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बेसिक शिक्षा विभाग उत्तर प्रदेश : निर्देशों के बोझ से दबे अध्यापक क्या पढ़ा पाएंगे?

विगत वर्षों में प्रदेश की बेसिक शिक्षा प्रणाली में कई ऐसे परिवर्तन हुये हैं जो उसको पतन के रास्ते पर ले जाने के जिम्मेदार हैं। एक दौर था जब बेसिक शिक्षकों ने विद्यार्थियों की मजबूत पीढ़ियों का निर्माण किया लेकिन कान्वेंट और कोचिंग से पढ़कर निकले अफसरों के दिमाग को पूंजी की तेज धार ने ध्वस्त कर दिया और उन्होंने भी बेसिक शिक्षा प्रणाली को अपने फायदे का माध्यम बना लिया। आज उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा विभाग ने अध्यापकों पर डिजिटलीकरण का इतना बोझ डाल दिया है कि वे केवल ऊपर से तय किए मानकों की पूर्ति करने में लग गए हैं। चाहे मिड डे मील हो या नामांकन का लक्ष्य हो अथवा डिजिटल हाजिरी। उन्हें हर हाल में विभाग को भरोसा दिलाना है कि वे अपनी जगह पर चाक-चौबन्द हैं। ऐसे में विद्यार्थियों की पढ़ाई और बौद्धिक विकास लगातार दयनीय हालत में पहुँच गया है।

गर्मी की छुट्टियों के बाद उत्तर प्रदेश में बेसिक शिक्षा विभाग के विद्यालय 24 जून से खुल गए हैं लेकिन अभी केवल शिक्षकों को ही विद्यालय में जाकर साफ-सफाई का काम करवाने, नामांकन बढ़वाने एवं आवश्यक कार्य को पूर्ण करने की जिम्मेदारी दी गई है। यह कार्य उन्हें 7:30 बजे से दोपहर 1:30 बजे के बीच करने हैं। सवाल यह है कि जब स्कूल में बच्चे ही नहीं हैं तो शिक्षकों को 6 घंटे के लंबे अंतराल तक क्यों रोका गया है?  जबकि वे अपने अनुसार यह कार्य तीन से चार घंटे में भी पूरा कर सकते हैं। बहरहाल, इसमें शिक्षकों की मजबूरी है। उन्हें निर्देशों का अनुपालन करना होता है और वे ईमानदारी से निर्वहन भी करते हैं।

बच्चों को 28 जून से विद्यालय आने की सूचना दी गई है। बेसिक शिक्षा अधिकारी के निर्देशानुसार 28 व 29 जून को तालियां बजाकर बच्चों का स्वागत करना है एवं उन्हें मध्याह्न भोजन योजना के अंतर्गत अच्छा पकवान खिलाना है। इस दौरान विद्यालय 7:30 बजे से 10 बजे तक चलेगा। 1 जुलाई से शिक्षा सचिव की नियमावली के अनुसार विद्यालय पुन: प्रात: 8:00 बजे से दोपहर 2:00 बजे तक सुचारू रूप से चलना आरंभ हो जाएगा। इस बीच 28 जून से 15 जुलाई तक ‘स्कूल चलो अभियान’ का कार्यक्रम भी सुचारू रूप से चलाने का निर्देश हुआ है।

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अभी विद्यालय में नामांकन पर जोर दिया जा रहा है जहां 31 मार्च तक कक्षा एक में प्रवेश लेने वाले बच्चों की उम्र 6 वर्ष तक होने का प्रावधान था। अब इसे बढ़ाकर 31 जुलाई तक 6 वर्ष पूरा करनेवाले बच्चों का नामांकन करने का आदेश जारी हो गया है। विभाग में कम नामांकन का होना भी चिंता का विषय बना हुआ है, जिसमें विभिन्न विद्यालयों से शिक्षकों के समायोजन होने की भी आशंका जताई जा रही है। मानक के अनुसार विद्यालय में 30 बच्चों पर एक शिक्षक का होना जरूरी होता है जिन विद्यालयों में अतिरिक्त शिक्षक हैं उनका समायोजन ऐसे विद्यालय में कर दिया जाता है जहां बच्चे अधिक और शिक्षक कम होते हैं।  शिक्षक गांव में घूम-घूम कर ऐसे बच्चों की तलाश कर रहे हैं जिनकी उम्र 6 वर्ष या उससे अधिक है किंतु वे बार-बार निराश होकर लौट आते हैं और नामांकन रजिस्टर पर आंकड़ा स्थिर रह जाता है।

