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पद्मश्री रामचंद्र मांझी दलित हैं और क्या आप जानते हैं दलित होने का मतलब?(डायरी 10 नवंबर,2021)

दलित, पिछड़ा और आदिवासी होने का मतलब क्या है, इसे समझने के लिए इन समुदायों का होना आवश्यक है। यह मुमकिन ही नहीं है कि कोई ऊंची जाति का हो, और वह इन वंचित तबकों से होने का मतलब समझे। फिर चाहे वह खुद को प्रगतिशील अथवा वामपंथी ही क्यों न घोषित करता/करवाता हो। हालत […]

दलित, पिछड़ा और आदिवासी होने का मतलब क्या है, इसे समझने के लिए इन समुदायों का होना आवश्यक है। यह मुमकिन ही नहीं है कि कोई ऊंची जाति का हो, और वह इन वंचित तबकों से होने का मतलब समझे। फिर चाहे वह खुद को प्रगतिशील अथवा वामपंथी ही क्यों न घोषित करता/करवाता हो। हालत तो यह है कि आज इक्कसवीं सदी के तीसरे दशक के प्रारंभ में भी ऊंची जाति के लोग अपनी मानसिकता का परित्याग नहीं कर सके हैं।

दरअसल, एक महत्वपूर्ण घटना घटित हुई है। एक ऐसी घटना जिसके उपर बिहार के अर्जक समाज को गर्व करना चाहिए।यह घटना है करीब 95 साल के रामचंद्र मांझी को पद्मश्री सम्मान दिये जाने की। वह भिखारी ठाकुर की मंडली में लड़कपन से रहे। उनके निधन के बाद भी रामचंद्र मांझी ने भिखारी ठाकुर की विरासत को जिंदा रखा। उनके अमूल्य योगदान के लिए वर्ष 2019 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार दिया गया। अब कल उन्हें पद्मश्री सम्मान दिया गया।

जाहिर तौर पर यह भिखारी ठाकुर की कला का सम्मान है। यह उस संस्कृति का सम्मान है जो कि कम से कम आधे बिहार का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे में बिहार के अखबारों में रामचंद्र मांझी को पद्मश्री सम्मान दिए जाने की खबर को किस तरह से प्रकाशित किया गया है, यही जानने के लिए आज मैंने पटना से प्रकाशित हिंदी दैनिक प्रभात खबर का ई-पेपर देख रहा हूं। इस अखबार ने पद्म सम्मानों से संबंधित खबर का प्रकाशन पृष्ठ संख्या सात पर किया है। खबर का शीर्षक है– ‘बिहार की कई हस्तियों को राष्ट्रपति ने दिये पद्मश्री पुरस्कार।’ इस खबर के साथ पांच लोगों की तस्वीरें प्रकाशित की गयी हैं। इनमें शामिल हैं– प्रो. रामजी सिंह, चित्रकार श्याम शर्मा, डॉ. शांति राय, विमल जैन (लेखिका शांति जैन के परिजन) और मुकेश सिंह (विक्षिप्त गणितज्ञ रहे वशिष्ठ नारायण सिंह के परिजन)। इनमें एक विमल जैन को छोड़ शेष सभी सवर्ण हैं। अखबार द्वारा प्रकाशित खबर में बहुत शातिर तरीके से इस बात का जिक्र नहीं किया गया है कि किसे पद्म सम्मान के तहत दिए जाने वाले किस कोटि का सम्मान दिया गया है। साथ ही खबर में न तो रामविलास पासवान और रामचंद्र मांझी के नाम जिक्र किया गया है और ना ही तस्वीरों में जगह दी गयी है।

[bs-quote quote=”आलेख के लेखक मेरे मित्र रहे हैं। नाम है– अरुण कुमार। वे जेएनयू के छात्र रहे हैं और एक समय ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी थे। जेएनयू में ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम के गठन में अरुण की अहम भूमिका रही थी। परंतु जेएनयू से निकलने के बाद अरुण ने अपना पाला बदल लिया है। उन्होंने अपने आलेख में एक जगह यह लिखा है कि ‘बिहार के अधिकांश लड़के छठी मैया के ही तो दिये हुए हैं।'” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रभात खबर भी निम्न स्तर का अखबार बनकर रह गया है। मैं तो इसके संपादकीय पन्ने को देख रहा हूं। इसमें छठ को लेकर एक आलेख प्रकाशित किया गया है। आलेख के लेखक मेरे मित्र रहे हैं। नाम है– अरुण कुमार। वे जेएनयू के छात्र रहे हैं और एक समय ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी थे। जेएनयू में ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम के गठन में अरुण की अहम भूमिका रही थी। परंतु जेएनयू से निकलने के बाद अरुण ने अपना पाला बदल लिया है। उन्होंने अपने आलेख में एक जगह यह लिखा है कि ‘बिहार के अधिकांश लड़के छठी मैया के ही तो दिये हुए हैं।’

