1990 के दशक में सत्ता का विकेंद्रीकरण किया गया। तब से हाशियाकृत दलित-पिछड़ा समाज भी लोकतंत्र के महापर्व में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना शुरू किया। स्थानीय स्तर पर उच्च जातियों के सामाजिक-राजनीतिक प्रभुत्व को भी चुनौती मिलनी शुरू हुई। फलतः एक नया नेतृत्व उभर कर सामने आया, जो सर्वजन हिताय– सर्वजन सुखाय के सिद्धांत पर चलना शुरू किया। आज प्रत्येक गाँव में या बूथ स्तर पर ऐसे कई जमीनी बहुजन नेता मिल जायेंगे, जिनमें राजनीति की गहरी समझ होने के साथ-साथ आम आदमी की ‘आवाज’ को बड़े नेताओं (सत्ता) तक पहुंचाना भी जानते हैं। अम्बेडकर, फुले, कांशीराम तथा लोहिया के विचारों से लबरेज पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में ऐसे लोगों को ‘भैया’, ‘बाबा’, ‘नेताजी’, ‘छोटे नेता’, ‘चौधरी’, ‘प्रधान’, ‘मास्टर’, ‘नए नेता’ या कटाक्ष में ‘विधायक’, ‘लालू’, ‘मुलायम’, ‘अखिलेश’ और ‘लोहिया’ के नाम से संबोधित भी किया जाता है।
लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी हैं नए नेता
लोकतंत्र में संख्या का बहुत महत्व होता है, जिसे चुनावी पंडित बखूबी जानते हैं। इसलिए उनकी नजर उत्तर प्रदेश में होने वाले विधान सभा चुनाव पर लगी है। फरवरी 2020 में चुनाव आयोग की ओर से जारी वोटर लिस्ट के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में 14.52 करोड़ मतदाता हैं, जो कि कई छोटे राज्यों की तुलना में बहुत ज्यादा है। भारी भरकम जनसंख्या वाला यह राज्य देश की लगभग 16.17% आबादी का प्रतिनिधित्व करता है।
[bs-quote quote=”पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में चौधरी और ‘नए नेता’ की पैठ बूथ स्तर पर बहुत गहरी होती है तथा वोट देने के रुझान तय करवाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्थानीय चौधरी की पहचान ‘जाति के मुखिया’ के तौर पर जबकि ‘नए नेता’ की पहचान सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में की जाती है। पीएचडी के शोध प्रबंध हेतु मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई गांवों का विस्तृत अध्ययन किया, जिसके उपरांत यह ज्ञात हुआ कि पिछले तीन दशकों में दलित-पिछड़ी जातियों में भी व्यापक राजनीतिक चेतना का उभार हुआ है, जिसके फलस्वरूप कुम्हार, कहार, बढई, बनिया, गड़ेरिया, अहीर, पासी, कोरी, कुर्मी, मल्लाह आदि सैकड़ों जातियां अपने राजनीतिक हितों को लेकर सजग हो रही हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यह सर्वविदित है कि आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (वर्ष 2022) के परिणाम का प्रभाव वर्ष 2024 में होने वाले आम चुनावों पर भी पड़ेगा। इसलिए दिल्ली की गद्दी का सपना देख रहे राजनीतिक दलों ने अभी से तैयारियां शुरू कर दी है। ऐसे में बूथ स्तर पर सक्रिय स्थानीय चौधरी तथा नए नेता की भूमिकाओं तथा वोट के गणित को बारीकी से समझना हमें जरूरी हो जाता है।
बूथ स्तर का चुनावी गणित
पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में चौधरी और ‘नए नेता’ की पैठ बूथ स्तर पर बहुत गहरी होती है तथा वोट देने के रुझान तय करवाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्थानीय चौधरी की पहचान ‘जाति के मुखिया’ के तौर पर जबकि ‘नए नेता’ की पहचान सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में की जाती है। पीएचडी के शोध प्रबंध हेतु मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई गांवों का विस्तृत अध्ययन किया, जिसके उपरांत यह ज्ञात हुआ कि पिछले तीन दशकों में दलित-पिछड़ी जातियों में भी व्यापक राजनीतिक चेतना का उभार हुआ है, जिसके फलस्वरूप कुम्हार, कहार, बढई, बनिया, गड़ेरिया, अहीर, पासी, कोरी, कुर्मी, मल्लाह आदि सैकड़ों जातियां अपने राजनीतिक हितों को लेकर सजग हो रही हैं।
आज इन जातियों में भी कई नए नेता या कार्यकर्ता तथा चौधरी मिल जायेंगे, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी पार्टी के बड़े नेता के संपर्क में रहते हैं। उदाहरणस्वरूप, राजवंत यादव (उम्र 30 वर्ष) सुल्तानपुर जिले के लाला का पुरवा गाँव के निवासी हैं। इनकी सक्रिय राजनीतिक गतिविधियों को देखते हुए राजवंत को समाजवादी पार्टी ने इन्हें सुल्तानपुर में ‘पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ’ का महामंत्री भी बनाया गया है। इन्हें सुल्तानपुर के पूर्व-विधायक अनूप संडा और जयसिंहपुर के पूर्व विधायक अरुण कुमार वर्मा के साथ समाजवादी पार्टी का प्रचार करते हुए देखा जा सकता है। गांवों के विकास की एक कड़ी के रूप में मौजूद राजवंत यादव की तरह यह कमेरा वर्ग अपने परिवार की आजीविका हेतु मुख्यतया प्राथमिक क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। हालांकि, कुछ लोग सेवा (तृतीयक) क्षेत्र में भी कार्यरत हैं।
नए नेता या कार्यकर्त्ता की भूमिका
अब पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव एक पृथक स्वतंत्र इकाई नहीं रहे, क्योंकि अब ग्राम्य जनमानस को शिक्षक, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, लेखपाल, पंचायत सचिव, डाकिया, बिजली बिल रीडर्स, आशा बहू, बैंक अधिकारी, पुलिस, प्रधान, क्षेत्रीय पंचायत अधिकारी आदि से दिन-प्रतिदिन रू-ब-रू होना पड़ता है। इसलिए ग्रामीण समाज अपने कार्यों को सुगमता-पूर्वक निपटाने के लिए किसी ऐसे चौधरी या नए नेता की मदद लेते हैं, जो महत्वपूर्ण पदों पर बैठे इन महानुभावों से आसानी से काम निकलवा सके। इसलिए बूथ लेवल पर सक्रिय इस तरह के कार्यकर्ताओं, नेताओं या चौधरीओं की मांग (अहमियत) दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। ऐसे नेता मरीजों को अस्पताल में भर्ती करवाने से लेकर जमीन जायदात के झगड़ों के निबटारे करवाने तक में अहम् भूमिका निभाते हैं। ये स्थानीय पुलिस से भी मधुर संबंध बनाकर चलते हैं तथा जुगाड़ लगाने में भी इन्हें महारत हासिल होती है। इन ग्रामीण नेताओं के अहसान लोग लंबे समय तक याद रखते हैं। इस संदर्भ में सुल्तानपुर जिले के टडवा गाँव के निवासी राम नारायण शायराना अंदाज में कहते हैं ‘कुछ किस्से दिल में, कुछ कागजों पर आबाद रहे, बताओ कैसे भूलें उन्हें मतदान के समय, जो हर साँस में याद रहे। ’नएनेता को अपने रहनुमाओं की अपील को ग्रामवासियों के बीच देशी लहजे में समझाने की महारत हासिल होती है। जिसके कारण सिर्फ लोकलुभावने वादे कर के या छोटी जातियों को डरा-धमकाकर अपने पक्ष में वोट डलवा लेना अब मुश्किल हो गया है।
अगोरा प्रकाशन की बुक अब किंडल पर भी उपलब्ध हैं:
चौधरी की भूमिका
उत्तर प्रदेश के चुनाव में चौधरी (जाति का मुखिया) को भूलकर भी अनदेखा नहीं किया जा सकता, क्योंकि बूथ लेवल पर अपनी जाति के मतदाताओं में इनकी अच्छी पकड़ होती है। यद्यपि इनकी भूमिका सिर्फ चुनावों तक ही सिमटी नहीं होती, बल्कि वे जाति व्यवस्था के एक मजबूत संवाहक के रूप में भी कई सामाजिक अवसरों पर असरदार उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। बूथ स्तर पर अपने गाँव व जाति-बिरादरी के सामाजिक-राजनीतिक हितों के प्रति पूर्णतया समर्पित रहने के कारण इनकी गणना सम्मानित व जागरूक लोगों में होती है।
चौधरी कौन हैं, इनका चुनाव से क्या लेना-देना है तथा इनके व्यक्तिगत प्रभाव को ठीक से समझने के लिए हमें पूर्वी उत्तर प्रदेश की ग्रामीण सामाजिक संरचना भी पर एक नजर दौड़ाना होगा। गांवों को प्रायः जाति के एक समूह के रूप में पहचान की जाती है, जैसे, लाला का पुरवा, मिश्रा ने, गड़ेरिया का पुरवा, तिवारी का पुरवा, पांडे का पुरवा, यादवपुर। इसका मतलब यह हुआ कि यदि किसी गाँव में गड़ेरिया जाति की विपुलता हो, तो उस गाँव को ‘गड़ेरिया का पुरवा’ तथामिश्रा बाहुल्य जाति के गाँव को मिश्रा ने कहा जाता है। यदि किसी गाँव की आबादी अधिक है, तो वहां कई जाति आधारित ‘टोला’ (मोहल्ला) देखने को मिल जाते हैं। इन छोटे-छोटे टोलेया पुरवाको ‘चमरौटी’ या चमरटोली (दलित बाहुल्य), ‘ठाकुरौटी’ (ठाकुर बाहुल्य), बाभनटोली (ब्रह्माण बाहुल्य), अहिरौटी (यादव बाहुल्य) आदि नामों से पुकारा जाता है।
यह भी देखें:
इन गांवों में प्रत्येक जाति का एक चौधरी होता है, जो कि अपने जाति के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रायः किसी सामाजिक व राजनीतिक जागरूक व्यक्ति को ही चौधरी मान लिया जाता है। एक गाँव का चौधरी दूसरे गाँव के चौधरी से निरंतर संपर्क में बना रहता है। स्थानीय चौराहों, तिराहों व किसी चाय की दुकान पर हर जाति के स्थानीय चौधरी सप्ताह में एक या दो बार आपस में मुखातिब होते रहते हैं। उदाहरणस्वरूप, छेदी यादव (उम्र, 60 साल) सुल्तानपुर जिले के रहने वाले हैं, इन्हें नटौली गाँव में यादव समुदाय का चौधरी घोषित किया गया है। ये कृषि कार्यों से फुर्सत पाने के बाद प्रायः तीन किलोमीटर दूर सुदनापुर चौराहे पर स्थिति ‘यादव रेस्टोरेंट’ (जलपान की दूकान) जाना नही भूलते हैं।
यहाँ यह बताना समीचीन होगा कि इस चौराहे की प्रसिद्द दुकान ‘यादव रेस्टोरेंट’ पर कई गांवों के चौधरी (प्रायः यादव जाति के) नियमित रूप से इक्कठा होते हैं। ये चौधरी समाजवादी पार्टी का घोषणापत्र तथा पार्टी के द्वारा किये गए कार्यों को जुबानी रटे होते हैं और बूथ स्तर पर प्रचार-प्रसार भी करते हैं। इस दुकान पर नियमित आने वाले चौधरी तथा स्थानीय कार्यकर्ताओं की बातें पारिवारिक समस्याओं से शुरू होकर राजनीतिक गलियारों की हलचलों पर ख़त्म होती हैं।
कई सामाजिक अवसरों पर चौधरीयों की बैठक भी बुलाई जाती है, जिसमें पचास से लेकर दो सौ गाँव के चौधरी भाग लेते हैं तथा स्थानीय सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर विचार विमर्श करते हैं। राजनीतिक दृष्टि से जागरूक होने के बाद भी छेदी यादव की भांति कई चौधरी अपने जीवन में कभी भी चुनाव लड़ने की मुराद भी नही पालते हैं।
