जो लोग लालू प्रसाद को ‘ललुआ’ कहकर संबोधित करते हैं और गर्व की अनुभूति करते हैं, उनमें से कुछेक लोग मेरी आलोचना भी करते हैं कि मैं लालू प्रसाद के मामले में पक्षपातपूर्ण लेखन करता हूं। हालांकि मैं यह स्वीकार जरूर करता हूं कि मैं लालू प्रसाद के बारे में अक्सर लिखा करता हूं। और […]
जो लोग लालू प्रसाद को ‘ललुआ’ कहकर संबोधित करते हैं और गर्व की अनुभूति करते हैं, उनमें से कुछेक लोग मेरी आलोचना भी करते हैं कि मैं लालू प्रसाद के मामले में पक्षपातपूर्ण लेखन करता हूं। हालांकि मैं यह स्वीकार जरूर करता हूं कि मैं लालू प्रसाद के बारे में अक्सर लिखा करता हूं। और चूंकि मेरे पास लालू प्रसाद से जुड़ी अनेकानेक सामग्रियां हैं, जिनका अध्ययन मैं करता रहता हूं तो मुझे आसानी भी होती लिखने में।
वैसे मैं यह हमेशा मानता हूं कि ऍबसोल्यूट निष्पक्षता मुमकिन नहीं है। यह वही कर सकता है जो एकदम बाहरी हो। हालांकि उसकी निष्पक्षता पर भी सवाल उठेंगे ही क्योंकि यदि कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष संबंध नहीं भी रखे तो भी विचार के मामले में वह प्रभावित जरूर हो सकता है। एक उदाहरण हैं ज्योफ्री विट्सो। ये वर्तमान में सिनेक्टेडी यूनियन कॉलेज, न्यूयार्क में एंथ्रोपोलॉजी विभाग में पदस्थापित हैं। इनकी चर्चा इसलिए कि इन्होंने बिहार के बारे में एक महत्वपूर्ण शोध तब किया जब लालू प्रसाद का शासन था। इनका शोध एक किताब के रूप में प्रकाशित है– डेमोक्रेसी अगेंस्ट डेवलपमेंट।
खैर, आज लालू प्रसाद का उल्लेख इसलिए कि कल इनका जन्मदिन है। एक वजह यह भी कि हम दलित-पिछड़े-आदिवासी दस्तावेजीकरण के मामले में बहुत पीछे हैं। जबकि यह बेहद जरूरी है कि हम दस्तावेजीकरण के विभिन्न आयामों को समझें और करें। अब लालू प्रसाद के बारे में द्विज तो कुछ सहेजने से रहे। हालांकि उन्होंने यह जरूर सहेजा है कि लालू प्रसाद में खामियां क्या-क्या रहीं। अनेक ने तो उन्हें बिहार का खलनायक ही बना दिया है।
मेरी जेहन में एक घटना है। यह घटना 26 मार्च, 1990 को जहानाबाद के घोषी थाना के लखावर गांव में घटित हुई थी। हालांकि यह एक नरसंहार था, जिसमें पांच लोग मारे गए थे। मरनेवाले सभी यादव जाति के थे और मारनेवालों में भी 90 फीसदी यादव ही थे। इस नरसंहार की प्राथमिकी नगीना प्रसाद यादव द्वारा दर्ज करायी गयी थी। इसमें जिन 23 अभियुक्तों को नामजद बनाया गया था, उनमें सजीवन यादव, उमेश राय, अवधेश यादव, विजेंद्र यादव, राम उदित यादव, राजनंदन यादव, रामेश्वर यादव, रामसेवक पासवान, अंबिका पासवान, महेश पांडेय, मुनारिक यादव, सत्यनारायण यादव आदि शामिल रहे।
इस नरसंहार की पृष्ठभूमि के बारे में लालू प्रसाद ने 28 मार्च, 1990 को बिहार विधानसभा में जानकारी दी थी। उन्होंने बताया था कि इस घटना के मास्टरमाइंड जगदीश शर्मा थे, जो कि वहां के विधायक थे। चुनावी लाभ के लिए उन्होंने लोगों पर दबाव बनाने के लिए गुंडे भेजे थे। अपने इसी संबोधन में लालू प्रसाद ने दो बातें कही थीं। पहली यह कि हमारा निर्णय सेक्रेटेरियट में बैठकर नहीं होना चाहिए और दूसरी यह कि हथियार का लाइसेंस का आधार केवल आर्थिक नहीं होगा तथा अब सभी गरीब-मजलूम जो बेदाग होंगे, उनको दिया जाएगा।
