आज भगत सिंह का शहादत दिवस है और डॉ. राम मनोहर लोहिया का जन्मदिवस। भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था और डॉ. लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को। यानी भगत सिंह से तीन साल छोटे थे डॉ. लोहिया। लेकिन उनके मन में भगत सिंह के लिए इतना आदर था कि वे अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे। वजह साफ थी कि जिस दिन भगत सिंह की शहादत हुई थी उसी दिन उनका जन्मदिन पड़ता था। यह था भारत के स्वाधीनता संग्राम की गांधीवादी धारा और क्रांतिकारी धारा में एक दूसरे के लिए सम्मान। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो एक ओर भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की धारा के साथ भी जुड़े थे और दूसरी ओर गांधी की अहिंसक धारा का भी आदर करते थे। इनमें माखनलाल चतुर्वेदी और गणेश शंकर विद्यार्थी के साथ बाबू राव विष्णु पराड़कर का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
भगत सिंह ने अपने महज 23 वर्ष के जीवन में सर्वोच्च बलिदान तो किया ही अपने पंजाब के किसान आंदोलन, उसके राजनीतिक उभार और देश के अन्य नेताओं के मूल्यांकन के साथ गांधी के आंदोलन का भी सम्यक मूल्यांकन करने की दृष्टि प्रदान की है। गांधी और भगत सिंह में गहरी शत्रुता देखने वालों को भगत सिंह के उन विचारों को पढ़ना और समझना चाहिए जिसे वे गांधी के आंदोलनों का मूल्यांकन करते हुए व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने गांधी के बारे में कहा,`गांधी एक दयालु मानवतावादी व्यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक तब्दीली नहीं आती। उसके लिए वैज्ञानिक और गतिशील सामाजिक शक्ति की जरूरत होती है।’
इस मूल्यांकन को आगे बढ़ाते हुए 2 फरवरी 1931 को वे अपने लंबे लेख में कहते हैं,`हमें कांग्रेस आंदोलन की संभावनाओं, पराजयों व उपलब्धियों संबंधी किसी किस्म का भ्रम नहीं होना चाहिए। आज के आंदोलन को गांधीवाद कहना ठीक है, इसका तरीका अनूठा है लेकिन इसके विचार बेचारे लोगों के किसी काम के नहीं हैं। गांधीवाद साबरमती के संत को स्थायी शिष्य नहीं दे पाएगा।’ गांधीवाद के प्रति कड़ी टिप्पणी के बावजूद भगत सिंह गांधी के आंदोलन से भारतीय समाज में होने वाली जनजागृति को खारिज नहीं करते और वे उसमें एक क्रांतिकारी संभावना भी देखते हैं।
भगत सिंह की यह टिप्पणी जो शायद एक निष्कर्ष के तौर पर की गई लगती है विशेष तौर पर ध्यान देने लायक है। वे जनांदोलनों के पक्ष में गांधीवाद का यथार्थवादी मूल्यांकन करते हुए कहते हैं,`इस तरह गांधीवाद अपने भाग्यवादी मत के बावजूद क्रांतिकारी विचारों के करीब पहुंचने की कोशिश करता है क्योंकि यह जनकार्यवाही पर निर्भर करता है, चाहे यह कार्यवाही जनता के लिए नहीं है।’
भगत सिंह ने विपिन चंद्र पाल द्वारा स्थापित और अरविंद घोष द्वारा संपादित ‘वंदेमातरम’ अखबार में 1931 में कई किस्तों में लेख लिखकर यह दर्शाया कि स्वाधीनता संग्राम में पंजाब राजनीतिक रूप से क्यों पिछड़ा हुआ था और फिर किस प्रकार उसका राजनीतिक उभार हुआ और फिर उसने बढ़-चढ़ कर योगदान दिया। पंजाब के राजनीतिक रूप से पिछड़ेपन के प्रमाण के तौर पर उन्होंने पंजाब के भूतपूर्व गवर्नर माइकल ओ डायर की पुस्तक `इंडिया एज आई सॉ’ का उल्लेख किया है।
भगत सिंह 1907 के आस-पास पंजाब में राजनीतिक चेतना का उभार देखते हैं और उसकी वजह थी नया कॉलोनी एक्ट। ब्रिटिश सरकार ने एक ओर गन्ने की खेती का लगान तीन गुना कर दिया तो दूसरी ओर ऐसा कानून बनाया कि हर व्यक्ति की जायदाद का वारिस केवल उसका बड़ा लड़का हो सकता था। अगर वह मर जाए तो जायदाद उसके छोटे लड़कों को नहीं मिल सकती थी। बल्कि उस पर सरकार का अधिकार हो जाता था। कोई व्यक्ति जमीन पर खड़े पेड़ों को काट नहीं सकता था। वह दातुन के लिए भी लकड़ी नहीं तोड़ सकता था। वह जमीन पर सिर्फ खेती कर सकता था और उस पर न तो मकान बना सकता था और न ही झोपड़ी वगैरह बना सकता था। यह तरीका पंजाब में बड़े जमींदार और निर्धन कास्तकार पैदा करने का था। सरकार के इन कानूनों का विरोध पंजाब में शुरू हो गया।
