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कुछ और कम हुआ बनारस, जस की तस धर दीनी चदरिया, नहीं रहे अलकबीर

वाराणसी। ‘जीवन का यह एक नजरिया, भिगो ना पाये मय का दरिया, साकी तेरे दर की गुजरिया, जस की तस धर दीनी चदरिया’। इस शायरी के शायर अलकबीर आज सुबह इस दुनिया को अलविदा कह देह की चादर को जस की तस धर-सहेज कर चले गए। बनारस के जाने-माने शायर और ‘गाँव के लोग’ पत्रिका […]

वाराणसी। ‘जीवन का यह एक नजरिया, भिगो ना पाये मय का दरिया, साकी तेरे दर की गुजरिया, जस की तस धर दीनी चदरिया’। इस शायरी के शायर अलकबीर आज सुबह इस दुनिया को अलविदा कह देह की चादर को जस की तस धर-सहेज कर चले गए। बनारस के जाने-माने शायर और ‘गाँव के लोग’ पत्रिका के प्रबंध संपादक रहे अलकबीर का इंतकाल बनारस की रंगत को कुछ और फीका कर देने वाले आघात की तरह है। 76 वर्षीय अलकबीर ने जगतगंज स्थित अपने आवास पर आज अंतिम साँस ली। अलकबीर के इंतकाल की ख़बर सुनते ही साहित्य जगत के साथ उनके चाहने वालों की आँखें नम हो गईं। वह अपने पीछे दो बेटे, एक बेटी और पत्नी का  भरा-पूरा परिवार छोड़ गए।

पन्द्रह अगस्त, 1947 को जन्मे अलकबीर 14 वर्ष की उम्र से ही बनारसी मिजाज और उर्दू अदब की सूफियाना मस्ती में खुद को घोलने लगे थे। यह रंग जब कुछ पुरसअर हुआ तो बड़े दिलकश अंदाज में उन्होंने चाँद को रूमानियत की अदा से निकालकर सूखी रोटी के उस निवाले में बदल दिया जिसे गंगा के पानी में डुबोकर भूख का निवाला बनाया जा सके। वास्तव में अलकबीर थे भी ऐसे ही, जिंदगी के यथार्थ को उन्होंने अपने बनाए प्रतिमानों से ढकने की भरपूर कोशिश की, अलबत्ता समय अधिक क्रूर था बावजूद अपनी सहनशीलता से उसे परास्त करने का भरपूर प्रयास किया। वह ऐसे शायर बन गए जिनकी शायरी का मिजाज रूमानियत के बोसे की मिठास नहीं घोलता था बल्कि आवामी प्रतिरोध के स्पंदन की तरफदारी करता था और हक की राह में हुकूमत को चुनौती देने से भी गुरेज नहीं करता था। उनका जीने का अंदाज और शायरी का मिजाज दोनों में बनारस खूब और खूब धड़कता था। आज जब उनकी धड़कन थम गई है, तब बस ऐसे लग रहा है, जैसे शहर का एक शख्श नहीं, शख्शियत नहीं बल्कि शहर का थोड़ा-सा आयाम कम हो गया है।

शब्द शिल्पी की भूमिका में अलकबीर

यह शहर जब-जब सांप्रदायिक और सामाजिक तौर पर खुरदरा महसूस होता तो अलकबीर की शायरी कभी किसी शिल्पकार की तरह तो कभी किसी सजग पहरेदार की तरह उस खुरदरेपन के खिलाफ खड़ी दिखती थी। जिंदगी जब संघर्ष का लबादा ओढ़कर उनके हिस्से में कठिन धूप सी आती थी, तब भी वह अपनी फिक्र से ज्यादा अपने लोग, अपने शहर और अपने वतन के लिए फिक्रमंद रहते थे। उनके पुराने चाहने वाले उस दौर को भी याद करते हैं जब मुशायरे के मंच पर अलकबीर की शायरी साँझ को एक अलग उजास से भर देती थी। लगभग दस साल पहले गले के कैंसर की वजह से उनकी आवाज ने उनके मिजाज का साथ छोड़ दिया। जिस आवाज से कभी वह ‘महफिल के मुमताज’ हो जाते थे अब वह आवाज इस कदर भी उनका साथ नहीं देती थी कि तरन्नुम से कुछ पढ़ सकें। इसके बाद वह कुछ टूट से गए और शायरी को मंच और महफिल से हटाकर शक्ल-ओ-किताब में बदलने की तैयारी में जुट गए। उनका नज्म संग्रह जल्द ही ‘अगोरा प्रकाशन’ से प्रकाशित होने वाला था पर दुर्भाग्यपूर्ण तौर पर यह सपना उनके जीते जी नहीं पूरा हो सका।

अलकबीर सिर्फ शायर ही नहीं थे बल्कि उनकी एक बड़ी दुनिया थी जो बनारस को अपने कंधे पर लिए हुये दूर तक यात्रा करती थी। उनकी अपनी जिंदगी में दर्द बहुत था पर वह अपने दर्द को कील पर टंगे कोट सा लटकाकर, दहलीज के भीतर छोड़ देते थे और दूसरों के दुख-तकलीफ की निगेहबानी करने निकल पड़ते थे। वह हर किसी को अपना कायल बना लेने का हुनर तो रखते थे पर उससे भी ज्यादा किसी और के लिए हो जाने का दम भी रखते थे।

