Friday, March 29, 2024
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वाट्सएप ग्रुप में केपी सक्सेना का मिर्जा

आजकल व्यंग्यकार न जाने किस दुनिया में जीता है। वह ज्यादातर टीवी में रहता है, नहीं तो वह वाट्सएप समूह में रहता है। वह अख़बार की उस कटिंग में रहता है जिसे उसने अभी इस समूह में डाला है। बड़के वाले व्यंग्यकारों की तो पूछिये मत…अब आप पूछेंगे कि बड़के व्यंग्यकार कौन होते हैं ! […]

आजकल व्यंग्यकार न जाने किस दुनिया में जीता है। वह ज्यादातर टीवी में रहता है, नहीं तो वह वाट्सएप समूह में रहता है। वह अख़बार की उस कटिंग में रहता है जिसे उसने अभी इस समूह में डाला है। बड़के वाले व्यंग्यकारों की तो पूछिये मत…अब आप पूछेंगे कि बड़के व्यंग्यकार कौन होते हैं ! अरे वे जो धर्मयुग में छपे होते हैं। अभी संक्षेप में बताया है। विस्तार से फिर कभी…

ये वाले इस बात पर गर्व कर रहे हैं कि उनके व्हाट्सएप समूह में इतने ज्यादा लेखक जुड़े हुए हैं। उनका समूह सबसे बड़ा है। अपने समूह को बड़ा करने की नित नई प्रतिस्पर्धा…नियत समय पर एक निश्चित अनुष्ठान… इन्हें अपने समूह की टिप्पणियां प्रखर लगतीं हैं तो दूसरे समूह की टिप्पणियों उद्गलन …

आज जो माहौल दीख रहा है… इधर हाल- फिलहाल जो दृश्य-परिदृश्य दिखे…जैसे व्यंग्य पढ़ने को मिले… उससे मैं तो हतप्रभ हूँ।

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मकई के दाने

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मरहूम केपी सक्सेना जी अपने पात्रों के साथ मिर्जा उनका प्रिय पात्र है और हिंदुस्तान अखबार के साप्ताहिक स्तंभ में लिखते हुए लादेन उनका मुख्य पात्र रहा..

अगर आज इस माहौल में उनकी रचना व्हाट्सएप समूह में  डाली जाती तो क्या होता..

कुछ इस प्रकार चर्चा होती…

एक लेखिका: इनको हर बार पात्र मुसलमान ही क्यों मिलता है! साथ में गुस्से वाला इमोजी। लादेन तो आतंकवादी था..

बाकी के सदस्य:

सही बात है…

सहमत…

आप ठीक कह रही हैं…साथ में फूल के गुलदस्ते वाला इमोजी।

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सूपवा ब्यंग कसे तो कसे, चलनियों कसे, जिसमें बहत्तर छेद

हम तो इसी बात के आप के फैन हैं जी कि आप खुल कर बोलतीं हैं। साथ में स्माइल वाला इमोजी।

एक कविनुमा व्यंग्यकार की टिप्पणी: मुझे इनकी भाषा से आपत्ति है। अतिशय उर्दू… इल्लत, ख़ुदा, बाजूबन्द, रोजनामचा, खुदबखुद, चुनाँचे…

बाकी के सदस्य:

बात तो सही है आपकी…

हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है और हमें उस पर गर्व है

हिंदी, हिन्दू, हिदुस्तान

एडमिन की टिप्पणी: भाई! हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है।

अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी…

युवा लेखक: हाँ इसीलिए तो नहीं हो पाई। आज का ज्वलन्त प्रश्न यही है कि हिंदी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पाई। इस बार समूह के संचालक महोदय से मेरा निवेदन है कि इस रविवार को होने वाली गोष्ठी इसी विषय पर हो!

बाकी के सदस्य: सहमत..

ठीक बात..

बिल्कुल…

एक अधेड़ लेखक की टिप्पणी: मुझे लगता है लेखक का रुझान वामपंथ की ओर है…

बाकी सदस्य की टिप्पणी :

मुझे हिन्दू होने पर गर्व है…

अंगूठे वाली इमोजी

अंगूठे वाली इमोजी

अंगूठे वाली इमोजी

अंगूठे वाली इमोजी

अंगूठे वाली इमोजी

फिर केपी साहब क्या लिखते …क्या कहते…

मैं ख्याल करता हूं, मैं सोचता हूं, मुझे यकीन है वे कोई नया व्यंग्य लिखते..

अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी…

लिखते कि…

ईद की मुबारकबाद देने मिर्जा के घर आया हूँ। देखता हूँ कि आसपास के कई मकान जमींदोज हैं। समान इधर-उधर बिखरा पड़ा है।

‘अमा मिर्जा ये क्या हो रहा!’ मिर्जा के दरवाजा खोलते ही मैंने दरयाफ्त की।

‘ईद मुबारक!’ मिर्जा फीकी हँसी छोड़ते हुए बोले।

‘अरे माफ करना मिर्जा… ये सब देख के ईद की मुबारकबाद देना भूल गया…’

‘मुफ़लिसों को ये नवाज़िश अच्छी नहीं लगती/ छत टपकती हो तो बारिश अच्छी नहीं लगती’ मिर्जा ने एक शेर सुनाया।

थोड़ी देर  हम दोनों के बीच खामोशी रही।

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‘मोहल्ले में बुलडोजर दिख रहा है! ऐसा क्यों!’

‘क्या बोलूं के पी भाई… लोग न्यू इंडिया बनाने पर आमादा हैं…’ मिर्जा बोले।

‘देश बनाने के लिए हमने ट्रेन चलाई, ट्रैक्टर चलाये, कारखाने चलाये मगर बुलडोजर..तौबा! तौबा!’

‘देश बदल रहा है केपी भाई!’

‘खूब बदले! शौक से बदले!मगर हम न बदलेंगे!अब सेंवई खिलाओगे कि नहीं!’

मिर्जा दो प्रकार की सेंवई ले कर फौरन से पेश्तर हाजिर हुए।

‘वाह मिर्जा!’ अभी मैं सेंवई की तारीफ में कशीदे गढ़ता कि भाभी जान की आवाज आई,’ए जी सुनिए!गैस खत्म हो गई!’

यह सुनते ही मिर्जा बुझते चूने जैसे सनसना उठे।

हम दोनों बाहर ‘सिलेंडर एक खोज’ की मुहिम पर निकल पड़े। पड़ोस में किससे सिलेंडर मांगा जाए, उन्हें तो खुद मदद की दरकार थी। बातों ही बातों में मिर्जा ने तफसील से सारी बातें बयां कीं। कैसे उनके मोहल्ले से बिना प्रशासन की परमिशन के धार्मिक जुलूस निकाला गया। कैसे बलबा हुआ। कैसे बिना नोटिस के, कागज होने के बावजूद उनके मोहल्ले के कई घर गिरा दिए गए। वो तो गनीमत है कि कुछ खुदा के फरिश्ते कोर्ट से स्टे आर्डर ले आये नहीं तो खुदा जाने क्या होता!

मैं मिर्जा की बातें गौर से सुन रहा था कि मिर्जा जमींदोज मकान की ओर लपके।

मैंने देखा कि मिर्जा ने उस मलबे के ढेर से कुछ उठाया है और झाड़-पोछकर बहुत करीने से उसे शेरवानी में रख लिया है।

‘अमा ये कैसी हरकत है मिर्जा!’ मैंने मिर्जा से पूछा। मिर्जा कुछ न बोले।

‘क्या चुराए हो उस मलबे में से!’ इस बार मैंने सख्त लहजे में पूछा।

‘मेरा हिंदुस्तान!’ यह कहते हुए मिर्जा ने देश के नक्शे को शेरवानी से निकाला।

‘खबरदार मिर्जा! दुबारा ऐसा मत कहना!’ मिर्जा हाथ में देश का नक्शा लिए अहमक की तरह मुझे देखने लगे।

‘हमारा हिदुस्तान कहो!’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

मैंने देखा कि मिर्जा की आंखें छलछला आईं।

मिर्जा गले लगते हुए बोले, ‘तुमने तो डरा ही दिया केपी भाई!’

हम गले मिल रहे थे और आने-जाने वाले हमें ईद की मुबारकबाद दे रहे थे…

अनूप मणि त्रिपाठी स्वतंत्र लेखक हैं और लखनऊ में रहते हैं।

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