Thursday, November 21, 2024
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संस्कृति

लोक चेतना में स्वाधीनता की लय खोजने की कोशिश है यह किताब

प्रकृति, संस्कृति और स्त्री किताब के सारे आलेख एक साथ मिलकर एक ऐसी वैचारिकी रचते हैं, जिसमें हमारी पूरी भारतीय परम्परा, राष्ट्रीय जीवन और व्यक्ति की स्वायत्तता का यथार्थपरक चिंतन उभरता है। सृष्टि का संवाह करने वाली नारी की अस्मिता पर यथार्थपूर्ण और आवेशहीन बहुआयामी विमर्श समावेशी और गहरी चिंतन दृष्टि का परिचायक है तथापि प्रखरता और तेजस्विता कहीं से कम नहीं है।

दरभंगा : जनकवि बाबा नागार्जुन एवं दुर्गेंद्र अकारी को जन संस्कृति मंच ने स्मृति दिवस पर शिद्दत से याद किया

नागार्जुन विश्व सर्वहारा के मुक्ति संघर्ष एवं भारतीय क्रांति के उदगाता कवि हैं। बाबा जीवनभर जनमुक्ति के उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहे। नागार्जुन सबसे पहले क्रांतिकारी हैं। दरभंगा में जनकवि बाबा नागार्जुन एवं दुर्गेंद्र अकारी की स्मृति दिवस पर उन्हें याद किया गया।

वह साहित्य अभी लिखा जाना बाकी है जो पूँजीवादी गढ़ में दहशत पैदा करे

समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता का काव्यात्मक रूप में बखान भर करते रहना कविता नहीं कही जा सकती-अपितु समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता के बखान के साथ-साथ उनके निराकरण के लिए दिशा देने; उनसे निबटने के लिए भाव-भूमि प्रस्तुत करने से कविता समग्र होती है। किन्तु व्हाटसएप और फ़ेसबुक के आने से साहित्य की गरिमा को ख़ासी चोट लगी है। लोगों का आम आरोप है कि फ़ेसबुक ख़राब कविताओं से भरा हुआ है।

पश्चिम एशिया के देशों में जबरन पलायन और सिनेमा

विश्व के अबतक के ज्ञात इतिहास में समुदायों के बीच आपसी घृणा और हिंसा के प्रमाण मिलते है। हिंसा और अत्याचार के कारण कमजोर समुदायों को पलायित होने को बाध्य होना पड़ता है। वर्तमान हालात देखकर हम यह उम्मीद नहीं लगा सकते कि यह सब भविष्य में बंद भी हो सकेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं प्रभावित लोगों के मदद का प्रयास अपने निर्धारित प्रोटोकाल के तहत करती हैं लेकिन वे पर्याप्त नहीं होते। दुनिया में हर समय कोई न कोई युद्ध चलता रहता है और लोग रेफ्यूजी बनने को मजबूर होते हैं। चूंकि यह समस्या सार्वभौमिक है इसलिए दुनिया के सभी देशों में उनके ऊपर साहित्य और सिनेमा भी रचा गया है।

सिनेमा : बॉलीवुड भी दक्षिण और दक्षिणपंथ के साए से बच नहीं पाया

कला, सिनेमा और साहित्य पर देश की राजनीति का असर साफ़ तौर पर पड़ता है। 2014 के बाद मनोरंजन के सबसे बड़े, प्रिय और चर्चित माध्यम सिनेमा में जो बदलाव देखने को मिला, उससे सभी लोग परिचित हैं। संघ मनोरंजन की इस दुनिया में भी घुसपैठ कर वैचारिक वर्चस्व को बरकरार करने में कामयाब हो गया। साथ ही ओटीटी जैसे माध्यम आ जाने के बाद पैन इंडिया सिनेमा के चलते दक्षिण के सिनेमा और उसके अभिनेताओं/अभिनेत्रियों का वर्चस्व हिंदी भाषी दर्शकों पर पड़ने से बॉलीवुड के कलाकारों की चमक फीकी हुई है।

लोक चेतना में स्वाधीनता की लय खोजने की कोशिश है यह किताब

प्रकृति, संस्कृति और स्त्री किताब के सारे आलेख एक साथ मिलकर एक ऐसी वैचारिकी रचते हैं, जिसमें हमारी पूरी भारतीय परम्परा, राष्ट्रीय जीवन और व्यक्ति की स्वायत्तता का यथार्थपरक चिंतन उभरता है। सृष्टि का संवाह करने वाली नारी की अस्मिता पर यथार्थपूर्ण और आवेशहीन बहुआयामी विमर्श समावेशी और गहरी चिंतन दृष्टि का परिचायक है तथापि प्रखरता और तेजस्विता कहीं से कम नहीं है।

