भारत दुनिया के सबसे असमान देशों में एक है। इससे उबारने के लिए ढेरों चिंतक एवं राजनीतिक दल प्रयासरत हैं। लेकिन समानता और समता का लक्ष्य हासिल करने की दिशा में कुछ करने के पहले सबसे जरूरी है यह जानना कि क्या है मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या और कैसे होती है इसकी सृष्टि। बिना इसे ठीक से समझे इस दिशा में किया गया प्रयास सफल नहीं हो सकता। जहां तक सबसे बड़ी समस्या का सवाल है, दुनिया के तमाम विचारकों ने प्रायः एक स्वर में माना है कि आर्थिक और सामाजिक असमानता ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है। यही वह सबसे बड़ी समस्या है जिससे पार पाने के लिए दुनिया में गौतम बुद्ध, मजदक, रूसो, वोल्टेयर, प्रूधो, मार्क्स, लेनिन, माओ, फुले, शाहू जी, गांधी, आंबेडकर, लोहिया, कांशीराम इत्यादि ढेरों महामानवों का उदय एवं भूरि-भूरि साहित्य का सृजन हुआ। यही वह समस्या है, जिससे पार पाने के लिए प्रत्येक देश के संविधान निर्माताओं ने अपने-अपने देश के संविधान की प्रस्तावना को असमानता के खात्मे पर केंद्रित किया। आर्थिक और सामाजिक असमानता ही सबसे बड़ी समस्या है, इसलिए राष्ट्र को भारत का संविधान सौंपने के एक दिन पूर्व संविधान निर्माता बाबा साहब आंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को राष्ट्र को चेताते कहा था कि हमें निकटतम समय के मध्य आर्थिक और सामाजिक असमानता का खात्मा कर लेना होगा नहीं तो इससे पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढांचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।
जहां तक आर्थिक और सामाजिक असमानता की उत्पत्ति का सवाल है, दुनिया का इतिहास बताता है कि प्रत्येक देश के शासकों ने ही समाज में विद्यमान विविध सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों(आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक) का असमान बंटवारा कराकर ही इस समस्या को जन्म दिया। ध्यान रहे दुनिया के समाज सिर्फ अमीर-गरीब की दो श्रेणियों में नहीं, बल्कि जाति,नस्ल, लिंग, धर्म,भाषा इत्यादि के आधार पर कई भागों में विभाजित रहे। और जिनके हाथ में सत्ता की बागडोर रही, उन्होंने सभी समाजों और उनकी महिलाओं को एक जैसा समझा नहीं, लिहाजा वे अपने नापसंद के समाजों को शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत कर आर्थिक और सामाजिक असमानता की सृष्टि करते रहे। इस कारण ही दुनिया में सर्वत्र सामाजिक अन्याय की उत्पत्ति होती रही, जिससे पार पाने के लिए सामाजिक न्याय का अभियान चला। अब यदि परिष्कृत भाषा में यह जानने का प्रयास हो कि किस खास उपाय का अवलम्बन कर दुनिया के तमाम शासक असमानता की सृष्टि करते रहे तो पाएंगे कि वे शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का असमान प्रतिबिंबन करा कर ही इसकी सृष्टि करते रहे। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में असमानता की उत्पत्ति में इसकी सत्योपलब्धि कर ही कनाडा, अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, मलेशिया और सबसे बढ़कर दक्षिण अफ्रीका ने शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करने का अभियान चलाया और असमानता की समस्या से पार पाया।
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आज भी शक्ति के समस्त स्रोतों पर सवर्णों का अधिकार
जहां तक भारत का सवाल है, यहां असमानता की समस्या को हिन्दू धर्म का प्राणाधार उस वर्ण-व्यवस्था के जरिए खड़ा किया गया, जिसमें समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रातिशूद्रों की असंख्य जातियों में विभाजित रहा। धर्म के आवरण में लिपटी वर्ण-व्यवस्था मूलतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही, जिसमें शुद्रातिशूद्रों के स्त्री-पुरुषों को अध्ययन- अध्यापन, भूस्वामित्व, सैन्य वृत्ति, व्यवसाय–वाणिज्य इत्यादि सहित शक्ति के समस्त स्रोतों से चिरकाल के लिए बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की अतल गहराइयों में डुबोने के साथ बेहिसाब असमानता की सृष्टि किया गया। इनको सामाजिक अन्याय से निकालने की प्रक्रिया आंबेडकर के संघर्षों के परिणाम स्वरूप पूना-पैक्ट से मिले उस आरक्षण से शुरू हुई, जिसका स्थायी प्रावधान स्वाधीन भारत के संविधान में सुनिश्चित हुआ। आरक्षण सबसे पहले एससी – एसटी को मिला; बाद में यह पिछड़ों को भी सुलभ हुआ।
