सद्दीक अली बेहद ज़िंदादिल इन्सान हैं। जब तक उनके जीवन के बारे में गहराई से न जाना जाय तब तक लगेगा कि यह जिंदादिली उनकी ज़िंदगी के सुखों से पैदा हुई है। लेकिन वास्तव में यह उनके कठिन दिनों और संघर्षों से जन्मी है जिसने उन्हें हर आघात से उबरने की कूबत दी है। सद्दीक अली को स्थानीय स्तर पर सभी लोग जानते हैं क्योंकि वह जगम्मनपुर क्षेत्र के सभी सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में न केवल बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करते हैं बल्कि पूरा सहयोग भी करते हैं। उनके दोहों, कविताओं, गज़लों को लोग बेहद शौक से सुनते हैं। स्थानीय साथियों ने उनका यूट्यूब चैनल भी बनाया है।
पंचनदा में मैंने शाह आलम से कहा कि यदि कुछ स्थानीय लोग होंगे तो मै उनसे चम्बल और इस क्षेत्र के विषय में सुनना चाहूँगा। उन्होंने कहा कि अगली सुबह वह मुझे यहाँ के प्रसिद्ध जगम्मनपुर के किले पर ले चलेंगे और फिर कुछ लोगों से बातचीत करेंगे। हम लोग सुबह के समय जगम्मनपुर सब्जी मंडी के पास पहुँच गए और वहाँ एक चाय की दुकान पर बैठ गए। एक छोटी-सी दुकान पर प्लास्टिक की एक कुर्सी पर में बैठ गया। दुकान को देखा तो चाय, गुटका, सिगरेट आदि सामान रखा था। उस समय मुश्किल से 200 रुपये का सामान भी दुकान में नहीं रहा होगा। हमारे वहाँ पहुँचने पर सद्दीक अपनी दुकान पर नहीं थे। मैं वहाँ कुर्सी पर बैठ गया। जगम्मनपुर के बारे में बातचीत होने लगी।
चम्बल को ‘बागियों’ के लिए जाना जाता है लेकिन चम्बल घाटी ने आजादी के आंदोलन में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। यहाँ छोटी-बड़ी बहुत सी रियासतें थीं, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जन विद्रोह में सक्रिय सहयोग किया। जगम्मनपुर दतिया और ग्वालियर राज्यों के बीच एक अर्धस्वतंत्र रियासत थी। यहाँ के राज परिवार सेंगर समुदाय से संबंधित हैं और ऐसा कहा जाता है कि कन्नौज के राजा जयचंद ने अपनी पुत्री के विवाह पर यहाँ के मुखिया बिशक देव को बहुत बड़ी जागीर दहेज में दी थी। वर्तमान रियासत के प्रमुख राजा जगम्मन शाह यहाँ 1593 में आए थे और उन्होंने यहाँ एक किले का निर्माण किया जो आज भी मौजूद है। जगम्मनपुर कस्बे का नाम उन्हीं के नाम पर चल रहा है। उसके बाद से यहाँ बहुत से राजा आए और आज भी परिवार के सदस्य ही उसकी देखभाल करते हैं। जगम्मनपुर बाजार में सब्जी मंडी और नजदीक के सभी हिस्से असल में राज परिवार की ही मिल्कियत हैं और वे आज भी लोगों से किराया वसूल करते हैं।
थोड़ी देर बाद सद्दीक आए और परिचय हुआ। बातें करते-करते उन्होंने स्वरचित दो-तीन कविताएं कह डाली। उनकी बातों को सुनकर मुझे लगा कि इस व्यक्ति के अंदर न केवल एक वैचारिक निष्ठा है बल्कि अपनी बात को लोगों तक पहुंचाने की अद्भुत क्षमता भी है। इसलिए मैंने उनसे कहा कि अभी ज्यादा न बोलें और जब हम जगम्मनपुर किले में जाएंगे तो वहाँ मैं आपका एक इंटरव्यू करना चाहूँगा। वह हमारे साथ किले में गए और इस रियासत और चम्बल के ऊपर उन्होंने अपनी कुछ कविताएँ भी सुनाई।
