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उत्तर प्रदेश का राजनीतिक एजेंडा सामाजिक न्याय और भागीदारी हो

  उत्तर प्रदेश भाजपा में भगदड़ है और पिछड़े वर्ग के बहुत से प्रभावशाली नेता पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं। यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि साम-दाम-दंड-भेद की वर्तमान सरकार की रणनीति के हिसाब से हम सब जानते हैं कि इनकम टैक्स और एंफोर्समेंट डिरेक्टरेट, सीबीआई और अन्य सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल […]

 

उत्तर प्रदेश भाजपा में भगदड़ है और पिछड़े वर्ग के बहुत से प्रभावशाली नेता पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं। यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि साम-दाम-दंड-भेद की वर्तमान सरकार की रणनीति के हिसाब से हम सब जानते हैं कि इनकम टैक्स और एंफोर्समेंट डिरेक्टरेट, सीबीआई और अन्य सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल चुनावों के समय ही होता है और पिछले चुनावों के ठीक पहले ही नोटबंदी भी की गई थी। बहुत से विशेषज्ञ उसे उत्तर प्रदेश के चुनावों से जोड़कर देख भी रहे थे।

हालांकि मैं चुनावों की पूर्व संध्या पर इस तरह की भगदड़ को नॉर्मल ही मानता हूँ। इसमें दो प्रकार के लोग होते हैं। एक वे जिनको टिकट मिलने की संभावना नहीं होती। दूसरे वे जिनको अपनी जीत की संभावना नहीं दिखती। और इसी में एक तीसरे प्रकार की भी जमात है और वह है ऐसे नेताओ की जिन्हें अपने परिवार के सदस्यों को भी टिकट दिलवाना है और अपने लिए कोई सुरक्षित सीट देखनी है। इसलिए दल बदलकर आने वाले कुछ लोग जरूर प्रभावशाली हैं और उनके आने से एक नेरेटिव चल गया है कि दलित-पिछड़े नाराज हैं। इसके बावजूद समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को बेहद संजीदगी और सावधानी से आगे बढ़ना है क्योंकि भाजपा और संघ परिवार भी नेरेटिव के काउन्टर में नेरेटिव बनाने में माहिर है। चुनाव आते-आते तक यदि दल-बदलू अधिक सीटें ले गए तो जो कार्यकर्ता पार्टी को मजबूती दे रहे थे और टिकट की उम्मीद कर रहे थे उनका क्या होगा? काउन्टर नेरेटिव इस आधार पर होगा कि उस इलाके में विरोधी कौन है? यह जरूर है कि समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में इस समय सत्ता की सबसे मजबूत दावेदार है। अभी अखिलेश यादव ने पत्रकारों को भी बेहतरीन तरीके से हैन्डल किया है और उन्हे अपना अफेन्सिव जारी रखना चाहिए।

जाति भेद के प्रश्न महत्वपूर्ण है और उनके लिए यह आवश्यक है कि वह मीडिया के जातिवाद का पर्दाफाश करें। एक और अच्छी बात यह हुई है कि अखिलेश यादव ने श्रीमती आशा सिंह, जो उन्नाव से काँग्रेस की उम्मीदवार हैं और कुलदीप सेंगर के अत्याचारों का शिकार हुई महिला की माँ हैं, उनके विरुद्ध अपना उम्मीदवार न उतारने की घोषणा की है। अखिलेश यादव इसके लिए बधाई के पात्र हैं।

इधर कॉन्ग्रेस पार्टी की उत्तर प्रदेश चुनावों के लिए उम्मीदवारों की जो पहली लिस्ट जारी की है वह बेहद प्रभावकारी है। इसके लिए प्रियंका गांधी और कांग्रेस पार्टी  दोनों ही बधाई की पात्र हैं, जिन्होंने ऐसे लोगों को चुना है जो उत्पीड़ित रहे हैं और उत्पीड़कों का डट कर मुकाबला किया। चुनाव आमतौर पर वोट पाने के लिए अक्सर जातिगत गणित और जीत हार के आकलन पर आधारित होते हैं जिसके कारण जनता के प्रश्न एजेंडे पर नहीं आ पाते लेकिन इस बार कांग्रेस प्रयोग कर रही है, और अगर वह सफल होती है तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा। 40% से अधिक टिकट महिलाओं और युवाओं को मिले हैं और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों के दलितों, मुसलमानों के लिए आवंटित सीटों की पर्याप्त संख्या है।