वर्ण-व्यवस्था जनित असमानता और अन्याय से राष्ट्र को निजात दिलाने के लिए ही संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में लोगों को तीन न्याय: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करवाने पर जोर दिया। लेकिन हमारा संविधान यह तीन न्याय सुलभ कराने और असमानता मिटाने में इसलिए व्यर्थ रहा, क्योंकि स्वाधीन भारत में जिनके हाथों में सत्ता की बागडोर रही, वे अपनी वर्णवादी सोच के कारण अमेरिका, यूरोप इत्यादि के शासकों की भांति शक्ति का स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू न कर सके अर्थात एससी,एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक, सवर्ण इत्यादि विविध समाजों के मध्य अवसरों और संसाधनों का वाजिब बंटवारा न करा सके। शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा कराना तो दूर हिन्दुत्ववादी विचारधारा से जुड़े शासक तो संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने के लिए उन समस्त संस्थाओं को निजी क्षेत्र में देने में सर्वशक्ति लगाया, जहां समानता का सबसे बड़ा औजार आरक्षण लागू हो रहा था। आज हिंदुत्ववादी सरकार की नीतियों के फलस्वरूप वर्ण व्यवस्था के सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के समस्त स्रोतों पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्जा हो चुका है।
हमारे शासक वर्गों द्वारा इच्छाकृत से विविध समाजों के मध्य अवसरों और संसाधनों का न्यायोचित बंटवारा न कराए जाने के फलस्वरूप आज देश असमानता के मामले मे प्रायः विश्व चॅम्पियन बन चुका है। ऑक्सफाम इंडिया की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक टॉप की 10 प्रतिशत आबादी का नेशनल वेल्थ पर 77.4 प्रतिशत कब्जा रहा, जबकि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी का हिस्सा महज 4.8 प्रतिशत रहा। विश्व असमानता रिपोर्ट– 2022 के मुताबिक शीर्ष 10 प्रतिशत वयस्क सालाना 11,66,520 रुपये कमाते रहे जो नीचे की 50 प्रतिशत आबादी वालों से 20 गुना अधिक था। विश्व असमानता रिपोर्ट 2024 के मुताबिक 2022-23 में देश की सबसे अमीर एक प्रतिशत आबादी की आय में हिस्सेदारी बढ़कर 22.6 प्रतिशत, वहीं संपत्ति में उनकी हिस्सेदारी 40.1 प्रतिशत हो गई जो विश्व में सबसे ज्यादा है। भारत में जहां 2020 में अरबपतियों की संख्या 102 थी, वह 2022 में बढ़कर 166 हो गई। आज देश के 21 अरबपतियों के पास 70 करोड़ लोगों की संपत्ति से भी ज्यादा दौलत है। भयावह असमानता के चलते ही ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2023 में भारत की रैंकिंग 125 देशों में 111 रही, जो पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल से भी नीचे है। विश्व खुशहाली रिपोर्ट- 2024 के अनुसार भारत 143 देशों में 126 वें स्थान पर रहा, जो पाकिस्तान सहित हमारे बाकी पड़ोसी मुल्कों से नीचे है। जहां तक आधी आबादी का प्रश्न है ग्लोबल जेंडर गैप की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत लैंगिक समानता के मामले भारत नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, चीन इत्यादि से पिछड़ गया है और भारत की आधी आबादी को पुरुषों की बराबरी में आने मे 257 साल से भी ज्यादा लग सकते हैं।
भारत में व्याप्त भीषण असमानता के लिए बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट भी जिम्मेदार
बहरहाल, भारत में व्याप्त भीषण असमानता के लिए शासक वर्ग की वर्णवादी सोच तो जिम्मेवार है ही, इस के खिलाफ संघर्ष चलाने वाले वंचित वर्गों के बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट भी कम जिम्मेवार नहीं हैं। इन्होंने सामाजिक अन्याय और असमानता की लड़ाई को मुख्यतः आरक्षण बचाने, निजी क्षेत्र, न्यायपालिका और प्रमोशन में आरक्षण दिलाने तक अपनी गतिविधियां सीमित रखीं। इन्होंने अमेरिका, यूरोप इत्यादि देशों मे डाइवर्सिटी के रूप मे लागू सर्वव्यापी आरक्षण का इतिहास जानने के बावजूद आरक्षण का दायरा शक्ति के समस्त स्रोतों तक प्रसारित करने की लड़ाई लड़ने की जहमत नहीं उठाया। यहाँ तक कि खुद भारत में कुछ संगठन और बुद्धिजीवी गत दो दशकों से सरकारी और निजी क्षेत्र में आरक्षण से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी,पार्किंग-परिवहन, फिल्म-मीडिया, विज्ञापन