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महिलाओं के शब्द (डायरी 9 जून, 2022)

यदि भारत के ब्राह्मणवादी दार्शनिकों, जिनकी मान्यताएं अवैज्ञानिक रही हैं, को छोड़ दें तो लगभग सभी ने यह कहा है कि सृष्टि के निर्माण में किसी ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। कार्ल मार्क्स ने तो यहां तक कहा है कि ईश्वर को पैदा ही साजिश के तहत किया गया है। कार्ल मार्क्स जिस साजिश […]

यदि भारत के ब्राह्मणवादी दार्शनिकों, जिनकी मान्यताएं अवैज्ञानिक रही हैं, को छोड़ दें तो लगभग सभी ने यह कहा है कि सृष्टि के निर्माण में किसी ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। कार्ल मार्क्स ने तो यहां तक कहा है कि ईश्वर को पैदा ही साजिश के तहत किया गया है। कार्ल मार्क्स जिस साजिश की बात यहां कह रहे हैं, वह शोषण की व्यवस्था को बनाने से लेकर बनाए रखने की साजिशें हैं। इसे न केवल भारतीय दर्शन के हिसाब से समझा जा सकता है, बल्कि दुनिया भर के धर्म, जिनमें ईश्वर की अवधारणा है, के संदर्भ में समुचित टिप्पणी मानी जाएगी।

दरअसल, सब कुछ बनाया गया है या कहिए कि पैदा किया गया है। कैसे बनाया गया, यह तो चार्ल्स डार्विन ने अपने सिद्धांतों से साबित किया है, जिसमें जैव विकास के विभिन्न आयामों की चर्चा है। लेकिन मैं तो आज एक शब्द के बारे में सोच रहा हूं। यह शब्द है- वात्सल्य कुंभ। यह शब्द जामिया मिल्लिया इस्लामिया की हिंदी की प्रोफेसर हेमलता महिश्वर ने दो दिन पहले अपने फेसबुक पर शेयर किया है। उनके मुताबिक, यह शब्द छाया कोरेगांवकर का है, जिसे उन्होंने स्तन शब्द का पर्याय बताया है। साथ ही प्रो. महिश्वर ने एक खास टिप्पणी की है- यह स्त्री ही लिख सकती है। स्त्री लेखन इसलिए महत्वपूर्ण है। नए शब्द, नई उपमा यानी एक नया साहित्य संसार… आहा!

[bs-quote quote=”असल में हम पुरुष जब महिलाओं के लिए उपयोग किये जानेवाले शब्दों पर विचार करते हैं तो अक्सर एकांगी ही सोचते हैं। यह नहीं सोचते कि महिलाएं क्या सोचती हैं। अच्छा इस मामले में एक बात और है कि महिलाएं भी बहुत कम विचार करती हैं कि उनके लिए जो शब्द उपयोग में लाया जा रहा है, वह क्या है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

निस्संदेह यह बेहद महत्वपूर्ण है कि महिलाएं लेखन करें और यह मैं केवल हिंदी साहित्य के लिहाज से नहीं कह रहा, वरन् सभी भाषा-भाषी महिलाएं आगे आएं। अभी कुछ ही दिन पहले यह जानकारी मिली कि मेरे गृह राज्य बिहार के भागलपुर जिले की लेखिका डॉ. संयुक्ता भारती इन दिनों सावित्रीबाई फुले की कविताओं का अंगिका में अनुवाद कर रही हैं। हालांकि मैंने हिंदी में इन कविताओं को पढ़ा है, लेकिन मेरी दिलचस्पी इसमें है कि जब खड़ी हिंदी के शब्द अंगिका में बदले जाएंगे तो वे कैसे होंगे। अब इस मामले में दो बातें खास हैं। पहली तो यह सावित्रीबाई फुले ने अपने हिसाब से शब्दों का चयन किया और उन्हें अपनी कविताओं में दर्ज किया। अब उनकी कविताओं का अंगिका में अनुवाद एक महिला कर रही हैं, तो उनके शब्दों में मर्दानापन नहीं होगा, जो कि मुझे सावित्रीबाई फुले की कविताओं के हिंदी अनुवाद में दीख जाता है। उसमें असंगतियां भी हैं।

