औरतें मर्दों से अलग हैं। यह कोई कहने की बात नहीं है। लेकिन दोनों इंसान हैं और समान तरह के अधिकार और सम्मान के योग्य हैं। यह एक आदर्श स्थिति कही जा सकती है, जिसमें औरतों को पूरी हिस्सेदारी दी जाय। लेकिन भारत जैसे देश में यह अभी दूर की कौड़ी है। यह इसलिए कि भारतीय समाज के मूल में जड़ता है और इसकी वजह यहां का दर्शन है, जो कि दकियानुसी अवधारणाओं पर आधारित है। यह बात मैं इसलिए दर्ज कर रहा हूं क्योंकि कल कुछ ऐसा ही हुआ है। मामला महाराष्ट्र के बड़े नेता शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले से जुड़ा है। हालांकि, सांसद सुप्रिया सुले को मैं शरद पवार की बेटी के बजाय केवल सुप्रिया सुले के रूप में जानता और मानता हूं। उनके पति सदानंद सुले से भी परिचय है, परंतु मेरे लिए सुप्रिया सुले एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में ही महत्वपूर्ण रही हैं।
दरअसल, महाराष्ट्र भाजपा के प्रमुख चंद्रकांत पाटील ने सुप्रिया सुले पर टिप्पणी की है। उन्होंने कहा है कि सुप्रिया सुले को घर में बस जाना चाहिए और रोटियां बनानी चाहिए। पाटील ने यह टिप्पणी एक राजनीतिक कार्यक्रम के मौके पर कही जो कि महाराष्ट्र में पंचायती चुनाव में ओबीसी आरक्षण की मांग को लेकर आयोजित था।
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पाटील को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की राज्य महिला प्रकोष्ठ की अध्यक्ष विद्या चव्हाण ने जवाब दिया है। उनका जवाब बेहद महत्वपूर्ण है। मैं महत्वपूर्ण इसलिए कह रहा हूं क्योंकि उत्तर भारत में ऐसे शब्द सियासतदानों के मुंह से नहीं निकलते। आप देखें कि विद्या चव्हाण ने कहा क्या है– “हम जानते हैं कि आप मनुस्मृति में विश्वास करते हैं, लेकिन हम अब चुप नहीं रहेंगे।”
मैं यह सोच रहा हूं कि पाटील ने सुप्रिया सुले को घर में बसने और रोटियां बनाने के लिए क्यों कहा? यदि सुप्रिया सुले महिला नहीं होतीं तो क्या पाटील ऐसा कहते? इसकी वजह क्या है?
दरअसल, यह समस्या केवल एक अकेले चंद्रकांत पाटील की नहीं है। कुछ अपवाद भले हो सकते हैं, लेकिन मेरे हिसाब से सभी भारतीय मर्द यही समझते हैं कि रोटियां बनाने का काम केवल महिलाओं का है। यहां एक सवाल हो सकता है कि आखिर महिलाएं विरोध व्यक्त क्यों नहीं करती हैं कि रोटियां बनाना केवल उनका काम नहीं है। रोटियां पुरुष भी बना सकते हैं और उन्हें ऐसा करना ही चाहिए।
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मैं अपनी बात कहूं तो रोटियां मुझे बनानी नहीं आती हैं। लेकिन मैं प्रयास हर सप्ताह कम से कम एक बार जरूर करता हूं। फिर रोटियां चाहे जैसी भी बनें। दरअसल, रोटियां महज एक प्रतीक हैं। हालांकि दिल्ली आने से पहले मैं ऐसा नहीं था। आज भी जब कभी पटना जाता हूं तो ऐसा नहीं रह जाता। घर में यदि मैं बर्तन भी मांजूं तो मेरे परिजनों को लगता है कि मैं गुस्सा हूं जबकि मैं उन्हें यह समझाता हूं कि घर के सारे काम सभी को मिलजुलकर करना चाहिए। यह इसलिए ताकि सब समझ सकें कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिकता निभाने की जिम्मेदारी केवल महिलाओं पर नहीं थाेपी जानी चाहिए। परंतु, मेरा घर और मेरे परिजन तो अलहदा हैं। हालांकि अब थोड़ा परिवर्तन आया है। बर्तन मांजने और सब्जियां काटने, भात बनाने आदि जैसे काम करने की अनुमति अब मिलने लगी है। लेकिन परेशानी तब होती है जब आलोचनाएं होती हैं कि बर्तन ठीक से साफ नहीं हुए या फिर भात कच्चा रह गया या काटी गई सब्जियों का आकार बड़ा रह गया। मैं उनसे केवल इतना ही कहता हूं कि मुझे ट्रेनिंग दी जाय।
दरअसल, यह ट्रेनिंग ही नहीं दी जाती है भारतीय परिवारों में और इसके पीछे वजह केवल और केवल हिंदू धर्म की मान्यताएं हैं जो पितृसत्ता का पर्याय है। महिलाएं भी इस पितृसत्तात्मक गुलामी को पीढ़ी-दर-पीढ़ी झेलती आ रही हैं और उन्हें यह सब सामान्य सा लगता है। कई बार मैं चौंक उठता हूं जब कोई महिला अपना नाम अन्नपूर्णा बताती है। मेरी एक अधिवक्ता मित्र हैं बिहार में। उनका नाम भी अन्नपूर्णा सिंह है। अभी तीन साल पहले मैंने उनसे यह कहा कि आपको अपने नाम पर पुनर्विचार करना चाहिए। उनका जवाब था कि मैंने अपना नाम अब केवल अन्नू रख लिया है। लेकिन दस्तावेजों में वह आज भी अन्नपूर्णा सिंह ही हैं। हालांकि उनके पति समझदार इंसान हैं और संभवत: उनका रवैया मनुवादी नहीं है। इसके बावजूद मैं ययह सोचता हूं कि यह कैसा नाम है। क्या महिलाएं इस शब्द का मतलब नहीं समझती हैं?
खैर, मैं रोटियों और सुप्रिया सुले की बात करता हूं। चंद्रकांत पाटील के बयान की जब कल आलोचनाएं होने लगीं तब उन्होंने बिना माफी मांगे हंसते हुए कहा कि रोटियां और घर में बसनेवाली बात उन्होंने मजाक में कह दी। इसमें क्या बुराई है।
लेकिन बुराई तो है। जब आप महिलाओं के लिए ऐसे शब्द का उपयोग करते हैं तो आप उनके पूरे वजूद को सीमित करते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि महिलाओं को भी इसके खिलाफ खड़े होने की आवश्यकता है। और उन्हें यह अपने घर से ही करनी चाहिए। रोटियां सब मिलकर बनाएं। निश्चित तौर पर यदि ऐसा होता है तो न केवल रोटियां सुंदर बनेंगीं, बल्कि घर, समाज और यह पूरा देश सुंदर बनेगा।
लेकिन यह तो तब मुमकिन है जब हम मनुवाद को उखाड़ फेंकेंगे। बहरहाल, मैं सुप्रिया सुले के बयान का इंतजार कर रहा हूं। उनके हवाले से जानना चाहता हूं कि रोटियों और घर के बारे में उनकी राय क्या है। वैसे मुझे उनसे उम्मीद तो है कि वह विरोध व्यक्त करेंगी और उनके शब्द महत्वपूर्ण होंगे।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।