सद्दीक की जिंदगी संघर्षों की जिंदगी है और उनकी कहानी सुनकर लगता है कि भारत में लोग अपनी जिंदगी के लिए कैसे संघर्ष करते हैं और जिंदगी को चुनते हैं। सद्दीक का जीवन संघर्ष प्रेरक है और यह भी कि तमाम आर्थिक विपन्नताओं के बावजूद वह समाज के विषय में सोचते हैं। सकारात्मक सोच के साथ अपनी धुन में लगे रहते हैं। सद्दीक अली का जन्म 1 जनवरी 1973 को पड़ोस के जालौन जनपद के जगम्मनपुर गांव में हुआ। इनके पिता का नाम शाकर अली और माता का नाम मजीजन बेगम था। अपने पांच भाई और चार बहनों में शाकर अली तीसरे नंबर पर थे। शाकर अली फकीर जाति से थे और अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के कारण कोई शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाए।
फकीर जाति होने की वजह से खेती की जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं था लेकिन शारीरिक तौर पर मजबूत शाकर अली सेना में भर्ती हो गए और द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी और जापान के खिलाफ युद्ध में बड़ी दिलेरी से हिस्सा लिया। इस युद्ध में उनके बायें हाथ की दो उंगलियां चली गईं।
युद्ध से वापस लौटने के बाद शाकर अली के बहादुरी के चर्चे चारों तरफ फैल गए और राज्य ने उन्हें रियासत के जगम्मनपुर किले में सूबेदार का पद प्रदान किया। जगम्मनपुर बड़ी रियासत मानी जाती थी जिसके अंतर्गत 346 गांव आते थे। यह भी एक आश्चर्यजनक बात है कि भारत को आजादी मिलने के बहुत बाद यानी वर्ष 1972 तक जगम्मनपुर किले में रियासत के लगभग 25000 सिपाही थे। शाकर अली को शब्दभेदी निशानेबाज बंदूकधारी माना जाता था और इसी वजह से रियासत के तत्कालीन उत्तराधिकारी वीरेन्द्र शाह ने उन्हें अपना अंगरक्षक बना लिया। बाद में शाकर अली का एक पैर खराब हो जाने के कारण उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। उन्होंने जगम्मनपुर में सब्जी की दुकान खोल ली लेकिन इससे घर का खर्चा चलना बहुत मुश्किल था।
सद्दीक अली चार भाइयों में तीसरे नंबर पर हैं। इनकी चार बहनों में से तीन बहनों की शादी के बाद मौत हो गई और एक बहन बोल-सुन नहीं सकती है। इन विषम परिस्थितियों में सद्दीक अली कक्षा 6 तक पढ़ने के बाद 15 वर्ष की उम्र में रोजगार की तलाश में पड़ोसी जनपद भिन्ड चले गए। जब उन्हें वहां कोई काम न मिला तो वह रिक्शा चलाने लगे। उन्हें पहलवानी का भी शौक था और उन्होंने उन दिनों कई नामी दंगलों में जीत भी हासिल की। वह अपने पैरों से ढाई कुंतल की नशैनी साध लेते थे। आधा सेर घी पी जाते थे। आज भी शारीरिक तौर पर बहुत स्वस्थ हैं।
