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ग्राउंड रिपोर्ट

पूजा स्थल विवाद : आरएसएस और भाजपा पूजा स्थल अधिनियम 1991 का खुला उल्लंघन कर रहे हैं

क्या कारण है कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 के पारित के बाद भी अभी हाल के समय में अनेक मस्जिद व दरगाहों के सर्वे के दावे सामने आने लगे, और इसके बाद सेवा निवृत हुए मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड लगातार निशाने पर हैं क्योंकि उन्होंने वाराणसी के ज्ञानवापी में सर्वे की अनुमति देने के बाद कहा था कि पूजा स्थल अधिनियम की धारा 3 में पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र का पता लगाने पर कोई रोक नहीं है, उनका यही बयान मस्जिदों के सर्वे की याचिकाकर्ताओं के साथ है जबकि इसी अधिनियम की धारा 4, 15 अगस्त, 1947 को मौजूद धार्मिक स्थलों के स्वरूप को बदलने पर रोक लगाती है। मस्जिदों और दरगाहों के सर्वे की अनुमति साम्प्रदायिक माहौल को बिगाड़ने की साजिश के अलावा कुछ और नहीं है।

24 अक्टूबर 1989 को रामशिला पूजा के जुलूस दौरान भागलपुर में दंगे शुरू हो गए। जो लगभग पूरे भागलपुर कमिश्नरी में फैल गया। जिसमें तीन सौ से ज्यादा गांवों में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के घरों को और पूजा स्थलों को तोड़ने के बाद मलबे पर काले तारकोल व लाल गेरू से रामजी का मंदिर, दुर्गा मंदिर, हनुमान मंदिर लिख दिया गया, जो हमने अपनी आंखों से देखा। ऐसा लगा कि भारत में रहने वाले हर मुसलमान के अस्तित्व के साथ पूजा स्थल भी खतरे में है। भागलपुर दंगों के बारे में हमने सभी से यही कहा और अपने लेखों में भी यही लिखा है कि ‘सांप्रदायिकता अगले पचास वर्षों तक भारतीय राजनीति का केंद्र बिंदु रहेगी और रोजमर्रा के मुद्दे गौण हो जाएंगे।’  इस बात को बीते आज पैंतीस साल हो चुके हैं लेकिन यह सच साबित हो रहा है।

क्या कहता है पूजा स्थल अधिनियम 1991 का कानून 

13 सितम्बर 1991 को प्रधानमंत्री नरसिम्हा की सरकार के गृह मंत्री श्री शंकरराव चव्हाण ने देश की संसद में विभिन्न पूजा स्थलों के संबंध में कानून पारित करने के लिए एक विधेयक प्रस्तुत किया। यह कानून 18 सितंबर 1991 को पारित हुआ। इस कानून के अनुसार, हमारे देश में 15 अगस्त 1947 से पहले स्थापित किसी भी पूजा स्थल की धार्मिक पहचान में कोई भी परिवर्तन निषिद्ध है। ऐसा करने वाले व्यक्ति को तीन साल की कैद और जुर्माना की सजा दी जाती है। इस प्रावधान को बनाने का एकमात्र कारण हमारे देश में रहने वाले सभी धर्मों के लोगों के बीच शांति और सद्भाव बनाए रखना है। क्योंकि पिछले चालीस सालों से बाबरी मस्जिद का विवाद चल रहा था। इस कारण भागलपुर, गुजरात और देश के विभिन्न स्थानों पर तनाव उत्पन्न होने के बाद दंगे हुए। इसलिए 1991 में संसद में पारित प्रस्ताव में इन पूजा स्थलों पर विवाद पैदा करने वाले व्यक्ति को तीन साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया। बाबरी मस्जिद के कारण ही जनता पार्टी केंद्र में सत्ता में आने में सफल हुई। मस्जिद विवाद के मामले में अभी तक इस कानून में संशोधन नहीं किया है।

 1991 के कानून के रहते हुए स्थानीय अदालत ने बनारस के ज्ञानवापी, मथुरा, मध्य प्रदेश के धार की भोजशाला  के बाद उत्तर प्रदेश के संभल तथा राजस्थान के अजमेर शरीफ में ताजा विवादों के मामले दर्ज किए हैं एवं एएसआई सर्वेक्षण कराने का फैसला भी दिया है। क्या यह 1991 के कानून का उल्लंघन नहीं है? ऐसा करने वाले को दंडित करने के बजाय हमारी अदालत प्रस्तुत मामले को स्वीकार कर उस पर बहुत ही आश्चर्यजनक फैसले दे रही है। इसका एकमात्र कारण यह है कि आरएसएस के सौ साल के दुष्प्रचार के बाद हमारी न्यायिक प्रक्रिया, पुलिस और विभिन्न क्षेत्रों के कई लोग अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ नफरत के लिए जिम्मेदार हैं। इसीलिए वे 1991 के क़ानून की अनदेखी करते हुए मामले दर्ज करने का साहस कर रहे हैं।