बिरादरी भोज और चौधरी
पूर्वी उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में कई गांवों का विस्तृत अध्ययन करने के दौरान यह ज्ञात हुआ कि धर्म, जाति और राजनीति का मिश्रण स्थानीय स्तर पर भी जारी है। उदाहरणस्वरूप, हिन्दू धर्म को मानने वाले ग्रामवासी प्रायः गया, भरतकुंड, वाराणसी, पुरी, पुष्कर, आदि धार्मिक स्थलों पर जाकर अपने पितरों (पूर्वजों) के लिए पिंडदान करते हैं तथा वहां से वापस आने के पश्चात ‘गया-जगन्नाथ का भोज’ करते हैं। जिसे स्थानीय भाषा में आजकल ‘बिरादरी भोज’ कहना ज्यादा पसंद किया जाता है, क्योंकि इस प्रकार के भोज में प्रायः अपनी ही जाति के लोगों को प्राथमिकता के साथ निमंत्रित किया जा रहा है।
इन संदर्भ में नटौली गाँव के पूर्व प्रधान व समाजवादी पार्टी के सक्रिय सदस्य हंसराज यादव ने बताया कि ‘बिरादरी भोज में भाग लेने वालों की संख्या एक हजार से लेकर पांच हजार तक हो सकती है। इतनी ज्यादा संख्या में अपनी ही बिरादरी के लोंगो को इकठ्ठा करने के लिए कई गाँव के चौधरी की मदद लेनी पड़ती है।’ बिरादरी भोज में भाग लेने वाले लोगों से साक्षात्कार के उपरांत यह ज्ञात हुआ कि प्रायः सांसद, विधायक और स्थानीय सम्मानित व्यक्तियों को भी निमंत्रित किया जाता है तथा उनके मनोरंजन के लिए किसी बिरहा गायक मंडली को भी बुलाया जाता है। इस गायक मंडली के लिए आयोजक को एक मोटी रकम भी चुकानी पड़ती है।
बिरहा गायक मंडली के लिए एक रंगमंच बनाया जाता है, जहां से गायक बिरादरी भोज में सम्मिलित लोगों से संवाद स्थापित करने का प्रयास करता है तथा बीच-बीच में गायक राजनीतिक किस्से भी सुनाता है। जिसके बदले में इन गायकों को श्रोतागण (अधिकांश रूप से नएनेता से) से पुरस्कार भी मिलता है। यह भी देखने को मिला कि गायकगण पुरस्कार प्रदाताओं के नाम मंच से बड़े सम्मान के साथ एनाउन्स करते हैं तथा उन्हें खुश करने के लिए कुछ कसीदे भी गढ़ते हैं। कभी-कभी बिरहा गायक के लिए बनाये गए मंच से बड़े नेता भाषण देते हुए भी नजर आते हैं। ऐसे में बिरादरी भोज कुछ देर के लिए एक राजनीतिक मंच के रूप में तब्दील हो जाता है और स्थानीय चौधरी उसके संवाहक।
सार्वजनिक रूप से उपस्थिति
जहां एक तरफ़ गाँव के ‘नए नेता’ पान की गुमटी, चाय की दुकान और नहर की पुलियापर बैठे हुए दिखाई देते हैं तथा गाँव के जागरूक सदस्यों से राजनीतिक परिचर्चा करते हैं। बैंक, स्कूल, अस्पताल तथा सार्वजानिक समारोह में नए नेता की उपस्थिति प्रायः देखा जा सकता है। वहीं दूसरी तरफ़, स्थानीय चौधरीगण अपनी उपस्थिति बिरादरी भोज, तेरहवीं, विवाह, जन्मदिन, आदि शुभ अवसरों पर दर्ज कराना नही भूलते हैं।
टडवा गाँव के हरिदत्त यादव (राजू) लगभग 38 साल के हैं। वह एक किसान हैं और अपने निजी ट्रैक्टर से आस-पास के गांवों में जुताई भी करते हैं। सरल स्वभाव के कारण वे आसानी से लोगों में घुल-मिल जाते हैं। युवा पीढ़ी उन्हें बड़े सम्मान के साथ ‘राजू बाबा’ कहते हैं। पिछले चुनाव में वे भाजपा का प्रचार कर रहे थे, लेकिन इस बार (आगामी विधानसभा चुनाव, 2022 के लिए) समाजवादी पार्टी की तरफ़ रुख कर चुके हैं।