सन 1992 में सद्दीक अली की शादी हुई और वह पत्नी को भी अपने साथ भिन्ड लेकर चले गए। उनके एक बेटा पैदा हुआ जिसका नाम रखा इसरार अली। इसरार अली को बचपन में छत से गिरने से सिर में चोट आई। सद्दीक रिक्शा चलाते हुए इलाज कराते रहे लेकिन 17 वर्ष की आयु में इसरार अली की मौत हो गई। इनका एक और बेटा पैदा हुआ जिसका नाम इबरार अली रखा। इबरार अली चार वर्ष के हुए तो बीमार पड़े और इन्हें डाक्टर के पास ले जाया गया। नर्स के इंजेक्शन देते ही बच्चे ने दम तोड़ दिया। इस हृदयविदारक घटना ने सद्दीक अली को पागल कर दिया।
इस दौरान उन्होंने 8-10 डाक्टरों की पिटाई कर दी। फिर रिक्शा चलाने का काम छोड़ दिया था क्योंकि उन दिनों टैम्पो-रिक्शा चलन में आ गया था और इनके पास इतना धन नहीं था कि दूसरी जगह जाकर गाड़ी खरीद सकें। अतः घर लौट आए।
दो बच्चों की मौत के सदमें से आज तक वह उबर नहीं पाये हैं। दरअसल, सद्दीक अली के जीवन की कहानी हमारे समाज के एक गरीब व्यक्ति के संघर्षों की कहानी है। यह इसलिए भी महत्व रखती है कि संघर्ष पूर्ण जीवन स्थिति के बावजूद वह व्यक्ति स्वाभिमान के साथ जीने की उम्मीद नहीं छोड़ता। आज के दौर में छोटी-सी बात पर ‘डिप्रेशन’ में आने वाले युवाओ को ऐसा संघर्ष जरूर सुनना और पढ़ना चाहिए जो प्रेरणादायी हो।
भारत में तिकड़म और झगड़ों मे हम ‘सेक्युलर’ हैं यानि हिन्दू हो या मुसलमान, एक दूसरे का हक मारने में आगे हैं और जिसको जहाँ मौका मिले वहीं दूसरे का हिस्सा मार लेता है। जब सद्दीक अली अपने जीवन के लिए भिन्ड में संघर्ष कर रहे थे तो इनका पुश्तैनी पुराना घर छोटे भाई ने ले लिया और नया घर बड़े भाई ने ले लिया। मतलब अब इनके भाइयों ने निर्णय ले लिया कि इन्हें वापस घर लौटने की जरूरत नहीं है। इसलिए जब यह जगम्मनपुर वापस लौटे तो कहां रहें इसका संकट खड़ा हो गया। बीवी के साथ पालीथीन तानकर रहने के साथ मजदूरी करने लगे। बाद में बस पर हैल्परी करने लगे, साइकिल और सामान लादने का काम किया।
इस दौरान तीन बेटे और एक बेटी पैदा हुई लेकिन गुरबत के दिन होने से बच्चों को पढ़ा नहीं पाए जिसका आज भी उन्हें बहुत मलाल है। वर्षों काम करने के बाद इनका 15×25 फीट का मकान बन पाया। पास में ही 30×30 फीट का एक खाली प्लाट है। गरीबी रेखा वाला लाल राशन कार्ड बना है और 35 किलो अनाज हर महीने मिल जाता है। बाकी, सिवाय छोटी से चाय की दुकान के आय का अन्य कोई स्रोत नहीं ।
इन विषम परिस्थियों में सद्दीक अली ने लोकभाषा में स्वरचित कीर्तन, कव्वाली, गजल, लोकगीत, बारहमासा, गीत, कविता आदि कहने लगे। आज उनको हजारों धुनों के साथ यह सभी जबानी याद हो गई हैं। साथ में कई दास्तान उनके जेहन में नक्श हैं। जो वह चंबल संग्रहालय परिवार के मंचों पर सुनाते रहते हैं।
