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अदालत-अदालत का फर्क या फिर कुछ और? (डायरी 22 मई, 2022)

यह कोई नई बात नहीं है कि सेवानिवृत्त हो चुके जजों के अलावा नौकरशाहों की अंतरात्मा जाग जाती है। उनके बयान ऐसे प्रतीत होते हैं गोया वे सच्चाई के पर्याय हों। पत्रकारिता के दौरान अब तक ऐसे अनेक महानुभावों के दर्शन हुए हैं। एक नये महानुभाव हैं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी. लोकुर। उन्होंने […]

यह कोई नई बात नहीं है कि सेवानिवृत्त हो चुके जजों के अलावा नौकरशाहों की अंतरात्मा जाग जाती है। उनके बयान ऐसे प्रतीत होते हैं गोया वे सच्चाई के पर्याय हों। पत्रकारिता के दौरान अब तक ऐसे अनेक महानुभावों के दर्शन हुए हैं। एक नये महानुभाव हैं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी. लोकुर। उन्होंने राजद्रोह कानून को खत्म किये जाने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट की पहल को “महत्वपूर्ण” माना है। इसके साथ ही उन्होंने यूएपीए को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की है। उनका कहना है कि राजद्रोह का कानून का संबंध सरकार से द्रोह है तो यूएपीए कानून का मतलब देश से द्रोह करना है। यूएपीए की धारा 13 का उल्लेख करते हुए जस्टिस लोकुर ने कहा है कि यह “खराब से बदतर” की ओर जाने के जैसा है।

बताते चलें कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में केंद्र और सभी राज्य सरकारों को राजद्रोह के कानून के तहत नया मुकदमा दर्ज नहीं करने का आदेश दिया है। साथ ही उसने केंद्र सरकार से इस कानून की समीक्षा करने को कहा है।

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खैर, यह तो तय है कि राजद्रोह का कानून भले ही केंद्र सरकार खत्म कर दे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इस देश के हुक्मरान की आत्मा बदल जाएगी। वजह यह कि राजद्रोह के कानून में कुछ अपवाद के प्रावधान हैं। इन अपवादों के कारण इस कानून के तहत बुक किये गये लोगों को कुछ राहत मिल जाती है। लेकिन यूएपीए में अपवादों का प्रावधान ही नहीं रखा गया है। एक कानून और है जिसे हम राष्ट्रीय सुरक्षा कानून यानी रासुका कहते हैं। यह अत्यंत ही कड़ा कानून है। इस कानून के तहत तो हुक्मरान किसी को भी कभी भी गिरफ्तार कर सकती है और अदालतें भी छह महीने तक कुछ नहीं कर सकतीं। इसी कानून का इस्तेमाल भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर के लिए किया गया था। वह तो महज एक उदाहरण हैं।

बहरहाल, कल दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. रतन लाल को जमानत दे दी गयी। इसके लिए उन्हें पचास हजार रुपए और इतनी ही राशि का निजी मुचलका जमा करना पड़ा। हालांकि डॉ. रतन लाल के लिए यह बात बहुत मायने नहीं रखती, वह विपन्न नहीं हैं। लेकिन जिस तरह की धाराओं में उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है, वैसी ही धाराओं के तहत देश में अनेक लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है। लेकिन उनका मामला अलग है।

मैं तो छत्तीसगढ़ के अपने बहादुर साथी रहे लोकेश सोरी को याद कर रहा हूं। उनके खिलाफ भी ऐसे ही धाराओं  के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था। हालांकि इस मुकदमे के पहले लोकेश ने वह काम किया, जो भारत के इतिहास में अनूठा और पहला था। तारीख थी 28 सितंबर, 2017। लोकेश सोरी कांकेर जिले के पखांजूर थाना पहुंचे थे और उनके पास एक लिखित शिकायत पत्र था। अपने शिकायत पत्र में उन्होंने आरोप लगाया था कि दुर्गापूजा के दौरान दुर्गा द्वारा महिषासुर की हत्या करती हुई प्रतिमाओं की स्थापना से रावण वध के सार्वजनिक आयोजन से उनकी भावनाएं आहत होती हैं, क्योंकि आदिवासियों की परंपरा में महिषासुर व रावण उनके पुरखे हैं।

कायदे से पखांजूर थाना के अधिकारी को लोकेश सोरी का शिकायत पत्र स्वीकार कर मामले की जांच शुरू देनी चाहिए थी। लेकिन वहां जो अधिकारी मौजूद था, वह ब्राह्मण जाति का था। उसने लोकेश सोरी को गालियां दी और चले जाने को कहा। लेकिन लोकेश सोरी तब निर्वाचित पंचायत जनप्रतिनिधि थे और इलाके में अपना असर रखते थे। वहीं थाने में ही वह अपने लोगों के साथ धरने पर बैठ गए। वे थाना के ब्राह्मण अधिकारी को हटाने और अपनी प्राथमिकी दर्ज करने की मांग करने लगे। तब जाकर भारत के इतिहास में पहला मुकदमा दुर्गा के तथाकथित उपासकों के खिलाफ दर्ज हुआ।

यह ऐसी घटना थी, जिसके कारण कांकेर से लेकर रायपुर तक हुक्मरानों की नींद उड़ गई। आनन-फानन में लोकेश सोरी को गिरफ्तार करने की रणनीति बनायी गयी और इसके लिए रास्ते तलाशे गए। हुक्मरानों को लोकेश द्वारा फेसबुक पर दो साल पहले का पोस्ट मिल गया, जिसमें उन्होंने दुर्गा संबंधी ब्राह्मणों की व्याख्या को दुर्गा सप्तशती के हवाले से हू-ब-हू रख दिया था। फिर तो अगले ही दिन लोकेश गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें निचली अदालत ने न्यायिक हिरासत में भेज दिया। डॉ. रतन लाल के मामले में ऐसा नहीं हुआ। वजह भी रही। यह मामला दिल्ली का है और रतन लाल दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर के अलावा सामाजिक स्तर पर असरकारक पहचान रखते हैं। कल उनकी गिरफ्तारी की पूरे देश में निंदा की गई। दिल्ली में कुछ लोग सड़क पर भी उतरे। बिहार में भी कुछ लोगों के सड़क पर उतरने की जानकारी मिली है।

खैर, लोकेश सोरी के साथ पुलिस ने बुरा बर्ताव किया। उन्हें बहुत प्रताड़ित किया गया। हालांकि पंद्रह दिनों के बाद उन्हें भी जमानत दे दी गयी थी, लेकिन पंद्रह दिनों की प्रताड़ना का प्रतिकुल असर हुआ। करीब छह महीने के बाद उन्हें अपनी नाक में दर्द महसूस हुआ। कांकेर के डाक्टरों ने रायपुर जाने की सलाह दी और वहां जानकारी मिली कि मैक्सिलरी कैंसर हो गया है। फिर 11 जुलाई, 2019 को लोकेश का निधन हो गया।

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लोकेश ने भारत के वंचित तबकों को बड़ा संदेश दिया कि जब उनकी भावनाएं आहत हों, तो वे चुप नहीं बैठें। आवाज उठाएं। मुकदमा दर्ज कराएं। इस देश में संविधान है तो उसके हिसाब से अदालतों को भी काम करना ही पड़ेगा।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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