निधि, पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि सहित शक्ति के समस्त स्रोतों में विविधता लागू करवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन वे नौकरियों, प्रमोशन, न्याय पालिका में आरक्षण से आगे संघर्ष चलाने की बात न सोच सके। विगत कुछ वर्षों में तमिलनाडु सरकार द्वारा 36,000 मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को आरक्षण देने और झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार द्वारा 25 करोड़ तक के ठेकों में आरक्षण लागू करने का विरल दृष्टांत स्थापित हुआ, किन्तु सामाजिक न्यायवादी बुद्धिजीवी इससे प्रायः पूरी तरह निर्लिप्त रहे। इसलिए वे शक्ति के समस्त स्रोतों में आरक्षण लागू करने का वाजिब दबाव राजनीतिक दलों पर न बना सके और असमानता के मामले में भारत विश्व चैंपियन बन गया। भारी राहत की बात है 2024 के चुनाव में जहां हिन्दुत्ववादी संविधान बदलने और आरक्षण के खात्मे पर चुनाव में उतर रहे हैं, वहीं कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन ने आरक्षण के विस्तार पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दिया है। इस मामले मे कांग्रेस का घोषणापत्र एक नई रोशनी लेकर आया है।
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वास्तव में भीषणतम असमानता के दौर में पाँच न्याय, 25 गारंटियों और 300 वादों से युक्त कांग्रेस का घोषणापत्र एक नई उम्मीद बनकर सामने आया है। तमाम राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा एक क्रांतिकारी दस्तावेज करार दिया गया उसके घोषणापत्र में समतामूलक भारत निर्माण के भरपूर तत्व हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है जब कोई पार्टी नौकरियों मे आरक्षण से आगे बढ़कर धन- दौलत सहित शक्ति के स्रोतों के बंटवारे का संकल्प जाहिर की है। घोषणापत्र के पृष्ठ 6 पर हिस्सेदारी न्याय अध्याय में जोरदार शब्दों में कहा गया है, ‘जाति आधारित भेदभाव आज भी हमारे समाज की हकीकत है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग देश की आबादी के लगभग 70 प्रतिशत हैं, लेकिन अच्छी नौकरियों, अच्छे व्यवसायों और ऊंचे पदों पर उनकी भागीदारी कम है। किसी भी आधुनिक समाज में जन्म के आधार पर इस तरह की असमानता, भेदभाव और अवसर की कमी बर्दाश्त नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस पार्टी ऐतिहासिक असमानता की खाई निम्न कार्य क्रमों के माध्यम से पाटेगी।’
जन्म के आधार पर असमानता, भेदभाव और अवसरों की कमी झेलने वाली 70 प्रतिशत आबादी को ऐतिहासिक असमानताताओं के दल-दल से निकालने के लिए ही कांग्रेस ने आर्थिक-सामाजिक जाति जनगणना करवाने की घोषणा की है ताकि प्राप्त आंकड़ों के आधार पर शासन-प्रशासन में वाजिब हिस्सेदारी सुनिश्चित करने साथ ऐसा उपक्रम चलाया जा सके जिससे दलित, आदिवासी, पिछड़ों को कंपनियों, टीवी, अखबारों इत्यादि का मालिक और मैनेजर बनने का मार्ग प्रशस्त हो सके। 70 प्रतिशत आबादी को समानता दिलाने के लिए काग्रेस के घोषणापत्र में आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा खत्म करने, न्यायपालिका में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की बात आई है। जन्म के आधार पर असमानता खत्म करने के लिए ही एससी, एसटी समुदायों से आने वाले ठेकेदारों को सार्वजनिक कार्यों के अनुबंध अधिक मिले, इसके लिए सार्वजनिक खरीद नीति का दायरा बढ़ाने की बात घोषणापत्र में प्रमुखता से जगह पाई है। कांग्रेस ने नारी न्याय के तहत 2025 से महिलाओं के लिए केंद्र सरकार की आधी(50 प्रतिशत) नौकारियां आरक्षित करने का वादा कर जेंडर डाइवर्सिटी लागू करने की दिशा में ऐतिहासिक घोषणा किया है( भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस न्यायपत्र 2024, पृष्ठ- 16)। कांग्रेस एक विविधता आयोग(डाइवर्सिटी कमीशन) की स्थापना करेगी जो सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में रोजगार और शिक्षा के संबंध में विविधता की स्थिति का आंकलन करेगी और बढ़ावा देगी(पृष्ठ- 7)। इसके अतिरिक्त अन्य कई ऐसी घोषणाएं हैं जो असमानता की खाई को पाटने में प्रभावी भूमिका अदा कर सकती हैं। ऐसे में जरूरी है की असमानता पीड़ित तबके जाति, धर्म से ऊपर उठकर कांग्रेस को सत्ता में लाने मे सर्वशक्ति लगाएं।