जीवनयापन के लिए सद्दीक अली की जगम्मनपुर में चाय की दुकान है। यह दुकान किराये पर है जिसमें लगभग ढाई सौ रुपये का सामान रहता है। यह दुकान सब्जी मंडी में है लिहाजा यह सिर्फ हफ्ते में गुरुवार और रविवार को दिन भर के लिए खुलती है। उसी दिन वह उधार सामान लाते हैं और बेचकर रात तक चुकता कर देते हैं। सद्दीक अली को सैकड़ों किस्म के लजीज पकवान बनाने का भी हुनर है। उन्होंने बताया कि उनकी दुकान से अधिकांश सामान उधार पर जाता है। वह न कोई हिसाब लिखते हैं और न ही किसी से पैसे मांगते हैं लेकिन वह बताते हैं कि लोग अपने आप ही उनका पूरा पैसा वापस कर देते हैं।
मैंने उनसे यह सवाल किया कि इस क्षेत्र में राजपूत मुसलमानों के कैसे गाँव थे और उनकी अपनी विरासत को वह किस रूप मे देखते हैं? वह कहते हैं, ‘दरअसल सुल्तान शाह सूफी मलंग थे जिनकी कई करामातें, भलाई मशहूर थी जिनके प्रभाव में आकर कई राजपूत (मेव ठाकुर) और पाल समाज के 7 गांवों ने इस्लाम कबूल किया था। अजीतापुर, अब्दुल्लापुर, रवानीपुर, रसूलपुर, जैतपुर, नबीपुर, हमीदपुर गांव आदि। सन 1411 में हलफ से अपने काफिले के साथ सुल्तान शाह यहां आए और यहां तकिया कायम किया। अपने एक बेटे करामत अली शाह को जगम्मनपुर छोड़ गए और दूसरे लड़के सुजात अली को अपने साथ कुतकपुरा ले गए। जगम्मनपुर रियासत की वंश परम्परा सुल्तान शाह की दुआ से आगे बढ़ी। तभी से सेंगर वंश की यह रियासत अपने नाम के आखिर में ‘शाह’ लिखती है। इतना ही नहीं, सुल्तान शाह की आगे की पीढ़ियों की गद्दी महाराजा के सिंहासन के बगल में लगती थी और न्यौछावर सबसे पहले इन पर ही चढ़ता था।
सद्दीक अली सुल्तान शाह की वंश परम्परा से आते हैं, इस वजह से उनके परिवार का मान-सम्मान क्षेत्र में रहा है। इनके दादा झल्लू अली शाह भी रियासत के सिपहसालार थे।
वह बताते हैं कि जगम्मनपुर रियासत बहुत बड़ी रियासत मानी जाती थी। उन दिनों इस रियासत में कुल 425 गांव शामिल थे लेकिन 1857 में इस रियासत ने कंपनीराज को आंख क्या दिखाई इनका उमरी का किला तोप से गिरा दिया गया और फांसी देने की पावर भी छीन ली गई। सिर्फ 57 गांव ही रियासत के अधीन रह गए। हालांकि महाराजा लोकेन्द्र शाह ने अपने दौर में रियासत का विस्तार कर 140 गांव बढ़ाए। देश की आजादी के बहुत बाद वर्ष 1972 तक जगम्मनपुर रियासत के पास 25000 की फौज, 6 तोपें, 125 घोड़े, 40 ऊंट और 4 हाथी थे।
यह महाराजा वीरेन्द्र शाह का जमाना था। वह 1947 में 52 जनपदों में से एकमात्र राज परिवार से विधायक बने थे। वह 1952, 1957, 1962 और 1967 में भी विधायक रहे।
अपने पिता के विषय में सद्दीक बताते हैं कि उन्होंने कैप्टन महाराजा वीरेन्द्र शाह से अपनी जुबान से कभी कुछ नहीं मांगा न उनके बच्चों से कभी कोई फरियाद की। शाकर अली के एक पैर में गोली लगने से पैर खराब हो गया तो वीरेन्द्र शाह ने वर्ष 1970 के आखिर में कहा कि शाकर अली हम तुमको 2 दुकानें और 15 बीघा जमीन देना चाहते हैं जो तुम्हारे बच्चों को काम आएगी। लेकिन दुर्भाग्य से वीरेन्द्र शाह को दिल का दौरा पड़ने से 2 मार्च 1971 को 56 वर्ष की आयु में मौत हो गई। उसके बाद राजेन्द्र शाह भी एक बार विधायक रहे, जितेन्द्र शाह भी विधायक बने लेकिन शाकर अली के परिवार ने कभी कोई मांग नहीं की।