तो यह थे लालू प्रसाद उस समय जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। शायद यही वजह रही होगी, जिसने अमरीकी शोधकर्ता ज्योफ्री विट्सो को प्रभावित किया होगा। ज्योफ्री ने पटना के निकट कोईलवर एक गांव में रहकर अपना अध्ययन पूरा किया। उनकी किताब डेमोक्रेसी अगेंस्ट डेवलपमेंट को एक आधार ग्रंथ माना जाना चाहिए, जिसके आधार पर 1990 के बाद बिहार में हुए राजनीतिक और सामाजिक बदलाव को जाना-समझा जा सकता है।
[bs-quote quote=”ज्योफ्री डेवलपमेंट का अर्थ सामने रखते हैं। वे आधारभूत संरचनाओं यानी सड़क और पुल आदि के निर्माण को विकास की परिधि में रखते तो हैं, लेकिन तवज्जो नहीं देते। उनके लिए सामाजिक विकास की अलग अवधारणा है जो उन्होंने बिहार की राजधानी पटना के नजदीक एक गांव में रहकर महसूस किया और फिर उसे कलमबद्ध किया। उन्होंने यह लिखा है कि लालू प्रसाद के राज में किस तरह से मूक समाज ने हुंकार भरना सीखा। पिछड़े वर्ग की जातियों में राजनीतिक चेतना का उभार इस तरह हुआ कि सभी सत्ता में हिस्सेदार बने। फिर 1979 में कर्पूरी ठाकुर के आरक्षण के कारण अति पिछड़ा वर्ग भी आगे बढ़कर अपना हक लेने को आगे बढ़ा। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मुझे स्मरण है कि जब पहली बार इस किताब की चर्चा मेरे समक्ष पटना के वरिष्ठ पत्रकार और अब तो नीतीश कुमार के खासमखास श्रीकांत जी ने की थी तब इसके शीर्षक से मेरा मन खट्टा हो गया था। वजह यह कि डेमोक्रेसी डेवलपमेंट के खिलाफ कैसे संभव है। लोकतंत्र का मकसद ही विकास है। राजतंत्र को विकास का विरोधी कहा जा सकता है जिसमें आमजनों की भागीदारी नहीं होती है। लेकिन लोकतंत्र में तो हर आदमी का महत्व है। लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में राज्य की जो परिभाषा होती है, उसके मुताबिक वह लोककल्याणकारी ही होता है।
फिर ज्योफ्री विट्सो ने डेमोक्रेसी अगेंस्ट डेवलपमेंट क्यों कहा? इच्छा थी कि इस किताब को पढ़कर कुछ समझा जाय। बहुत दिनों बाद इसके कुछेक अध्याय पढ़ने को मिले। यह किताब तो अलहदा है। ज्योफ्री डेवलपमेंट का अर्थ सामने रखते हैं। वे आधारभूत संरचनाओं यानी सड़क और पुल आदि के निर्माण को विकास की परिधि में रखते तो हैं, लेकिन तवज्जो नहीं देते। उनके लिए सामाजिक विकास की अलग अवधारणा है जो उन्होंने बिहार की राजधानी पटना के नजदीक एक गांव में रहकर महसूस किया और फिर उसे कलमबद्ध किया। उन्होंने यह लिखा है कि लालू प्रसाद के राज में किस तरह से मूक समाज ने हुंकार भरना सीखा। पिछड़े वर्ग की जातियों में राजनीतिक चेतना का उभार इस तरह हुआ कि सभी सत्ता में हिस्सेदार बने। फिर 1979 में कर्पूरी ठाकुर के आरक्षण के कारण अति पिछड़ा वर्ग भी आगे बढ़कर अपना हक लेने को आगे बढ़ा।
ज्योफ्री ने लालू प्रसाद के शासनकाल को पिछड़ों की राजनीति के लिहाज से स्वर्ण युग माना है। वे आंकड़ों और आंखों-देखी तथ्यों का अद्भुत तरीके से उल्लेख कर इसे साबित भी करते हैं। लेकिन वे यह भी कहते हैं कि राजनीतिक चेतना के विकास की एक सीमा है। इसके बावजूद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कि लालू प्रसाद के समय में डेमोक्रेसी जनता के खिलाफ नहीं थी, मानवता के खिलाफ नहीं थी।
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
[…] अलबेले लालू प्रसाद (डायरी 10 जून, 2022) […]