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छठ का परित्याग करें दलित-पिछड़े, ब्राह्मण वर्ग ने इसे प्रदूषित कर दिया है (डायरी 11 नवंबर, 2021)

बात उन दिनों की है जब मुझे इतनी समझ तो थी कि मेरे घर में क्या हो रहा है और मेरे गांव-समाज में क्या हो रहा है। लेकिन समझ होने का मतलब यह नहीं होता कि आदमी मूल्यांकन भी करे। तो होता यह था कि मैं वह सब देखता था जो कुछ होता था। खासकर […]

बात उन दिनों की है जब मुझे इतनी समझ तो थी कि मेरे घर में क्या हो रहा है और मेरे गांव-समाज में क्या हो रहा है। लेकिन समझ होने का मतलब यह नहीं होता कि आदमी मूल्यांकन भी करे। तो होता यह था कि मैं वह सब देखता था जो कुछ होता था। खासकर पर्व-त्यौहारों में। मैं खुद भी शामिल होता था। फिर चाहे वह कोई भी पर्व क्यों ना हो। समझ थी तो बस इतनी कि पर्व-त्यौहार है और उसकी परंपराएं क्या हैं। बचपन में छठ पूजा की धूम रहती थी। धूम तो आज भी है मेरे परिवार में। मेरी पत्नी आए दिन छठ पूजा को लेकर जिद करती रहती है। उसका भी यही मानना है कि उसके जीवन में जो थोड़ी बहुत सुख-शांति है, उसके पीछे उसकी छठी मइया है। हालांकि मैं अपनी तरफ से अपनी दलीलें देता हूं और समझाने की कोशिश करता हूं कि यह सब अंधविश्वास है और जितनी जल्दी हो, इन अंधविश्वासों से निजात पाए।

खैर, मैं अपने बचपन के दिनों को याद करता हूं। घर में छठ करनेवाले मम्मी और पापा दोनों होते थे। तब घर में एक गेट-टूगेदर जैसा माहौल होता था। सभी बहनें घर आतीं और पूरा घर भर जाता। मां पूजा की तैयारी एक महीना पहले से करती थी। मुझे नहीं पता कि उन दिनों छठ करने पर कितना खर्च होता होगा। मुझे तो मतलब भी नहीं होता था। मुझे मतलब होता भी था तो केवल इस बात से कि मुझे नये कपड़े चाहिए और खाने-पीने के सामान। मम्मी और पापा दोनों जब चितकोहरा बाजार जाते तो सबसे छोटा होने की वजह से मुझे अपने साथ जरूर ले जाते। उन दिनों मेरे घर में केवल साइकिल थी। लेकिन पापा जब मम्मी के साथ चितकोहरा बाजार जाते तो पैदल ही जाते थे। उनके साथ मैं भी रहता। कभी मां की गोद में तो कभी पापा की गोद में और कभी पांव पैदल।

[bs-quote quote=”यहां दिल्ली में यमुना नदी के किनारे लोगों ने सूर्य को पहला अर्घ्य दिया। जो तस्वीरें सामने आयीं, उनमें नदी में झाग साफ-साफ दिखायी दे रहे थे। सोशल मीडिया पर अनेक लोगों ने अपने घर की छत पर अर्घ्य दिया। मैं यह सोच रहा था कि वे कौन लोग हैं जो गंदी और जहरीली नदी में खड़े होकर सूर्य को पानी ढारकर अपने आपको धन्य मान रहे हैं और वे कौन हैं जो स्वच्छ पानी में खड़े होकर धन्य मान रहे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

चितकोहरा बाजार तब बहुत बड़ा था। शायद आज भी हो। उन दिनों वहां छैंटी बाजार अलग से लगता था। छैंटी मतलब बांस से बनी हुई टोकरियों का बाजार। छैंटी को हम दऊरा भी कहते हैं। पापा सबसे पहले वही खरीदते थे। इसका फायदा यह होता कि बाजार में सामान खरीदने के बाद उन्हें रखने में आसानी होती। मां का काम सामान पसंद करना होता था। तब पापा के पास एक बड़ा दऊरा और मां के पास एक छोटी छैंटी। और मेरे पास पांव पैदल चलने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। परंतु, तब इसकी फिक्र नहीं होती थी।

मां अपने काम की सारी वस्तुएं खरीदती और मैं खिलौनों की खोज में रहता। फिर उन दिनों खिलौने भी बहुत खास होते थे। डमरू से लेकर बांसुरी और भी बहुत कुछ। मुझे ते बस इनसे ही मतलब होता था।