उनकी शायरी किसी ऋतुचक्र सी थी, जो वक्त को उस अंदाज में परोसती थी जो नए अंकुर उगा सके। उन्होंने खुद को कभी जाति, धर्म की विभाजक रेखा पर चाक नहीं होने दिया। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अलकबीर आज के कबीर थे। नए मूल्य प्रतिमान सँजोते, पुराने दक़ियानूसी ख्यालात को उधेड़ते हुये वह शांति, सद्भावना और समरसता से भरा एक ऐसा समाज रचना चाहते थे जिसमें घृणा की हिस्सेदारी ना हो। ताउम्र उनकी कोशिश यही रही कि वह खुद को बेहतर इंसान बना सकें। बनारस के हर कोने-अँतरे से ही नहीं बल्कि हर अंधेरे-उजाले से भी वह खूब परिचित थे। बनारस के जुलाहों के जीवन के दर्द से दुनिया और समाज को रूबरू कराने के लिए उन्होंने शायरी से इतर भी बहुत कुछ लिखा।

उनके जाने से शहर के तमाम संजीदा लोग और हिन्दी, उर्दू अदब के लेखक  दुखी हैं। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अत्रि भारद्वाज ने बेहद भावुकता के साथ उन्हें अपनी शब्दांजलि देते हुये कहा कि वह एक बेहतरीन शायर तो थे ही उससे भी ज्यादा बेहतरीन इंसान थे। उन्होंने जीवन के उस सच को लिखा जो उन्होंने देखा और जिया। एकता, भाईचारे और सद्भावना के एक बड़े प्रतीक की तरह थे। उनके जाने से सिर्फ साहित्य की ही नहीं बल्कि मेरी निजी छति भी हुई है। मैंने अपना एक अच्छा मित्र खो दिया है। लेखक कमल नयन मधुकर ने भी उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हुये कहा कि अलकबीर इस शहर के अदब की एक शानदार शख्शियत थे। उन्होंने अपनी नज्म और शायरी से शहर को एक नई ऊंचाई बख्शी है। वह ताउम्र बानरस के फक्कड़ी और अलमस्त अंदाज को अपने भीतर समेटे रहे और अपने शेर-ओ-शायरी के माध्यम से तमाम जरूरी मुद्दे उठाते रहे। उनका जाना बहुत ही दुखद है।

यूट्यूब चैनल गाँव के लोग पर अलकबीर का साक्षात्कार

वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्त्ता अशोक आनंद उन्हें एक कर्मठ इंसान के रूप में याद करते हैं और कहते हैं कि वह बहुत ही प्रगतिशील विचारों के इंसान थे। उनके सृजन में प्रतिरोध का एक अलग सा तेवर था और जरूरी प्रतिरोध के लिए वह हमेशा हम सब के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। उनका इंतकाल गहरे शोक का विषय है।

गाँव के लोग की कार्यकारी संपादक अपर्णा ने उन्हें याद करते हुये कहा कि अलकबीरजी का जाना मेरे लिए बहुत बड़ी क्षति है। जब भी उनसे बात होती, पॉजिटिव सलाह देते और भरोसा बनाये रखने को कहते। जब खाली बैठते अपने नए शेर सुनाते। वे उम्दा शायर तो थे ही उससे पहले वे एक बेहतर इंसान थे। उनका धैर्यवान स्वभाव मुझे कहीं न कहीं प्रेरित करता। उनका जाना बहुत ही दुःखद है, उनकी सलाहियत हमेशा ध्यान में रहेगी।

फिलहाल, अब अलकबीर से रूबरू नज्म सुनने का मौका कभी नहीं मिलेगा। वह कई बार निजी तौर पर जिस स्नेह के साथ सलाह देते थे वह भी अब कभी नहीं मिलेगी पर पन्नों की शक्ल पा चुकी उनकी नज्में जिंदगी के तमाम अंधेरे वक्त में किसी नूर की तरह राह रोशन करती रहेंगी। फिलहाल, आज जब दशहरे के दिन वह हम सब को आखरी अलविदा कह गए हैं तब उनकी तमाम नज़्मों के साथ पिछले दशहरे पर लिखी गई उनकी दो लाइनें भी याद आ रही हैं-  ‘सत्य की संगत में जब तू एक लय हो जाएगा, जिंदगी का मरहला, जो कुछ है तय हो जाएगा॥ तू अगर अंदर के रावण के गले को घोट दे, तो देखते ही देखते सब राम-मय हो जाएगा।’

अलकबीर अपने चाहने वालों की स्मृति में हमेशा कीर्तिशेष की तरह रहेंगे। गाँव के लोग परिवार उनके इंतकाल पर गहरे दुख के साथ विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है।

गाँव के लोग
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