झूठ बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
आंखें नचा-नचा के बोलो
मुंह बिरा-बिरा के बोलो
उनको चिढ़ा-चिढ़ा के बोलो
नजरें चुरा-चुरा के बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
शब्दों को चबा-चबा के बोलो
बातों को रेघा-रेघा के बोलो
किस्से बना-बना के बोलो
सच की हवा उड़ा के बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
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राम-राम पे बोलो
गांधी नाम पे बोलो
सबके साथ पे बोलो
विकास राग पे बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
देश में बोलो, विदेश में बोलो
हर भेष में बोलो
सभा में बोलो, सोसायटी में बोलो
हर वेरायटी में बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी…
नोट पे बोलो, वोट पे बोलो
चाय पे बोलो, वाय पे बोलो
स्ट्राइक पे बोलो, स्कैम पे बोलो
गरीबी पे बोलो, फकीरी पे बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
बन्दर नाई उछल-उछल के बोलो
पतुरिया नाई ठुमक-ठुमक के बोलो
नाचो, गाओ, शोर मचाओ
ड्रम पे बोलो, श्रम पे बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी…
कमर हिला-हिला के बोलो
सीना फुला-फुला के बोलो
ताली बजा-बजा के बोलो
लहंगा उठा-उठा के बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
आगे से बोलो, पीछे से बोलो
इधर से बोलो, उधर से बोलो
ऊपर से बोलो, नीचे से बोलो
ऐसे बोलो, वैसे बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
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सबसे आगे बढ़कर बोलो
सब पर चढ़कर बोलो
इतना बोलो, उतना बोलो
लहर-लहर लहराकर बोलो
झूठ सब, सबको भरमाए
झूठ सब, सब पर छा जाए
झूठ सब, सच हो जाए
झूठ सब, सच कहलाए
हां, हां बोलो, हां, हां बोलो
झूठ बोलो, झूठ बोलो!
—————————————-
उम्मीद चिन्गारी की तरह
यह जो हो रहा है
हम नहीं कर सकते इसे बरदाश्त
हमने तो रोशनी चाही थी
उजाले के हम सिपाही
किरणों की अगवानी में थे
हमारे होठों पर था साहिर का गीत
‘वो सुबह न आए आज मगर
वो सुबह कभी तो आएगी’
हम गाते – वो सुबह हमीं से आएगी
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पर यह क्या?
धुंध ही धुंध
धुआं ही धुंआ
यह कैसा अंधेरा
कितना घना?
जो गा रहे थे,
वे अचानक चुप क्यों हो गये?
क्यों बन्द हो गई साज की आवाज?
यह रुदन, यह घुटन क्यों?
जो विरोध में थे, वे तरल हो बहने लगे
इस ढलुवा सतह पर लुढ़कने लगे
अपना तल तलाशने लगे
क्या इतना तरल हो सकता है विरोध?
यू आर अनन्तमूर्ति ने जो कहा था
क्या वह सही कहा था?
उन्हें धमकी भरी तजवीज दी गई
वे देश छोड़ चले जाएं
वीजा ले लें
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अब तो यह तजवीज उन सब के लिए है
जो उनके साथ नहीं
हवा में सनसना रही हैं धमकियां ही धमकियां
गांव छोड़ दो
मोहल्ला छोड़ दो
शहर छोड़ दो
देश छोड़ दो
चले जाओ
पाकिस्तान चले जाओ
जैसे यह देश उनके बाप का है
मैं पुरजोर कहता हूं
मिलजुल कर बनाया है हमने यह देश
इसकी मिट्टी में हमारे पुरखों की हड्डियां गली हैं
हम रहेंगे, यही रहेंगे
भले ही निराशा हमलावर हो गई है
और उम्मीद भूमिगत
पर यह उम्मीद ही है
हां, हां उम्मीद ही है
जो राख के इस ढेर में
कहीं बहुत गहरे चिन्गारी की तरह
अब भी सुलग रही है।
उन्हीं पर टिका है जनतंत्र
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जनता दरबार है
बड़ी भीड़ है
भेडि़या धसान है
सबसे ऊँची चोटी पर
प्रभु विराजमान हैं
कानों कान चर्चा है
लोग फुसफुसा रहे हैं
दबी जबान कह रहे हैं –
प्रभु क्या थे, क्या हो गए
कहां से, कहां पहुंच गए
पर लोगों को क्या पता
उन्होंने क्या-क्या नहीं किया
घर छोड़ा, चोला बदला, चेला बनाया
जोग-ध्यान, जप-तप
भूख-प्यास तज
सब साधा
नगर-डगर की छानी खाक
चले उबड़-खाबड़ रास्तों पर
फांकी धूल
तब पहुंचे हैं यहां तक
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लगता है काशीनाथ जी ठाकुर नहीं अहीर हैं तभी यादव जी से इतनी दोस्ती है!
अब प्रभु अपने आप में खबर हैं
उनका आना-जाना
उठना-बैठना,
बोलना-बतियाना
हंसना-हंसाना
छींकना-खखारना,
पल-पल सब कैमरे की जद में है
इर्द-गिर्द उनके
सुरक्षा की अभेद्य दीवार है
और लोग
एक झलक पाने को बेकरार हैं
लम्बी कतार है
कल तक जो खिंचे-खिंचे थे
वे भी नैया पर सवार हैं
कहने लगे हैं – प्रभु हैं
और प्रभु को लेकर
क्या गिला, क्या सिकवा, क्या सवाल
अच्छा करें, बुरा करें
जब जन ने ही वरण किया है
तो सौ क्या, हजार खून माफ
अब वे प्रभु हैं
अब वे पूजनीय हैं
अब वे माननीय हैं
उन्ही के साये में है देश
उन्हीं पर टिका है यह परम जनतंत्र
जैसे रेत की भीत पर
टिकी है कंक्रीट की छत।
कौशल किशोर जाने-माने कवि हैं ।