इसी क्रम में टडवा गाँव के चौधरी, दुर्गा प्रसाद यादव (उम्र 50 वर्ष) का उल्लेख करना यहाँ समीचीन होगा, क्योंकि आठ से दस ग्राम प्रधान तथा 20 से अधिक गांवों के चौधरी के साथ इनका घनिष्ट संबंध है। कई बूथों पर इनके गुट का स्पष्ट प्रभाव रहता है। दुर्गा प्रसाद यादव बताते हैं कि ‘दो दशक पूर्व तक टडवा गाँव में सड़क नही थी, जिसके कारण बारिस के मौसम में गाँव से बाहर निकलने के लिए ग्रामवासियों को कमर-भर पानी में घुसकर गुजरना पड़ता था। लेकिन आज गाँव में पक्की सड़क, बिजली, पंचायत भवन, सरकारी विद्यालय, शौचालय तथा हैंडपंप जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं।’ टंडवा ग्राम के स्थानीय निवासी बताते हैं कि दुर्गा प्रसाद यादव कभी चुनाव नही लड़ें और न ही किसी पार्टी से जुड़े हैं, लेकिन उनकी सामाजिक कार्यों के प्रति लगन तथा कई पार्टियों के बड़े नेताओं से गहरे संपर्क के कारण ही इस गाँव का काया पलट संभव हुआ है।
परिणाम
पूर्वी उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर और फैजाबाद जिले के कई गांवों का सर्वे करने के पश्चात ज्ञात हुआ कि इन गांवों में एक भी महिला चौधरी नहीं है तथा ‘नारी हो, तुम लड़ सकती हो’ जैसा राजनीतिक नारा जमीन से कोशों दूर नजर आया। इस क्षेत्र में ‘प्रधान-पति’ ही बिना किसी विरोध के चुनी हुई महिला ग्राम पंचायत प्रधान का रोल निर्वहन कर रहे हैं। प्रायः यह भी देखने को मिला कि स्थानीय चुनाव में यदि कोई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाती है, तो नए नेता अपनी बहन, बेटी या पत्नी को उम्मीदवार घोषित कर देते हैं तथा कुछ समय के लिए ऐसी महिला उम्मीदवारों को ‘आ रहा हूँ आपके द्वार’ या ‘डोर टू डोर कम्पेन’ में आगे करके अपने आप को प्रोग्रेसिव नेता दिखाने का दंभ भी भरते हैं। इसलिए हमें यहाँ ‘नए नेता’ का अर्थ ‘प्रोग्रेसिव लीडर’ से कदापि नही लेना चाहिए।
वर्तमान आलेख में ग्रामीण शक्ति संरचना तथा नेतृत्व के उभरते प्रतिमानों को सुनियोजित ढंग से समझने का प्रयास किया गया है। अयोध्या जिले के लौटन का पुरवा ग्राम के निवासी प्रेम कुमार ने हमारा ध्यान जातीय समीकरणों की तरफ़ खीचा और अवगत कराया कि ‘नए नेता और चौधरी का आसपास के गांवों के स्थानीय नेताओं से भी घनिष्ट संबंध रहता है। इन नेताओं के लिए ‘अपने उम्मीदवार को जिताने के साथ ही साथ किसे जीतने नहीं देना है’ की भी सुनियोजित योजना भी होती है।’ राजनीति के इतर, स्वयं सहायता समूहों का निर्माण, बच्चों का नामांकन, सरकारी योजनाओं से जनमानस को अवगत कराना, स्वरोजगार उद्यमियों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था करना, किसानों के लिए मृदा परीक्षण करवाना, आदि सामाजिक कार्यों में दलित-पिछड़ी जातियों से आने वाले इन उभरते हुए नेताओं की सक्रियता के कारण पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिवेश में आज कई गुणात्मक सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं।
#लेखक हैदराबाद विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में डॉक्टरेट फेलो हैं। इनके लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं तथा इन्हें भारतीय समाजशास्त्रीय परिषद द्वारा प्रतिष्ठित ‘एम एन श्रीनिवास पुरस्कार-2021’ से भी नवाजा गया है।
मेरा लेख प्रकाशित करने के लिए सादर आभार.
देवी प्रसाद
https://www.researchgate.net/profile/Devi-Prasad-4