मां मुझे हमेशा बताती कि यह सबसे पवित्र पर्व है और बहुत बरजना पड़ता है। वह मुझे हर बात बारीकी से बताती कि पूजा का गेहूं छूने से वह कैसे अपवित्र हो जाएगा। लेकिन मैं बच्चा ही था, कितना वर्जनाओं का ध्यान रखता। कुछ न कुछ हमेशा ऐसा कर जाता कि मां को गुस्सा आता और वह मुझे डांट देती और कभी-कभार मार भी बैठती थी। हालांकि उसका गुस्सा महज कुछ सेंकेंड का ही होता। लेकिन उसी दौरान जो मार पड़ती थी, उसका तब बहुत असर होता था।

खैर, मुझे पारन के दिन का इंतजार रहता। उस दिन घर में तीन-चार किस्म की सब्जियां बनतीं। चना की दाल और भात के अलावा पापड़, तिलौड़ी भी। पापा जब मांसाहार करते थे तब छठ के पारन के तीन दिन बाद सालन पकाते थे। लेकिन बाद में तो वे पूर्ण रूप से शाकाहारी हो गए और अब मैं पूर्ण रूप से मांसाहारी हूं।

मुझे भी उन दिनों यही लगता कि यह आस्था का पर्व है। तब यह समझ में ही नहीं आता कि मां अपने गीतों में पांच पुत्र और एक बेटी की बात क्यों करती है। जबकि उसके पास तो पांच बेटियां और दो बेटे हैं। मुझे तो यह भी समझ में नहीं आता था कि वह क्यों कहती कि उसका बेटा खूब पढ़े और बेटियां खूब अच्छे से रहें। उनकी संतानें हों।

[bs-quote quote=”हाल के दशकों में छठ को व्यापक रूप से मनाने के पीछे ऊंची जातियों के लोगों की यही मंशा है कि वे मूलनिवासियों की इस मौलिक परंपरा का अतिक्रमण कर सके और इसे बाजार के हवाले कर दें। वैसे भी दलित और पिछड़ों के पास अभी इतनी समझ नहीं है कि वे ऊंची जातियों की इस साजिश को समझ सकें। मैँ जब यह बात कर रहा हूं तो मेरी जेहन में छठ की परंपराएं हैं। एक उदाहरण यह कि हमारे यहां ठेकुआ बनता है और उसके लिए जो सांचा उपयोग में लाया जाता है, उसमें बौद्ध धर्म से जुड़े प्रतीक होते हैं। इनमें अशोक च्रक्र और पीपल के पत्ते की छाप सबसे अहम है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

जब मेरी शादी हुई तब मुझपर भी छठ करने का दबाव मां ने बनाया। मां ने कहा कि उसने छठ मइया से यह मांगा था कि उसके दोनों बेटों की शादी हो जाएगी तब वह दोनों बेटों के साथ छठ करेगी। उस साल मेरे घर तीन लोगों ने छठ किया। मां, भैया और मैं। तब हम नालंदा के औंगारी गए थे। वहां एक सूर्य मंदिर है और एक तालाब भी। वहां की गंदगी देख मन घिना गया था। लेकिन मां के प्रण को चुनौती देना मुश्किल था। हम बजबजाती गंदगी के बीच तीन दिन रहे। वह भी खुले मैदान में। उस एक अनुभव ने बता दिया था कि छठ आस्था नहीं अंधविश्वास का पर्व है। जिस तालाब में लोग शौच किया करते हैं, उसी तालाब में कोई कैसे पूजा कर सकता है। केवल पूजा ही नहीं, मैंने तो उसी पानी से लोगों को कुल्ला करते भी देखा। मन भिन्ना गया था।

सचमुच यही होता है छठ के दौरान। अब कल की ही बात है। यहां दिल्ली में यमुना नदी के किनारे लोगों ने सूर्य को पहला अर्घ्य दिया। जो तस्वीरें सामने आयीं, उनमें नदी में झाग साफ-साफ दिखायी दे रहे थे। सोशल मीडिया पर अनेक लोगों ने अपने घर की छत पर अर्घ्य दिया। मैं यह सोच रहा था कि वे कौन लोग हैं जो गंदी और जहरीली नदी में खड़े होकर सूर्य को पानी ढारकर अपने आपको धन्य मान रहे हैं और वे कौन हैं जो स्वच्छ पानी में खड़े होकर धन्य मान रहे हैं।

जाहिर तौर पर यह समझ का प्रमाण है। जिनके पास यह समझ है कि यमुना नदी या गंगा नदी या गंदे पोखर-तालाब का पानी गंदा है, वह अपने घर में छठ करते हैं और जिन्हें समझ नहीं है, वह नदी और तालाब आदि की ओर रूख करते हैं। मेरा अपना अनुमान है कि गंदी नदियों और तालाबों आदि में जानेवाले अधिकांश दलित-पिछड़े ही होंगे। वजह यह कि उच्च जातियों के लोगों में अब यह समझ आ चुकी है।