आरएसएस और भाजपा का दोहरा चरित्र 

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि ‘हमारे देश में हर मस्जिद के नीचे शिव मंदिर मिलना गलत है।’ फिर भी, ज्ञानवापी, भोजशाला, मथुरा, संभल और अजमेर शरीफ के मामले उठाने वाले लोग कौन हैं? ऐसे मामले दर्ज करवाने वाले कौन लोग हैं? इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह रहे हैं कि ‘हमारे देश में हर मस्जिद के नीचे शिव मंदिर मिलना गलत है।’ मोदी ने गौहत्या को लेकर मॉब लिंचिंग करने वालों को भी ‘वसूली करने वाले गुंडों का गिरोह’ कहा था और खुद आरएसएस के लोगों ने उनसे अपना बयान वापस लेने को कहा था। लेकिन उत्तर प्रदेश में अखलाक और जुनैद की मॉब लिंचिंग करके हत्या करने वालों के खिलाफ अब तक क्या कार्रवाई की गई?

संघ के लिए सुबह की प्रार्थना करने वालों में महात्मा गांधी का नाम भी शामिल है। लेकिन वे कौन लोग हैं जो महात्मा गांधी की हत्या को वध कहते हैं, आज भी उनकी तस्वीरें खींचते हैं और उनके बारे में घटिया भाषा बोलते हैं?

अगर मोहन भागवत ने कहा है कि हर मस्जिद के नीचे शिव मंदिर मिलना गलत है, तो फिर ज्ञानवापी, मथुरा, बनारस, संभल की भोजशाला और अजमेर शरीफ के हालिया मामलों के पीछे कौन लोग हैं? उन्हें तूल देने वाले कौन हैं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दोगली भाषा स्वयंसेवक संघ की स्थापना के शुरुआत से ही चल रही है। यह उनकी युद्धनीति का हिस्सा है। भागलपुर से लेकर गुजरात तक हुए दंगों में संघ के स्वयंसेवकों की क्या भूमिका रही है? यह सबके सामने आ गया है।

लेकिन कई लोगों ने मोहन भागवत की इस बात के लिए प्रशंसा की है कि उन्होंने कहा कि हर मस्जिद के नीचे शिव मंदिर मिलना गलत है। इसलिए मोहन भागवत से मेरा अनुरोध है कि ‘अगर वे चाहें तो ज्ञानवापी, मथुरा, भोजशाला, संभल और अजमेर शरीफ़ पर चल रहे विवादों को तुरंत रोक सकते हैं क्योंकि ऐसे शरारती दिमाग वाले लोग भी उनके अपने ही हैं।”

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्तर के दशक में महाराष्ट्र के जलगांव-भिवंडी दंगों की जांच करने वाले जस्टिस मदान ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा है कि ‘संघ के लोग किसी दंगे में शामिल थे या नहीं, यह अलग बात है। लेकिन संघ अपने बौद्धिक खेलों, गीतो के माध्यम से दैनिक शाखाओं में अपने स्वयंसेवकों को जो सिखाने की कोशिश करता है, वह अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ नफरत पैदा करने का काम करता है। इसलिए भारतीय दंड संहिता के अनुसार, यह मायने नहीं रखता कि संघ के सदस्य किसी दंगे में सीधे तौर पर शामिल थे या नहीं। आरएसएस अपनी दैनिक शाखाओं में जो प्रचार करता है, वह दंगों में फूटकर अभिव्यक्त होता है।’

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आरएसएस को 77 साल पहले हुए बंटवारे पर बहुत आपत्ति है और वह अखंड भारत के मुद्दे पर लगातार बोलता रहता है। यहां तक कि संघ के पास जो भारत का नक्शा है, उसमें वर्तमान पाकिस्तान, बांग्लादेश और यहां तक कि अफगानिस्तान भी शामिल है। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भी भारत संघ की कल्पना की लेकिन उसके लिए इस क्षेत्र में रहने वाले सभी लोगों को परस्पर विश्वास, प्रेम और भाईचारे के माहौल में रहना होगा। न कि मंदिर-मस्जिद, गोहत्या, लव जिहाद, भूमि जिहाद, वोट जिहाद जैसे आरोप-प्रत्यारोप लगाकर संभल गुजरात या भागलपुर जैसे दंगे कराकर ऐसा साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देना होगा।

क्या संघ कश्मीर से कन्याकुमारी और नागालैंड से ओखा तक भारत में मौजूद विवादों को सुलझाने के लिए कोई पहल कर रहा है? या फिर इन विवादों के पीछे विवेकानंद केंद्र, वनवासी कल्याण आश्रम या संघ की विभिन्न इकाइयों का हाथ है? अगर आप अपने अंदर इतना भी झाँकेंगे तो अखंड भारत की यात्रा में बहुत मदद मिलेगी!

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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