राजनीति में फार्मूला, एक ऐसा शब्द है, जिसमें सस्पेंस और भ्रम अंत तक छिपा हुआ रहता है।
राजनीतिक दल फार्मूला बनाता है इसकी खबर तो कार्यकर्ताओं को लगती है मगर फार्मूला तोड़ा जाता है, उसकी खबर राजनीतिक दल के कार्यकर्ता को अंत में जाकर चलता है।
और तब कार्यकर्ता बेसहारा होकर अपने आप को ठगा सा महसूस करता है। राजनीतिक पार्टियां विधानसभा और लोकसभा चुनाव में टिकटों को लेकर भी फार्मूला बनाती हैं कि दो बार हारे हुए प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया जाएगा लेकिन जब प्रत्याशियों की लिस्ट आती है तब कार्यकर्ता को पता चलता है कि पार्टी ने अपना बनाया हुआ फार्मूला बदल दिया है, बदले हुए फार्मूले से वह नेता भी टिकट पा जाते हैं जो दो बार से अधिक चुनाव हार कर भी फिर से टिकट आ जाते हैं। देश के चुनिंदा राज्यों में से एक राजस्थान में इस समय कांग्रेस की सरकार है।
राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनने के पहले दिन से ही सत्ता और संगठन के बीच आपसी मतभेद चल रहे हैं । एक समय तो आपसी मतभेद इतने गंभीर हो गए थे कि लगने लगा था की कांग्रेस की सरकार गिर जाएगी। क्योंकि कुर्सी को लेकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच तल्ख़ियां बढ़ गई थीं। सचिन पायलट उस समय सत्ता और संगठन दोनों पदों पर आसीन थे। पायलट प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे और राज्य के उपमुख्यमंत्री भी थे, मगर पार्टी से उनकी बगावत के कारण हाईकमान ने सचिन पायलट को दोनों पदों से मुक्त कर दिया था।
हाईकमान की समझाइश के बाद
सचिन पायलट माने लेकिन तब तक सचिन पायलट दोनों पदों से मुक्त हो गए थे, और उनमें से एक भी पद मौजूदा वक्त में सचिन पायलट के पास नहीं है। पायलट और गहलोत के बीच चली नाराजगी का समाधान पार्टी हाईकमान ने सत्ता और संगठन के बीच समन्वय बनाने के लिए एक उच्चस्तरीय समन्वय समिति का गठन किया। मंत्रिमंडल पुनर्गठन राजनीतिक नियुक्तियां और प्रदेश संगठन जिला संगठन का पुनर्गठन करने का फार्मूला तय हुआ। राज्य मंत्रिमंडल का विस्तार तो हो गया है और अधिकांश जिला अध्यक्ष भी बदल दिए गए हैं लेकिन राजनीतिक नियुक्तियां अभी जस की तस बनी हुई है बंपर राजनीतिक नियुक्तियों का आम कार्यकर्ता इंतजार कर रहा है इसी बीच एक खबर यह निकलकर आई कि कांग्रेस के जिला अध्यक्षों को 20 सूत्री कार्यक्रम का उपाध्यक्ष बनाया जाएगा, इसके लिए पार्टी के रणनीतिकारों ने अपने फार्मूले में बदलाव किया है कि एक व्यक्ति अब सत्ता और संगठन दोनों में एक साथ रहकर काम कर सकता है।
[bs-quote quote=”राजनीतिक पार्टियां विधानसभा और लोकसभा चुनाव में टिकटों को लेकर भी फार्मूला बनाती हैं कि दो बार हारे हुए प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया जाएगा लेकिन जब प्रत्याशियों की लिस्ट आती है तब कार्यकर्ता को पता चलता है कि पार्टी ने अपना बनाया हुआ फार्मूला बदल दिया है, बदले हुए फार्मूले से वह नेता भी टिकट पा जाते हैं जो दो बार से अधिक चुनाव हार कर भी फिर से टिकट आ जाते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
इस फार्मूले को बदलने पर रणनीतिकारों ने जो दलील दी है वह बड़ी ही हास्यापद है। दलील यह दी जा रही है कि सत्ताधारी कांग्रेस के जिला अध्यक्ष के पास 20 सूत्री कार्यक्रम का उपाध्यक्ष बना दिया जाए तो जिला अध्यक्ष जिला कलेक्टर की बैठकों में शामिल हो सकता है।
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सवाल यह है कि सत्ताधारी पार्टी के जिला अध्यक्ष को जिला कलेक्टर के समक्ष बैठने के लिए सरकारी नियुक्ति की जरूरत है जबकि सत्ताधारी पार्टी का आम कार्यकर्ता तो इस मुगालते में जी रहा हैं कि राज्य में उसकी पार्टी की सरकार है और वह जिला कलेक्टर के समक्ष जाकर बैठ सकता है, लेकिन नए फार्मूले के बाद पता चल रहा है कि कलेक्टर के सामने बैठने की औकात तो सत्ताधारी पार्टी के जिला अध्यक्ष की भी नहीं है। कलेक्टर के साथ बैठने के लिए उसे 20 सूत्री कार्यक्रम का उपाध्यक्ष बनना होगा।