इसी दौरान 1906 में कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ और दादा भाई नौरोजी उसके सभापति थे। लेकिन वहां लोकमान्य तिलक का बोलबाला था। तिलक के विचारों से प्रभावित होकर पंजाब लौटे दो युवकों ने लाहौर में `भारत माता’ अखबार की स्थापना की। इनमें एक थे भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह और दूसरे थे भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह। इन्हीं युवकों ने लाला पिंडीदास, लाला लालचंद फलक और डॉ. ईश्वरी प्रसाद के साथ मिलकर `भारत माता सोसायटी’ बनाई जिसका एक नाम `अंजुमन महिब्बताने वतन’ भी था। यह सभा किसानों को जगाने और लगानबंदी के काम में लग गई।
भगत सिंह लिखते हैं कि इन्हीं दिनों भारत माता सोसायटी के साथ एक उच्चकोटि के देशभक्त राजनीतिक और लेखक प्रविष्ट हुए जिनका नाम था सूफी अंबाप्रसाद। वे सरदार अजीत सिंह के काफी करीबी हो गए और उन लोगों ने लायलपुर के पशुमेले में जाकर किसानों को जगाने का काम किया। उस मेले में सरदार अजीत सिंह के साथ लाला लाजपत राय भी गए और उन दोनों का जोरदार भाषण हुआ।
लायलपुर की उस सभा का वर्णन करते हुए भगत सिंह लिखते हैं, `एक जो छोटे-छोटे भाषणों के पश्चात सरदार अजीत सिंह का भाषण हुआ। आप बहुत ही प्रभावशाली व्याख्यानदाता थे। आप की निर्भीक भाषण शैली ने जनता को आपका भक्त बना दिया। सरदार अजीत सिंह के पश्चात लाला लाजपतराय भाषण देने के लिए उठे। लाला जी पंजाब के बेजोड़ भाषणकर्ता थे। उस दिन वे जिस शान, जिस निर्भीकता और निश्चयात्मक भावनाओं के साथ बोले उसकी बात ही कुछ निराली थी। लाला जी के भाषण की एक-एक लाइन पर तालियां बजती थीं और जय के नारे लगते थे। सभा के पश्चात बहुत सारे व्यक्तियों ने अपने को देश का कार्य करने हेतु अर्पित करने की घोषणा की।’
इसी सभा में पुलिस की नौकरी छोड़कर आंदोलन में शामिल हुए संपादक बांके दयाल ने एक मार्मिक कविता पढ़ी, पगड़ी संभाल ओ जट्टा। इस कविता में किसानों के शोषण की व्यथा है। यह कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि आंदोलन का नाम ही पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन पड़ गया। इस दृश्य का वर्णन भगत सिंह ने इस प्रकार किया है, ‘लाला जी के भाषण के बाद श्री बांकेदयाल जी ने एक बहुत प्रभावशाली नज्म पढ़ी जो बाद में अत्यंत लोकप्रिय हो गई। यह नज्म पगड़ी संभाल ओ जट्टा थी। इस दिन नज्म पढ़कर जब वे मंच से उतरे तो भारत माता सोसायटी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें गले से लगा लिया।’
इसी सिलसिले में पंजाब में सभाओं का सिलसिला चल निकला, किसान जागने लगे और इससे सरकार घबरा गई और लाला लाजपत राय और अजीत सिंह को देश निकाला देकर देशद्रोह के आरोप में वर्मा के मांडले जेल में कैद कर दिया गया।
इसके बाद सरदार अजीत सिंह दिसंबर 1907 में सूरत कांग्रेस में हिस्सा लेने गए और उन्हें लोकमान्य तिलक ने किसानों का राजा कह कर एक ताज पहनाया। उनके साथ सूफी अंबाप्रसाद भी थे। बाद में जब अजीत सिंह को पता चला कि सरकार उन पर और कार्रवाई की तैयारी कर रही है तो वे कराची से जहाज में सवार होकर अंबा प्रसाद जी के साथ ईरान चले गए। वे तमाम देशों में घूमते रहे और भारत तभी लौट कर आए जब देश आजाद हो गया। वे चाहते थे कि भगत सिंह भारत से निकल कर विदेश आ जाएं और भगत सिंह निरतंर अपने चाचा की खोज करते रहते थे। अजीत सिंह 18 वर्षों तक ब्राजील में रहे और जब भारत आजाद हुआ तो वे जर्मनी की जेल में कैद थे। उन्हें छुड़ाने के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू को हस्तक्षेप करना पड़ा। देश लौट कर वे अंतरिम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिले भी।
भगत सिंह अपनी जिंदगी में एक शेर हमेशा पढ़ते रहते थे,
‘काश ! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते ,
यूँ सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या !’
शहीद भगत सिंह आजादी की जीत को नहीं देख पाए लेकिन उनके चाचा अजीत सिंह आजादी की रात भारत आ गए थे, उन्होंने आजादी की रात देख ली थी।
आज जब हम पंजाब के किसान आंदोलन की ओर देखते हैं तो पाते हैं कि उसमें एक ओर भगत सिंह के विचारों की अनुगूंज सुनाई पड़ती है तो दूसरी ओर समय-समय पर वे गांधी के जनांदोलन की रणनीति पर भी विचार करते हुए दिखाई देते हैं। दरअसल भगत सिंह, गांधी और उनके अनुयायियों का रास्ता सच्चाई और न्याय का ही है। जाहिर सी बात है उसमें झूठ और अन्याय का विरोध सन्निहित है। आज भगत सिंह की शहादत का स्मरण क्या भारत और उसकी लोकतांत्रिक चेतना को फिर से जागृत कर पाएगा?