इस इलाके में तथाकथित बड़ी जातियों का दबदबा रहा है। यह दोनों जातियां किसी गरीब मुसलमान को आगे बढ़ते देखना पसंद नहीं करतीं। जबकि सद्दीक अली ने तमाम भजन और कीर्तन देवी-देवताओं पर लिखे और गाये हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या अपने भजनों और गायकी के लिए उन्हें अपने समाज की भी प्रताड़ना झेलनी पड़ी? वह कहते हैं, ‘जून की दोपहरी में तपती रेत पर शिवालय से बाबा साहब मंदिर तक करीब तीन किमी घुटनों के बल चला था। इस दौरान एक-डेढ़ बोतल खून शरीर से निकल गया और सिर फटने से बेहोश हो गया। इस घटना के हजारों गवाह आज भी हैं। तब यहां के हाफिज-मौलानाओं ने इस पर कड़ा ऐतराज जताया कि तुम मुस्लिम होकर दूसरे धर्म के देवी-देवताओं को मानते हो। हालांकि हिन्दू लोगों ने कभी ऐतराज नहीं किया। कथा, भागवत, रामलीला में जाने पर सम्मान देते हैं।’
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि ‘बाबा साहब का मंदिर’, (बाबा साहब अंबेडकर से कोई संबंध नहीं है) पंचनदा पर बना एक प्राचीन मठ है जो सिद्ध संत श्री मुकुंद वन ( बाबा साहब महाराज) की तपोस्थली के रूप में विख्यात है। ऐसा कहा जाता है कि मुकुंद वन नागा संप्रदाय से संबंधित थे और अपनी पीढ़ी के 19वें संत थे जो पंचनद मठ में तपस्या करते थे। ऐसा कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसी दास सन 1603 में यहाँ आए थे और वसंत पंचमी के दिन दोनों संतों की आपस में बातचीत हुई। यहीं पर मुकुंदवन जी के मित्र फकीर नबी मलंग थे जिनकी करामातों के किस्से यहाँ बहुत प्रसिद्ध हैं।
आज भी सद्दीक अली का प्रातः 4 बजे जागने का नियम है। सुबह 50 मीटर दूर हैंडपंप से परिवार के लिए पानी भरकर लाते हैं। मेहमान कोई भी पहुंच जाये हैसियत से ज्यादा सम्मान देते हैं। खुश होते हैं। वह कहते हैं, ‘आओ, बैठो, और पियो पानी। ये तीनों चीजे मोल नहीं आनी’।
यह बात दूसरी है कि पानी अब दुनिया में बड़ी कंपनियों के हाथ में आ चुका है हालांकि गाँव देहात में अभी भी लोग पूछ लेते हैं लेकिन आने वाले समय में यह वहाँ भी मुश्किल हो जाएगा। सद्दीक की बातों का सीधा मतलब है कि ‘कोई किसी भी मजहब-जाति का हो सबके साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। कहते हैं अच्छे आचरण में पैसा नहीं लगता और सुकून भी बहुत मिलता है।’
इनकी करीब 4600 कविताएं, भजन, गज़ल आदि पन्नों-रजिस्टरों पर बिखरी पड़ी हैं। लगभग नौ हजार इन्हें मौखिक याद हैं। अभी तक इनकी कोई पुस्तक नहीं आई है। सद्दीक अली इमोशन का खजाना हैं। वह बताते हैं कि सिर्फ चंबल विद्यापीठ और चंबल संग्रहालय परिवार के मंचों पर सम्मान मिला है।