अगर ये सभी नए सदस्य हार के बावजूद कांग्रेस की विचारधारा से चिपके रहते हैं तो मैं कह सकता हूं कि पार्टी का भविष्य उज्ज्वल है लेकिन अगर वे भी ‘मौसम विज्ञानी’ बन जाते हैं या ‘मौसम विभाग के अधिकारी’ की तरह व्यवहार करते हैं तो भविष्य उस नाव की तरह हो जाएगा जिस पर मौके से तो लोग चढ़ जाते हैं लेकिन बाद में वह भूल जाते हैं कि वह किस भँवर में गोते खा रही है। इसलिए पार्टी के उत्तर प्रदेश में उभरने के लिए उसका राष्ट्रीय स्तर पर सफल होना जरूरी है। काँग्रेस के लिए यह भी आवश्यक है कि अपने मोमेंटम को बनाए रखे और पार्टी का नेटवर्क खड़ा करे। लेकिन गौर करनेवाली सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि काँग्रेस की विचारधारा क्या है यह उसके कार्यकर्ता को पता ही नहीं। अभी भी जो काँग्रेस में शहरी ‘संभ्रांत’ ‘बुद्धिजीवी’ या ‘ऐक्टिविस्ट’ आ रहे हैं वे मात्र सेक्यूलरिज़्म या डेमोक्रसी के नाम पर नहीं जीत सकते। उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित-पिछड़ों के हाशिए के सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं और जब तक उनके प्रश्नों को जोर देकर उठाया नहीं जाएगा, तब तक राजनीति में इन समाजों के मौसम विज्ञानी ही चलेंगे और वे काँग्रेस की तरफ तभी आएंगे जब पार्टी की उम्मीद कुछ सीटें लाने की हो।

दरअसल उत्तर प्रदेश में बसपा एक महत्वपूर्ण दल है जिसको मीडिया बिल्कुल ही हल्के में ले रहा है। अभी भाजपा और सपा दोनों की ओर से यही प्रयास हो रहा है कि यह लड़ाई केवल द्विकोणीय है और बसपा और काँग्रेस को कुछ नहीं मिलने वाला। मुझे लगता है इस तरह की सोच अभी भी शायद सत्य न हो । यह जरूर है कि पिछले कुछ दिनों के वक्तव्यों और घटनाक्रमों से पिछड़े वर्ग के नेताओं में भाजपा से बाहर निकलने की होड़ लगी है लेकिन केवल नेताओं के नाम से यदि वोट पक्का होता तो सपा को आज ही जीता घोषित कर दिया जाता। सवाल यह है कि ये मीडिया अचानक ऐसे कैसे योगी विरोधी खबरे चलाने लग गया। क्या संघ के अंदर भी कोई अन्य राजनीति हो रही है। इसे समझने की जरूरत है।

काँग्रेस की पहली लिस्ट में कुछ प्रेरक नाम हैं, जैसे सोनभद्र में आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले रामराज सिंह गोंड, यातना और उत्पीड़न का सामना करने वाली उन्नाव की लड़की की मां आशा सिंह और कई अन्य। महिला आयोग की पूर्व सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता शमीना शफीक को सीतापुर और कई अन्य को चुनाव लड़ते हुए देखकर बहुत अच्छा लगा। इस पूरी कहानी का अच्छा पक्ष यह है कि कांग्रेस पार्टी में नागरिक समाज और कार्यकर्ताओं को जगह मिली है। हालांकि इनमें लुईस खुर्शीद जैसे नाम भी हैं जो पता नहीं कितनी बार चुनाव लड़ चुकी होंगी। पार्टी पूरी तरह से एक   ‘एनजीओ’ की तरह न बने तो अच्छा होगा। इसके लिए केवल उनलोगों पर जोर न लगाए जो सोशल मीडिया पर ऐक्टिव हैं, या जिनके ‘प्रशंसक’ बहुत हैं। दरअसल राजनीति में इस समय केवल अच्छा सोचना ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु लोगों से जुड़ा होना और पार्टी नेटवर्क की स्थिति भी बहुत आवश्यक है। इसके अलावा विभिन्न समुदायों में राजनैतिक, सामाजिक नेतृत्व की भावना जागृत हो रही है और इसलिए जरूरत काँग्रेस को उन लोगों को खड़ा करने की है। मुझे नहीं पता कि इससे पार्टी को कितनी मदद मिलेगी, लेकिन सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश में कुछ आश्चर्य हो सकता है। रुझान दिखाई दे रहे हैं। ओबीसी और दलित सरकार के खिलाफ बेहद नाराज हैं। बेशक, मुस्लिम आबादी यह अच्छी तरह से जानती है कि उन्हें कैसे बदनाम किया गया और अलग किया गया। जैसे-जैसे मतदान की तारीखें नजदीक आती जाएंगी, हम देखेंगे कि माहौल खराब करने और धार्मिक आधार पर राज्य का ध्रुवीकरण करने के प्रयास किए जाएंगे।

