपन की बातें याद आती हैं। होता यह है कि मन तुलना करने लगता है कि बचपन कैसा […]

 बाजदफा बचपन बहुत याद आता है। इस वजह से नहीं कि मेरा बचपन बहुत सुख में बीता अथवा दुख में। याद आने की वजह समयवश परिस्थितियां हैं। वर्तमान के संदर्भ में जब कभी सोचता हूं तो अक्सर बचपन की बातें याद आती हैं। होता यह है कि मन तुलना करने लगता है कि बचपन कैसा था और आज का हाल क्या है। बचपन भी इसलिए कि मुझे लगता है कि उस वक्त की यादें एकदम निरपेक्ष यादें हैं। वजह यह कि तब लिंग, जाति और धर्म का प्रभाव मेरी जेहन पर नहीं होता था। या यूं कहिए कि इनके बारे में कुछ जानता भी नहीं था। भाषा को लेकर भी बहुत अधिक समझ नहीं थी। माता-पिता दोनों अशिक्षित थे। उन्होंने तो बस मुझे पैदा किया और छोड़ दिया कि अब आगे बढ़ो। कैसे पढ़ोगे और क्या पढ़ोगे, इससे उनको कोई सरोकार नहीं था। बस उनकी इतनी इच्छा रही कि उनका बेट पढ़-लिख जाय ताकि कोई बड़ा आदमी बन सके। मेरे लिए उनकी यह ललक ही महत्वपूर्ण साबित हुई।
खैर, बचपन की यादें एक कसौटी हैं मेरे जीवन में। आज भी मैं कुछ यादों को कसौटी के रूप में ही इस्तेमाल कर रहा हूं। ये यादें खिलौनों से जुड़ी हैं। तब खिलौने नहीं होते थे। झुनझुनों की याद तो ऐसे भी किसी को नहीं रहती। मुझे भी नहीं याद है कि मुझे किस तरह के झुनझुने दिए गए थे। हालांकि जब थोड़ा सा बड़ा हुआ था तब कुछ बच्चों के हाथों में झुनझुने देखता था। वे झुनझुने होते थे टीन के बने हुए और उनके उपर स्टील का पानी होता था। बच्चाें के सामने बजाया जाता और बेचारे बच्चे एक अलग तरह की आवाज की मोह में फंस जाते। बाद के दिनों में कुछ झुनझुने प्लास्टिक के भी देखने को मिले थे। एक तो डमरू के जैसा होता था। यह तो मुझे भी दिया गया था। बांसुरी की याद अभी तक जेहन में है। एक बांसुरीवाला आता था और उसके आने की सूचना उसके द्वारा बजायी गयी मीठी धुनें होती थीं। एक बांसुरीवाला तो नागिन फिल्म के गानों का दीवाना हुआ करता था। तन डोले मेरा मन डोले, मेरे दिल का गया करार  उसकी फेवरिट हुआ करती थी। इसके अलावा वह श्री-420 के गाने भी बजाता था।

[bs-quote quote=”मैं बिहार को देखता हूं तो मुझे आज भी यह एक शिशु के जैसा लगता है। एक ऐसा शिशु जिसे खिलौने देकर चुप कराया जा सकता है। मतलब यह कि बिहार आज भी बहुत पिछड़ा हुआ है। अब एक झुनझुना है विकास दर का। यह मैं वर्ष 2006 से देख रहा हूं। यानी तबसे जबसे कि बिहार में नीतीश कुमार का राज है। हर साल यह आंकड़ा सामने लाया जाता है कि प्रांतीय विकास दर दो अंकों में है। दों अंकों में होने का मतलब यह नहीं कि 99 फीसदी। कभी 11 फीसदी तो कभी 12 और कभी 14 फीसदी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