सद्दीक अली को देखकर महसूस होता है कि कैसे सूफी परंपरा के लोगों ने अपनी जिंदगी जी होगी। फकीरी कैसी होती है। यह उन्हें देखकर और उनकी बातचीत से महसूस कर सकते हैं। हाँ ये कह सकते हैं कि वह गृहस्थ फकीर हैं जो अपनी मेहनत से आजीविका जुटाते हैं और जो कुछ मिल जाए उसमें स्वाभिमान के साथ जीते हैं। सूफियों में वह ताकत थी। वे प्रेम और भाईचारे का संदेश देते हैं। उनके मित्र डाक्टर शाह आलम कहते हैं, ‘आदमी आता है और चला जाता है खाली हाथ। त्यागी हैं, पैसा नहीं चाहिए, सूफी परंपरा के हैं। किसी चीज का मोह नहीं है लेकिन जो लिखा-पढ़ा है उस धरोहर को संरक्षित होना चाहिए।’
सद्दीक की काव्य रचनाएँ
एक
बचें कैसे कि पानी आ गया है सर के ऊपर तक
अमन के खा गए दाने अमन के ही कबूतर तक
भलाई की करें क्या उम्मीद क्या इन रहनुमाओं से
बुराई में सने बैठे हैं जब गांधी के बंदर तक
चलो चलते रहो चलने से ही गंतव्य पाओगे
नदी बहती हुई एक दिन पहुंचती है समुंदर तक
कलम की वेदना, पीड़ा, कसक वो ही समझते हैं
जिन्होंने झांककर देखा है कब के दिल के अंदर तक
मुसलमां हूं मगर अब्दुल हमीद ऐसा मुसलमां हूं
मिरा यह कौल पहुंचा दो वतन के एक-एक घर तक
पिघलते से नजर आएंगे तुमको यार पत्थर तक
विरासत में तुम्हें ‘सद्दीक’ मिला धूमिल से जो कुछ भी
अंधेरों से तुम्हें ले जाएगा वो रोशनी घर तक
दो
दुख की धूप क्षुधा की चिंता मन पे भय के साये
हम अपनी संतानों को बस इतना ही दे पाये
तुम्हें अहिंसा, शांति, दया का गौतम कैसे कह दूं
तुमने कब-कब देवदत्त से घायल हंस छुड़ाए
मेरे आंसू टपके जब-जब मिले धूल में तब-तब
निर्धन के आंखों के आंसू कब मोती बन पाए
रावण, कंस, असुर के किस्सों में क्या है संदेशा
अहंकार के मद में डूबा मानव समझ न पाए
कलयुग में आदर्श क्षीण है आहत है मर्यादा
है अब ऐसा राम कोई जो शिबरी के घर आए
कवि का कर्म विशेष समझना मानव मन की पीड़ा
कविता वही सार्थक साथी जो जन-जन को भाए
व्यथित व्यक्ति को मिली सांत्वना मेरी गजलें पढ़कर
मैं तो कवि हूं ‘सद्दीक’ मुझको परपीड़ा तड़पाए
तीन
मिटा डालो हमेशा को दिलों से दूरियां अपनी
नहीं तो वक्त बढ़कर फूंक देगा बस्तियां अपनी
शरारों की हुकूमत है अभी पानी के धारों पर
समुन्दर की तरफ ले जाइए मत कश्तियां अपनी
चमन के पत्ते-पत्ते पर नजर रखना जरूरी है
अगर तुम चाहते हो देखना खुशहालियां अपनी
सब अपना है, सब अपने हैं, सब अपनों ने बनाया है
चमन अपना, चमन के फूल पत्ते, डालियां अपनी
सहे फांके पे फांके और बांधे पेट पर पत्थर
मगर बेची नहीं हमने कभी खुद्दारियां अपनी
बिठाया जाएगा मजदूर उस दिन राजगद्दी पर
बगावत पर उतर आएंगी जिस दिन पीढ़ियां अपनी
लगा लेती है भारत मां कलेजे से उसे ‘सद्दीक’
जो उसके वास्ते दे देता है कुरबानियां अपनी।
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विद्या भूषण रावत चिंतक, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।