बहुजन समाज पार्टी और सुश्री मायावती के कार्यकर्ता गांवों मे अपने प्रचार में जरूर लड़ रहे होंगे लेकिन पर्सेप्शन की लड़ाई में वे बहुत पिछड़ गए है। हालांकि बीएसपी एक काडर आधारित पार्टी है लेकिन काडर को जोश देने के लिए नेताओं को भी सड़क पर आना होगा। उम्मीद है कि जैसे-जैसे चुनाव का समय नजदीक आएगा, बसपा सड़क पर होगी। लोकतंत्र और बहुजन समाज के हित में बसपा की मजबूती बेहद आवश्यक है।

अभी सबकी निगाह अखिलेश यादव पर है और वह बड़ी ताकत से आगे बढ़ रहे हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया पर उनकी हालिया आक्रामकता मुझे बहुत अच्छी लगी। अखिलेश जी को यह याद रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के चुनाव का मुद्दा परशुराम या ‘ब्राह्मणों का उत्पीड़न’ या मंदिर नहीं, बल्कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के हाशिए पर धकेला जाना है। बहुजन समाज के ये समूह आपकी प्रतिक्रिया मांग रहे हैं। अपने अभियान में सामाजिक न्याय के महत्व को नकारें नहीं। आम नागरिक को लाभान्वित करने वाले भूमि और कृषि सुधारों का वादा करना जरूरी है। बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का वादा जरूरी है। यह वादा जरूरी है कि बड़े-बड़े हाईवे लोगों को लूटने का जरिया नहीं बनेंगे।

ईमानदार न कहो

समाजवादी पार्टी शायद उस दिशा में बढ़ कर काम कर रही है जो उन्हें अति पिछड़ों और दलितों के बीच ले जा रही है और यह अच्छी बात है। जहाँ तक बसपा का सवाल है, तो हमें यह भी देखना होगा कि आखिर मीडिया बसपा को क्यों नहीं काउन्ट कर रहा? क्या उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरण बसपा को नहीं भा रहे? क्योंकि पिछड़े वर्ग के जो भी नेता अभी भाजपा में आने के बाद सपा में जा रहे है वे मूलतः मान्यवर कांशीराम के साथ जुड़े थे। लेकिन लगता है अब वे पिछड़े वर्ग की राजनीति कर रहे हैं और दलितों का नेतृत्व नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के नेता बसपा की बजाय सपा में जाना ज्यादा सहज महसूस कर रहे हैं।  यह ज्यादा खतरनाक स्थिति है क्योंकि बहुजन शब्द के व्यापक परिप्रेक्ष्य को उत्तर भारत में परिचय कराने वाली पार्टी बसपा है। बसपा नेतृत्व को बहुत आत्म मंथन करना होगा क्योंकि चुनाव परिणामों के बाद ही 2024 के लिए पार्टियों की स्थिति और ताकत का पता चल जाएगा।

उत्तर प्रदेश चुनाव साबित करेगा कि मंडल कमंडल से ज्यादा ताकतवर है या नहीं। सामाजिक न्याय की ताकतों को हाथ मिलाने, एक साथ आने और उन लोगों को हराने की जरूरत है जो लोगों को दबाने और अपने जातिगत वर्चस्व को बनाए रखने के लिए धर्म का इस्तेमाल करते हैं। लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए, हमें सफल होने के लिए सामाजिक न्याय की ताकतों की आवश्यकता है लेकिन यह कोई आसान कदम नहीं है। चीजें इतनी सरल नहीं हैं, जितनी बताई जा रही हैं, इसलिए सभी राजनीतिक दलों को समझदारी से व्यवहार करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सड़क पर या मुहल्लों में आपसी मतभेदों पर गाली-गलौज न करें। चुनाव के बाद की परिस्थितिया कैसी होंगी यह कोई नहीं जानता फिर भी प्रदेश में सामाजिक न्याय की शक्तियों की पूर्ण बहुमत वाली सरकार हो तो इससे बेहतर कोई बात नहीं हो सकती। फिर भी हरेक परिस्थिति को ध्यान में रखकर बात रखें ताकि यदि सपा, बसपा और काँग्रेस को भी देश हित मे कुछ वर्षों तक साथ-साथ आना पड़े तो सभी के लिए बेहतर होगा।