दरभंगा : जनकवि बाबा नागार्जुन एवं दुर्गेंद्र अकारी को जन संस्कृति मंच ने स्मृति दिवस पर शिद्दत से याद किया

नागार्जुन विश्व सर्वहारा के मुक्ति संघर्ष एवं भारतीय क्रांति के उदगाता कवि हैं। बाबा जीवनभर जनमुक्ति के उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहे। नागार्जुन सबसे पहले क्रांतिकारी हैं। दरभंगा में जनकवि बाबा नागार्जुन एवं दुर्गेंद्र अकारी की स्मृति दिवस पर उन्हें याद किया गया।

वह साहित्य अभी लिखा जाना बाकी है जो पूँजीवादी गढ़ में दहशत पैदा करे

समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता का काव्यात्मक रूप में बखान भर करते रहना कविता नहीं कही जा सकती-अपितु समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता के बखान के साथ-साथ उनके निराकरण के लिए दिशा देने; उनसे निबटने के लिए भाव-भूमि प्रस्तुत करने से कविता समग्र होती है। किन्तु व्हाटसएप और फ़ेसबुक के आने से साहित्य की गरिमा को ख़ासी चोट लगी है। लोगों का आम आरोप है कि फ़ेसबुक ख़राब कविताओं से भरा हुआ है।

पश्चिम एशिया के देशों में जबरन पलायन और सिनेमा

विश्व के अबतक के ज्ञात इतिहास में समुदायों के बीच आपसी घृणा और हिंसा के प्रमाण मिलते है। हिंसा और अत्याचार के कारण कमजोर समुदायों को पलायित होने को बाध्य होना पड़ता है। वर्तमान हालात देखकर हम यह उम्मीद नहीं लगा सकते कि यह सब भविष्य में बंद भी हो सकेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं प्रभावित लोगों के मदद का प्रयास अपने निर्धारित प्रोटोकाल के तहत करती हैं लेकिन वे पर्याप्त नहीं होते। दुनिया में हर समय कोई न कोई युद्ध चलता रहता है और लोग रेफ्यूजी बनने को मजबूर होते हैं। चूंकि यह समस्या सार्वभौमिक है इसलिए दुनिया के सभी देशों में उनके ऊपर साहित्य और सिनेमा भी रचा गया है।

सिनेमा : बॉलीवुड भी दक्षिण और दक्षिणपंथ के साए से बच नहीं पाया

कला, सिनेमा और साहित्य पर देश की राजनीति का असर साफ़ तौर पर पड़ता है। 2014 के बाद मनोरंजन के सबसे बड़े, प्रिय और चर्चित माध्यम सिनेमा में जो बदलाव देखने को मिला, उससे सभी लोग परिचित हैं। संघ मनोरंजन की इस दुनिया में भी घुसपैठ कर वैचारिक वर्चस्व को बरकरार करने में कामयाब हो गया। साथ ही ओटीटी जैसे माध्यम आ जाने के बाद पैन इंडिया सिनेमा के चलते दक्षिण के सिनेमा और उसके अभिनेताओं/अभिनेत्रियों का वर्चस्व हिंदी भाषी दर्शकों पर पड़ने से बॉलीवुड के कलाकारों की चमक फीकी हुई है।

हिंदी सिनेमा प्रवासियों का चित्रण सही परिप्रेक्ष्य में नहीं कर सका है

सिनेमा ने प्रवासी जीवन को सम्पूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया है। बॉलीवुड बाजारोन्मुखी है, उसको प्रवासियों की वास्तविक समस्याओं से अधिक अपने मुनाफे में दिलचस्पी है। यहाँ जो फिल्में बनी हैं उस पर गौर करें तो पाएंगे उनमें पंजाबी चरित्र ही प्रमुख हैं। वहां शेष भारत वासी लगभग अनुपस्थित ही नजर आएंगे। वहां न तो दक्षिण भारतवंशी दिखेंगे और न ही लाखों पुरबिये गिरमिटिया मजदूरों (हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों) के वंशज। इस लिहाज से हमारा सिनेमा अभी एकांगी और यथार्थ से बहुत दूर ही है।