खिलौने के रूप में और यदि कुछ याद आ रहा है तो सोनपुर मेले में बिकनेवाली मिट्टी की मुर्गाकार काले रंग की सीटियां और घिरनी। उन दिनों पापा जब भी मेला जाते ये दो खिलौने जरूर लाते। मैं भी तब सीटियों को पाकर खुद को सबसे अधिक धनवान समझता था।
दरअसल, मैं यह सोच रहा हूं कि खिलौने समाज में किसी परिवार की स्थिति के परिचायक होते हैं। जिनके घर में आर्थिक समृद्धि होती है, उनके घरों के बच्चों के पास वैसे ही खिलौने होते हैं। आज मेरे बच्चों के पास कितने तरह के खिलौने हैं। अधिकांश तो बैट्री से चलनेवाले खिलौने। कीमत भी कुछ कम नहीं हैं इनके। ऐसे ही खिलौने तब उस समय भी रहे ही होंगे जब मैं बच्चा था। अंतर यह था कि मेरे घर में तब इतने पैसे नहीं थे कि पापा नून-तेल-तरकारी-कपड़ा-दवाई-पढ़ाई का इंतजाम करने के बाद खरीद पाते।
मैं बिहार को देखता हूं तो मुझे आज भी यह एक शिशु के जैसा लगता है। एक ऐसा शिशु जिसे खिलौने देकर चुप कराया जा सकता है। मतलब यह कि बिहार आज भी बहुत पिछड़ा हुआ है। अब एक झुनझुना है विकास दर का। यह मैं वर्ष 2006 से देख रहा हूं। यानी तबसे जबसे कि बिहार में नीतीश कुमार का राज है। हर साल यह आंकड़ा सामने लाया जाता है कि प्रांतीय विकास दर दो अंकों में है। दों अंकों में होने का मतलब यह नहीं कि 99 फीसदी। कभी 11 फीसदी तो कभी 12 और कभी 14 फीसदी। मुझे याद आ रहा है कि वर्ष 2009 में संभवत: बिहार का विकास दर 17 फीसदी बताया गया था। तब दैनिक हिन्दुस्तान में वरिष्ठ पत्रकार रहे श्रीकांत ने एक प्रशस्ति पत्र लिखा था, जिसका शीर्षक था– विकास के मामले में बिहार गुजरात से आगे। इस प्रशस्ति पत्र में उन्होंने राज्य सरकार के इसी आंकड़े को बानगी के तौर पर प्रस्तुत किया था।
फिर मैं कहां कम रहनेवाला था। मैं तब दैनिक आज का संवाददाता था। मैंने भी लिख दिया– अमेरिका से आगे निकला बिहार। यह एक व्यंग्य था जो व्यंग्य होकर भी एक सच था। दरअसल बिहार का योजना आकार तब संभवत: 58 हजार करोड़ रुपए का था और इसके ठीक पहले यह करीब 47 हजार करोड़ रुपए का। इसके आधार पर ही विकास दर का आंकड़ा राज्य सरकार के वित्त मंत्री रहे सुशील मोदी ने पेश किया था। मैंने अपनी खबर में अमेरिका के योजना आकार का हवाला दिया और साथ ही देश के अन्य राज्यों जिनका योजना आकार 100 हजार करोड़ से अधिक था।

[bs-quote quote=”मैं वर्ष 2006 से देख रहा हूं। यानी तबसे जबसे कि बिहार में नीतीश कुमार का राज है। हर साल यह आंकड़ा सामने लाया जाता है कि प्रांतीय विकास दर दो अंकों में है। दों अंकों में होने का मतलब यह नहीं कि 99 फीसदी। कभी 11 फीसदी तो कभी 12 और कभी 14 फीसदी। मुझे याद आ रहा है कि वर्ष 2009 में संभवत: बिहार का विकास दर 17 फीसदी बताया गया था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

बिहार के लोगों को एक और झुनझुना बजाने के लिए दिया जाता है। इस झुनझुने को बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की संज्ञा मैं देता हूं। इसका निर्माण का श्रेय नीतीश कुमार लेते हैं। जबकि इसका श्रेय राबड़ी देवी को जाता है। पहली दफा वर्ष 2002 में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से इसकी मांग पब्लिक मीटिंग में की थी। तब उन्होंने कहा था कि बिहार को उसका हक दे दें। लेकिन तब केंद्रीय हुकूमत में वजीर रहे नीतीश कुमार ने उनकी मांग को हास्यास्पद कहा था। और फिर इसी हास्यास्पद मांग को वर्ष 2009 में झुनझुना बना दिया और तबसे बजा रहे हैं।
एक बार फिर वे यही झुनझुना बजा रहे हैं। उनके साझेदार भाजपा वाले उनके झुनझुने को झुनझुना कह रहे हैं और बिहार के लोग रीझ रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे बच्चे झुनझुने की आवाज सुनने के बाद चुप हो जाते हैं। लेकिन चुप होने का मतलब यह नहीं होता है कि उनका पेट भर गया। वैसे भी झुनझुने से किसी बच्चे का पेट नहीं भरता। बिहार तो वैसे भी बिहार है।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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