अच्छी बात यह है कि अखिलेश यादव ने एक बात बेहद मजबूती के साथ कही है और वो है कि समाजवादियों और अम्बेडकरवादियों के साथ आने से उत्तर प्रदेश में उनकी स्थिति बहुत मजबूत हो गई है। अखिलेश जितना अधिक बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांतों पर चलेंगे, मैं ये दावे के साथ कह रहा हूँ, उतना ही वह बहुजन समाज के प्रबुद्ध भारत के सपने को साकार करेंगे। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज के अनेकों समूहों, समाजवादियों और अम्बेडकरवादियों के साथ आने का मतलब है, देश में 2024 की लड़ाई की रूपरेखा तैयार हो रही है।

उत्तर प्रदेश और देश में बहुजन मिशन के लिए जरूरी है उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की सफलता। यदि उत्तर प्रदेश में तमिलनाडु की तर्ज पर पक्ष-विपक्ष की राजनीति होगी तो बहुजन आंदोलन मजबूत होगा और जनता के प्रश्न मजबूती से उठेंगे।  जैसे तमिलनाडु में राजनीति के केन्द्र-बिन्दु में पेरियार की विचारधारा है, वैसे ही उत्तर प्रदेश में बाबा साहब अंबेडकर-फुले-पेरियार के विचारों को लेकर सपा बसपा को मुख्य पार्टी बनना पड़ेगा, ताकि धर्म के नाम पर काम करने वाले पहले की तरह हाशिए पर चले जाएँ और जनता के मूल मुद्दों पर ध्यान दिया जा सके। ध्यान रहे, भारत का सही विकास बाबा साहेब के संविधान के आधुनिक मूल्यों से होगा न कि संस्कृति के नाम पर दकियानूसी परम्पराओं को ढोते रहने से। धर्म लोगों के व्यक्तिगत आस्था का प्रश्न रहे और बच्चों में बचपन से वैज्ञानिक चिंतन और मानववादी सोच का विस्तार किया जाए ताकि आपसी प्रेम बढ़े और सौहार्द्र कायम हो। भारत की एकता और अखंडता यहा की विविध भाषा संस्कृति का सम्मान और उनको समान रूप से बढ़ाकर एवं संवेधानिक मूल्यों को आत्मसात करके ही संभव है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम भारत के लिए दूरगामी साबित होंगे और हमें विश्वास है कि इनके नतीजों से जनता में लोकतंत्र के प्रति विश्वास बढ़ेगा। सामाजिक न्याय की सभी शक्तियों के साथ आने का समय है लेकिन अभी भी बहुत ध्यान से चलने की जरूरत है। अपने काडर को मजबूत करें, लोगों को पोलिंग बूथ तक ले जाएँ और जनता को अच्छे प्रत्याशी दें। ध्यान रखिएगा, लोगों का ध्यान भटकाने के प्रयास होंगे और इसलिए अभी पूरी गंभीरता गाँव-गाँव में इस संदेश की पहुँच होनी चाहिए कि बदलाव संभव है और यदि लोग वोट देंगे तो दुनिया बदलेगी। सांप्रदायिक और जातीय ध्रुवीकरण के हर प्रयास को विफल करना होगा और उसके लिए अफवाहों से सावधान रहने और कार्यकर्ताओं को उत्तेजित होकर सड़क छाप गाली-गलौज की भाषा से सावधान करने की जरूरत है।  टी वी पर दलाल पत्रकार जान-बूझकर बहस में  फँसाएंगे। आपके मुंह में बातें डालेंगे इसलिए उनसे बचने की जरूरत है और उनलोगों को ही वहाँ भेजें जो अच्छे से होमवर्क करके जाएँ और मजबूती से अपनी बात रखें। किसानों, दलितों, महिलाओं, युवाओं, दलित पिछड़ों के आरक्षण के प्रश्न पर बातों को मजबूती से और अपने एजेंडे के साथ रखने की जरूरत है ताकि लोगों को पता चल सके कि आपके पास उनके लिए क्या है। केवल नकारात्मक और आलोचनात्मक अभियान से सफलता नहीं मिल सकती। एक स्वस्थ लोकतान्त्रिक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष भारत की मजबूती के लिए आवश्यक है वर्तमान पूंजीपरस्त नीतियों का फुले-अंबेडकर-पेरियार द्वारा दिया गया समाजवादी विकल्प। यदि  उत्तर प्रदेश के सामाजिक न्याय की ताकतें वर्तमान पूंजीपरस्त नीतियों का समाजवादी विकल्प दे पाई तो यह देश के लिए शुभ संकेत होगा और दूसरे प्रदेशों में भी अम्बेडकरी-वामपंथी-समाजवादी ताकतें मजबूत होंगी और देश को एक नई दिशा देंगी।

विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।

गाँव के लोग
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