खैर, मैं हेमलता महिश्वर के पोस्ट में उल्लेखित छाया काेरेगांव के शब्द पर विचार करता हूं। मैं अपनी ओर से कोई शब्द नहीं सोचना चाहता। मैं तो बस यह सोच रहा हूं कि एक महिला यदि अपने अंगों के बारे में सोचे तो वह क्या और कैसे सोचेगी। चूंकि वर्तमान में जो शब्द महिलाओं के अंगों के लिए उपयोग में लाए जाते हैं, उनमें अनेक प्रकार की विसंगतियां हैं। कुछ शब्द तो सीधे-सीधे अपशब्द लगते हैं। लेकिन यह मेरा नजरिया हो सकता है।

अब एक उदाहरण देखिए। वर्ष 1964 में एक फिल्म आयी थी- दूज का चांद। वैसे मेरी पैदाइश 1980 के दशक की है और मैंने पहली बार इस फिल्म का एक गाना रेडियो पर तब सुना था जब बोर्ड की परीक्षाएं होनेवाली थीं और पढ़ने के दौरान नींद को दूर रखने के लिए रेडियो का उपयोग किया करता था। गाने के बोल थे- फूल गेंदवा ना मारो, लगत करेजवा में चोट…। मैंने पहली बार जब यह गाना सुना तो करेजवा शब्द का मतलब दिल ही लगा। हालांकि यह बिंब बड़ा अनोखा है। अब कोई गेंदा का फूल फेंक कर मारे तो चोट कैसे लग सकती है। लेकिन चोट तो लगेगी ही। बात तब आयी-गयी हो गई।

लगत करेजवा में चोट… फिर दूसरी बार मेरे संज्ञान में तब आया जब एक डॉक्युमेंट्री देखी। तब मैं कॉलेज की पढ़ाई से खुद को मुक्त कर चुका था और पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ लिखने-पढ़ने की कोशिशें कर रहा था। उस डॉक्यूमेंट्री की निर्माता कोई महिला थीं। अब तो उस डॉक्यूमेंटी का नाम भी याद नहीं। लेकिन उसका विषय इतना महत्वपूर्ण था कि आजतक मेरी जेहन में है। वह बनारस में कोठे पर गानेवाली महिला गायिका रसूलनबाई की कहानी है। डॉक्यूमेंट्री में उनकी पोती या फिर परपोती है, जिसके पास रसूलनबाई जैसी आवाज भले ना हो, लेकिन मधुर आवाज है। वह बताती हैं कि यह ठुमरी के बोल हैं– फूल गेंदवा ना मारो, लगत करेजवा में चोट…। इसी डॉक्यूमेंट्री में वह बताती हैं कि पहले इसके बोल थे- फूल गेंदवा ना मारो, लगत जोबनवा में चोट…। डॉक्यूमेंट्री में यह तलाश की गयी है कि जोबनवा को करेजवा में कैसे और किसने बदला।

कुल मिलाकर इस डॉक्यमेंट्री में बताया यह गया है कि संस्कृति के ध्वजवाहक पुरुषों ने जोबनवा को करेजवा में बदल दिया। फिर तो जब 1964 में मन्ना डे की आवाज में यह गाने की शक्ल में आया तब इस पर मुहर ही लगा दी गयी कि जोबनवा जैसा कुछ था ही नहीं।

असल में हम पुरुष जब महिलाओं के लिए उपयोग किये जानेवाले शब्दों पर विचार करते हैं तो अक्सर एकांगी ही सोचते हैं। यह नहीं सोचते कि महिलाएं क्या सोचती हैं। अच्छा इस मामले में एक बात और है कि महिलाएं भी बहुत कम विचार करती हैं कि उनके लिए जो शब्द उपयोग में लाया जा रहा है, वह क्या है। हालांकि यह संभव है कि कुछ महिलाएं सोचती भी होंगी, जैसे कि छाया कोरेगांवकर ने सोचा और जिसे हेमलता महिश्वर ने साझा किया। लेकिन इस विषय पर केवल एक शब्द के उदाहरण से बात नहीं बनेगी।

यह बात मैं इसके बावजूद कर रहा हूं कि ‘वात्सल्य कुंभ’ शब्द से मेरी असहमति है। इस शब्द से महिलाओं के एक ही पक्ष की अभिव्यक्ति होती है। मैं रसूलनबाई की ठुमरी में उपयोग किए गए मूल शब्द ‘जोबनवा’ और ‘करेजवा’ के संदर्भ में देख रहा हूं।

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बहरहाल, महिलाएं आगे आएं और शब्दों को बदलें। इसी बहाने अनेक शब्दों से हमारी भाषाएं समृद्ध होंगी। महिलाएं सशक्त होंगी और यह समाज वाकई में एक खूबसूरत समाज बनेगा।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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