हिंसक लड़ाइयों के बूते किसी भी मुल्क व समुदाय को अपने अधीन नहीं रखा जा सकता है। विश्व भर का इतिहास हमारे सामने है। हिंसा से कुछ काल तक तो राज किया जा सकता है, लेकिन इसमें स्थायीत्व नहीं होता। वियतनाम और अफगानिस्तान के रूप में अमरीका का उदाहरण तो सबसे ताजा है। इसके पहले भी हिटलर का उदाहरण ले लें, वह सिकंदर की तरह विश्व विजय के अभियान पर निकला था। उसके पराक्रम का औरा इतना था कि फ्रांस जैसे देश तक ने चार दिनों के अंदर ही हार मान ली थी। लेकिन जैसे ही वह सोवियत संघ की तरफ बढ़ा, उसे अपनी असलियत का अहसास होने लगा और अंतत: उसे खुद को गोली मारनी पड़ी। हालांकि इसमें एक मामला यह है कि फ्रांस की क्रांति के बाद वहां की जीवन व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव आया था। यह कहना बेहतर होगा कि वहां के लोग सुविधाभोगी हो चुके थे और वे इस कारण डर गए थे कि यदि हिटलर के साथ लड़ाई हुई तो उनके महल और सड़कों की सुंदरता नष्ट हो जाएगी। लेकिन सोवियत संघ में चूंकि मजदूरों का राज था, तो हिटलर को शिकस्त मिली।
मैं भारत को देखता हूं तो लगता है कि ऐसा ही हुआ होगा तब जब बाहरी आक्रांताओं ने हमला किया होगा। समाज में वर्चस्व रखनेवाले आर्य ब्राह्मण इतने सुविधाभोगी हो चुके थे अपना मूल स्वभाव जो कि एक आक्रांता का था, भूल चुके थे। हर बार उन्होंने पराजय को स्वीकार किया। फिर क्या वह मुहम्मद गोरी का आक्रमण हो या फिर मुगलों या अंग्रेजों का। इन बातों का उद्धरण सिर्फ इसलिए कि ये आधुनिक भारत के इतिहास के हिस्से हैं और आज की पीढ़ी इनके बारे में थोड़ा बहुत ही सही जानती है। आप देखें कि ब्राह्मणों ने कभी प्रतिरोध नहीं किया। मुमकिन है कि इस वर्ग ने हर आक्रांता के साथ समझौता किया हो कि आप भले ही इस मुल्क पर अधिकार करें, लूटें, लेकिन हमारे सामाजिक वर्चस्व को कायम रहने दें। इसके बदले हम आपकी सहायता करेंगे।
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लेकिन मैं और पीछे जाना चाहता हूं जब इस देश के मूलनिवासियों पर आर्य ब्राह्मणों ने कहर ढाया होगा। सिंधु घाटी सभ्यता का अवसान हो चुका था। मूलनिवासियों में नई तरह की हलचलें रही होंगी। मुमकिन है कि वे बिखरे हुए भी होंगे। वजह यह कि सिंधु घाटी सभ्यता एक समुन्नत नागरी सभ्यता थी, जिसने आर्य ब्राह्मणों को आकर्षित किया होगा। यह वही वक्त रहा होगा जब यह विशाल देश सोने की चिड़िया कहने का अधिकार रखता होगा। आप देखें कि आर्यों ने पहले तो बर्बर हमले किए और सभ्यता के अवशेषों पर अपना अधिकार जमाया होगा। पहले उनका इरादा मुमकिन है कि लूटने-खसोटने का रहा होगा। लेकिन यहां की समृद्धि और उपजाऊ जमीन ने उनका इरादा बदल दिया होगा। अब उनके सामने प्राथमिकता यह रही होगी कि इसी धरती पर बसा जाय। तो उन्होंने हिंसक रणनीति के बदले सांस्कृतिक और सामाजिक तरीके से हमले किये। इसी क्रम में उन्होंने वेद, पुराण और स्मृतियों की रचना की। मिथकों को गढ़ना शुरू किया।
इन्हीं मिथकों में से एक है शंकर का मिथक। व्यक्तिगत तौर पर मुझे यह सबसे अलग दिखता है। गोंड परंपरा और इतिहास का अवलोकन करने पर हम पाते हैं कि संभूसेक नामक एक मूलनिवासी शासक भी था और उसकी एक जीवनसंगिनी थी थी, जिसका नाम था– गौरा। तो मुझे लगता है कि शंकर का यह मिथक एक मूलनिवासी शासक के ब्राह्मणीकरण का सबसे नायाब उदाहरण है। इसके जरिए ब्राह्मणों ने मूलनिवासियों को यह संदेश दिया होगा कि देखो हम तुम्हारे सबसे शक्तिशाली शासक को भगवान बना देते हैं और हम भी उसकी वंदना करने को तैयार हैं। तुम कहो तो हम उसे देवाधिदेव महादेव भी कहेंगे। लेकिन तुम भी हमारे ब्रह्मा और विष्णु को मानो।
खैर, शंकर के बिंब की बात करते हैं। कितना खूबसूरत है यह बिंब। एकदम आदिवासियों के जैसे यह मिथक मृगछाल पहनता है। देह पर कोई कपड़ा नहीं। कोई मुकुट नहीं। माथे पर दो बिंब तो इतने शानदार हैं कि मैं इसके लिए आर्य ब्राह्मणों कल्पनाशीलता की दाद देता हूं। माथे पर चंद्रमा और जटा से बहती हुई गंगा। गले में सांप और हाथ में डमरू व त्रिशूल। कोई कह सकता है कि यह कोई ब्राह्मणों का देवता है? लेकिन आर्य ब्राह्मणों ने इसे कर दिखाया और इसके लिए उन्होंने उसके लिंग को भी पूजनीय माना। मुझे लगता है कि लिंग पूजन आर्य ब्राह्मणों के द्वारा किया गया सबसे अलग तरह का समर्पण था। और यह उन्होंने किसी न किसी मजबूरी में ही किया होगा। नहीं तो कोई और वजह मुझे नहीं दिखती है शंकर के लिंग पूजन की।
बहरहाल, ब्राह्मणों ने शंकर के मिथक को सादगी का प्रतीक बताया है। आजकल तो शंकर की जो तस्वीरें सामने आती हैं, उनमें वह गांजा भी पीता है। गांजा का कश लगाता शंकर।
मैं यह सोच रहा हूं कि गांजा पीने को सादगी से कैसे जोड़ा जा सकता है?