मैं अरुण के बारे में नही सोच रहा हूं। अरुण ने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की नौकरी के लिए अपने मूल्यों से समझौता किया और ऐसा करनेवाले वह अकेले नहीं हैं। उनके अलावा कम से कम आधा दर्जन परिचित हैं जिन्होंने अपनी रीढ़ का परित्याग आरएसएस के समक्ष कर दिया है। मैं तो प्रभात खबर और हिंदी अखबारों के बारे में सोच रहा हूं कि वे कैसे अंधविश्वास को बढ़ावा देनेवाले पर्व छठ के महिमामंडन करने में जुटे हैं। सबसे दिलचस्प तो यह है कि महिमामंडन करने के चक्कर में वे पत्रकारिता के इथिक्स को स्वयं ही खारिज कर रहे हैं। एक उदाहरण तो यह कि प्रभात खबर ने छठ के छह वैज्ञानिक महत्व बताए हैं। इनमें से एक महत्व यह कि छठ के दिन कोई विशेष खगोलीय घटना होती है और इस दिन सूर्य से पराबैंगनी किरणें निकलती हैं जिससे मनुष्य के शरीर में सौर ऊर्जा का संचय होता है। इस जानकारी का कोई संदर्भ नहीं है। शेष पांच कारण जो बताए गए हैं, वे भी बेसिर-पैर के हैं।

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दरअसल, हिंदी अखबारें चाहते क्या हैं, यह बड़ा सवाल है। एक तरफ तो वे आधुनिक होने का दिखावा करती हैं। प्रगतिशीलता के दावे करती हैं। वहीं दूसरी तरफ वे वर्चस्ववादी परंपराओं को बरकरार रखने की पक्षधर हैं। सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि वे जातिवादी भेदभाव करती हैं। लेकिन इन सबके बावजूद ये अखबार फल-फूल रहे हैं तो इसके पीछे की मूल वजह यही है कि हिंदी प्रदेशों के दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय जागरूक नहीं है। वे ऊंची जातियों के लोगों के जैसे धूर्त नहीं हैं।

बहरहाल, ऊंची जातियों के लोग अपने वर्चस्व को कायम रखना ही चाहेंगे। ठीक वैसे ही जैसे मैं चाहता हूं कि बहुसंख्यक वंचित समाज जागरूक हो और आगे बढ़े। सभी के अपने स्वार्थ हैं। मेरा भी यह स्वार्थ ही है। अब मैं उस डा. शांति राय की तारीफ तो नहीं ही कर सकता जो कि पटना में एक निजी अस्पताल चलाती हैं और मरीजों से मनमाने तरीके से धन वसूलती हैं। उन्हें पद्मश्री का सम्मान दिये जाने का लॉजिक केवल भाजपा के लोग ही बता सकते हैं। मैं तो रामचंद्र मांझी और रामविलास पासवान की बात करूंगा। यह इसके बावजूद कि मुझपर भी जातिवादी होने का आरोप लगेगा। लेकिन जो स्वयं आकंठ जातिवाद के दलदल में डूबे हों, उनकी आलोचना की परवाह क्या करना।

रामचंद्र मांझी जी आपको खूब सारी बधाई।

कल एक कविता जेहन में आयी–

मुझे मान लेना चाहिए कि
यह धरती एक जैसी नहीं है
और इसके बाशिंदे भी एक जैसे नहीं
मैं भी तुम्हारे जैसा नहीं
और तुम भी मेरे जैसी नहीं।

बाजदफा सोचता हूं
अगर मैं तुम्हारे जैसा होता तो
क्या वक्त अपने बढ़ते कदम रोक लेता
और मेरे पास होता
बीते वक्त का पूरा हिसाब
और अपनी दुनिया बनाने की गुंजाइश।

लेकिन अब जबकि हूं बाखबर कि
पत्तों और पेड़ों का रिश्ता
अजर-अमर नहीं होता
मैं सोच रहा हूं
तुम्हारे बिन गुजरती इस रात के बारे में
और रात है कि
मेरे सिरहाने जिम्मेदारियां रख जाती है।

हां, अब मुझे मान लेना चाहिए कि
कुछ भी नहीं है मेरे पास
लेकिन आता है ख्याल कि
कुछेक शब्द अब भी जीवित हैं
कुछ अहसासों ने धैर्य नहीं खोया है
और रगों में बहता लहू कहता है कि
मैं जिंदा हूं
तुम जिंदा हो
हमारे सपने जिंदा हैं।

जबकि मुझे है खबर कि
सपनों के जिंदा रहने का मतलब
सपनों का सच होना नहीं होता।

फिर भी मुझे मान ही लेना चाहिए कि
मेरे पास कुछ भी शेष नहीं
और जो है
वह काल के गाल में समाता जा रहा है
अगर मेरे हाथों में होती ताकत तो
रोक लेता तूफान
बचा लेता अपनी दुनिया।

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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3 COMMENTS
  1. यथार्थ कथन और विश्लेषण। बढ़िया।
    इस बार की कविता भी बहुत अच्छी लगी।
    निम्नलिखित पंक्तियों ने विशेष रूप से प्रभावित किया:
    *…और रात है कि/मेरे सिरहाने जिम्मेदारियां रख जाती है.*
    *….सपनों के जिंदा रहने का मतलब/सपनों का सच होना नहीं होता.*

    नवल किशोर कुमार जी को साधुवाद।

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