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अब दो सवाल हैं। एक तो यह छठ पर्व असल में पर्व किसका है और अब उसके उपर अतिक्रमण कौन कर रहा है? तो पहले सवाल का जवाब जो मेरी समझ से है कि यह पर्व दलितों और पिछड़ों का रहा होगा। मैं तो इसे पानी पर अधिकार से जोड़कर देखता हूं। उन दिनों जब ऊंची जातियों के लोग अपने इनार यानी कुएं और तालाब आदि से पानी लेने की अनुमति नहीं देते होंगे तब किसी एक ने डॉ. आंबेडकर के जैसे महाड़ सत्याग्रह किया होगा और नदी व तालाब में उतरकर पानी पर अधिकार हासिल किया होगा। तब अपने अधिकार को बनाए रखने के लिए इसे एक उत्सव का रूप दिया होगा। तब ऊंची जातियों को लगा भी नहीं होगा कि निम्न जातियों का यह पर्व उन्हें गोलबंद भी कर देगा। वजह यह कि इस पर्व में ब्राह्मणों का कोई योगदान नहीं था। लेकिन ब्राह्मण कब शांत बैठनेवाले थे। उन्होंने जल्द ही यह भांप लिया होगा कि इस पर्व का ब्राह्मणीकरण करना आवश्यक है नहीं तो इस पर्व के मौके पर होनेवाली गोलबंदी उनके ‘साम्राज्य’ को खत्म कर देगी।

[bs-quote quote=”परंपराएं जड़ नहीं होनी चाहिए। आस्था यदि अंधविश्वास का रूप धारण करने लगे तो उसका परित्याग कर देना चाहिए। लेकिन मैं तो देखता हूं कि छठ के मौके पर लोग आगे बढ़ने की बजाय पीछे की ओर जाते हैं। नंगे पांव चलते हैं। महिलाएं ब्लाऊज तक नहीं पहनतीं। वे सब इस तरह का ढोंग करते हैं मानो आदिम युग में पुनर्प्रवेश कर रहे हों।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दरअसल, हाल के दशकों में छठ को व्यापक रूप से मनाने के पीछे ऊंची जातियों के लोगों की यही मंशा है कि वे मूलनिवासियों की इस मौलिक परंपरा का अतिक्रमण कर सके और इसे बाजार के हवाले कर दें। वैसे भी दलित और पिछड़ों के पास अभी इतनी समझ नहीं है कि वे ऊंची जातियों की इस साजिश को समझ सकें। मैँ जब यह बात कर रहा हूं तो मेरी जेहन में छठ की परंपराएं हैं। एक उदाहरण यह कि हमारे यहां ठेकुआ बनता है और उसके लिए जो सांचा उपयोग में लाया जाता है, उसमें बौद्ध धर्म से जुड़े प्रतीक होते हैं। इनमें अशोक च्रक्र और पीपल के पत्ते की छाप सबसे अहम है।

बहरहाल, परंपराएं जड़ नहीं होनी चाहिए। आस्था यदि अंधविश्वास का रूप धारण करने लगे तो उसका परित्याग कर देना चाहिए। लेकिन मैं तो देखता हूं कि छठ के मौके पर लोग आगे बढ़ने की बजाय पीछे की ओर जाते हैं। नंगे पांव चलते हैं। महिलाएं ब्लाऊज तक नहीं पहनतीं। वे सब इस तरह का ढोंग करते हैं मानो आदिम युग में पुनर्प्रवेश कर रहे हों।

मेरी अपनी समझ है कि दलित और पिछड़ा वर्ग अब इस परंपरा का परित्याग करे। और केवल इसी परंपरा का नहीं बल्कि हर उस परंपरा का जो उन्हें ब्राह्मणों की गुलामी करने के लिए बेबस करता है।

बदलावों के संदर्भ में कल एक कविता जेहन में आयी–

हो गई है रात, अब बात हो जाने दो,

क्यों बुझी रहें मशालें, जल जाने दो।

 

कोई हुक्मरां नहीं रहता अजर-अमर,

वक्त ही है, बस वक्त गुजर जाने दो।

 

करो तसब्बुर कि दिन भी आएगा,

मुश्किलों के कुछ पहर गुजर जाने दो।

 

इतिहास में खून के दाग हैं हुआ करें,

तुम रचो इतिहास, धब्बों को रह जाने दो।

 

आदमी होता नहीं पेंडुलम की तरह,

खुद को बस अपनी राह पर बढ़ जाने दो।

 

बहुत होते हैं कांटे पंखुड़ियों के बज्म में,

कांटों से करो वफा, खुश्बू को फैल जाने दो।

 

हम भी हैं दीवाने नये जमाने के नवल,

बस एक बार उनकी निगाह में बस जाने दो।

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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