खैर, कहां में देश के इतिहास, संस्कृति और परंपराओं में जा फंसा। मैं तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सादगी की चर्चा करना चाहता हूं।
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दरअसल हुआ यह है कि नीतीश कुमार ने अपनी संपत्ति का खुलासा अपनी तरफ से किया है। उनके मुताबिक उनके पास 29 हजार 385 रुपए नकद और बैंक खाते में कुल मिलाकर 42 हजार 767 रुपए हैं। चल और अचल संपत्ति के रूप में उनके पास 58 लाख 85 हजार रुपए की संपत्ति है। जबकि उनके बेटे निशांत के पास कुल संपत्ति की कीमत एक करोड़ 95 लाख है। यह बेहद दिलचस्प है। मैं इसकी सत्यता पर सवाल नहीं उठा रहा।
मैं तो यह सोच रहा हूं कि नालंदा के कल्याणबिगहा और हकीकतपुर में जो नीतीश कुमार की पैतृक संपत्तियां थीं, उन संपत्तियों पर निशांत का अधिकार कैसे हो गया। निशांत के पास पटना के कंकड़बाग में संपत्ति है तो इसकी वजह यह कि यह संपत्ति मंजू आंटी (नीतीश कुमार की पत्नी) को उनके मायके से मिली और दो-तीन भूखंड उन्होंने अपनी कमाई से खरीदी थीं। उन्होंने अपनी संपत्ति में नीतीश कुमार को हिस्सेदार नहीं बनाया था। इसके पीछे की कहानी जो हालांकि जनश्रुतियों (जिनकी पुष्टि मैं नहीं करना चाहता क्योंकि मेरे पास प्रमाण नहीं हैं) पर आधारित है कि नीतीश कुमार और मंजू आंटी के बीच रिश्ते अच्छे नहीं थे। शायद इसलिए नीतीश कुमार के पिता ने भी अपनी संपत्ति में से नीतीश कुमार को निकाल बाहर कर दिया था और हिस्से की सारी संपत्ति बेटे की जगह अपने पोते के नाम पर कर दिया। अब यह उन्होंने क्यों किया, यह तो नीतीश कुमार ही जानते होंगे। इसमें भला मैं क्या टिप्पणी कर सकता हूं। मैं तो अपने पिता की बात कहता हूं। वह आज भी मुझे कहते हैं कि यदि मैंने कोई गलत राह चुनी तो वह मेरे हिस्से की सारी संपत्ति मेरे बेटे जगलाल दुर्गापति के नाम पर कर देंगे।
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खैर, असल मामला यह नहीं है कि नीतीश कुमार से अधिक अमीर उनका बेरोजगार बेटा निशांत है। यह मुमकिन है। नीतीश कुमार अपने वेतन का अधिकांश हिस्सा अपने बेटे को देते होंगे। वैसे भी नीतीश कुमार को महीने में कम से कम साढ़े पांच लाख रुपए तो सरकारी खजाने से मिलते ही होंगे। ऊपर से वह एक अकेले आदमी। न कोई आगे और न कोई पीछे। ऐसे में उनके पास नकदी के रूप में केवल 29 हजार 385 रुपए और बैंक खाते में 42 हजार 767 रुपए हैं, तो सवाल उठता है कि आखिर सादगीपूर्ण जीवन जीनेवाले नीतीश कुमार बाकी का पैसा कहां खर्च करते हैं?
यह सवाल सवाल नहीं होता यदि नीतीश कुमार ने यह घोषित किया होता कि वे अपने वेतन का अधिकांश मुख्यमंत्री सहायाता कोष में जमा कर देते हैं। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया है।
खैर, मैं तो शंकर की गांजा पीते तस्वीर में दिखायी जा रही सादगी को देख रहा हूं। शंकर के पास हिमालय पर महल है। पार्वती जैसी सुंदर पत्नी है। कार्तिकेय और गणेश जैसे प्यारे बच्चे हैं। बेगारी करने को तत्पर गणों की मंडली है। अब इस सादगी पर मेरे जैसा आदमी मुस्कुराए नहीं तो और क्या करे।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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