शिक्षकों के लिए एक निर्देश और जारी हुआ है कि 15 जुलाई से विद्यालय में 12 प्रकार के रजिस्टर का डिजिटलिकारण किया जाएगा, जिनमें शिक्षकों को सुबह और दोपहर चेहरा दिखा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करानी पड़ेगी। बच्चों की भी उपस्थिति ऑनलाइन दर्ज होगी। साथ ही मिड डे मील, आय व्यय, नि:शुल्क सामग्री वितरण, खेलकूद, पुस्तकालय निरीक्षण एवं पत्र व्यवहार पंजिका भी ऑनलाइन करने का निर्देश जारी हुआ है। शिक्षकों को चिंता है कि किसी कारणवश थोड़ी देर से पहुंचते हैं तो ऑनलाइन उपस्थिति में अनुपस्थित मान लिए जाएंगे। जबकि यह ज्ञात है कि बेसिक शिक्षा के अधिकतर विद्यालय गांवों एवं दूर-दराज के इलाकों में हैं। कभी-कभी सड़क जाम, तेज बारिश, रेलवे फाटक बंद, आकस्मिक दुर्घटना,  समय से साधन न मिलने  या रास्ते में गाड़ी खराब हो जाने के कारण दस से पन्द्रह मिनट की देरी होना स्वाभाविक बात हो सकती है। ऐसी स्थिति में उनका एक दिन का वेतन काट लिया जाएगा। सरकार की नजर में  शिक्षक समय की चोरी करता है और वह अपने काम के प्रति निकम्मा है, जबकि सच्चाई यह है कि कोई शिक्षक जान-बूझकर विद्यालय पहुंचने में देरी नहीं करना चाहता और वह ऐसे बच्चों की नींव तैयार करता है जिनकी सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक स्थिति बेहद खराब होती है।

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इन सब स्थितियों को देखकर यह अंदाज़ा लगाना बहुत कठिन नहीं है कि बेसिक शिक्षा विभाग शिक्षकों को लेकर लगातार अविश्वास की स्थिति बनाए हुये है। वह शिक्षकों पर अनेक प्रकार की ऐसी बाध्यताएं थोप रहा है जो पढ़ाई के प्रति उनके दायित्व से ज्यादा बात की ओर इशारा करती हैं कि उन्हें अपने विभागीय तंत्र के मन में अपने प्रति भरोसा पैदा करना है। ज़ाहिर है इसके लिए शिक्षक ऐसे सनक भरे और अव्यावहारिक आदेश मानने के लिए विवश किए जा रहे है। यह कहीं से न तो शिक्षकों के हित में है और न ही विद्यार्थियों के हित में।

लेकिन यह किस बात की ओर इशारा करता है? यह बेसिक शिक्षा के प्रति उत्तर प्रदेश सरकार की बदनीयती की ओर इशारा करता है। यह उस विभागीय सड़ांध की तरफ भी इशारा करता है जो बहुजन समाजों से आनेवाले विद्यार्थियों के प्रति मुट्ठी भर अभिजन नियंताओं के मन में भरी है। वे दरअसल उस तंत्र का हिस्सा हैं जो पूरी तरह से बेसिक शिक्षा को पूँजीपतियों के हाथों बेच देना चाहते हैं। उनको शायद यह पता होगा कि जिस तरह की ड्रामेबाजी वे कर रहे हैं वैसा निजी स्कूलों में भी नहीं होती। वास्तव में यह विडम्बना इसलिए कि निजी स्कूलों को मुनाफा और पूँजी से नियंत्रित किया जा रहा है जबकि बेसिक शिक्षा विभाग की सार्वजनिक पूँजी में कई तरह के लुटेरे लगे हुये। शायद इसे ही छिपाने के लिए तरह-तरह की ड्रामेबाजी जरूरी है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या इन सबके बोझ से दबे अध्यापक बच्चों को ठीक से पढ़ा पाएंगे?

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