Sunday, October 27, 2024
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पश्चिम एशिया के देशों में जबरन पलायन और सिनेमा

विश्व के अबतक के ज्ञात इतिहास में समुदायों के बीच आपसी घृणा और हिंसा के प्रमाण मिलते है। हिंसा और अत्याचार के कारण कमजोर समुदायों को पलायित होने को बाध्य होना पड़ता है। वर्तमान हालात देखकर हम यह उम्मीद नहीं लगा सकते कि यह सब भविष्य में बंद भी हो सकेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं प्रभावित लोगों के मदद का प्रयास अपने निर्धारित प्रोटोकाल के तहत करती हैं लेकिन वे पर्याप्त नहीं होते। दुनिया में हर समय कोई न कोई युद्ध चलता रहता है और लोग रेफ्यूजी बनने को मजबूर होते हैं। चूंकि यह समस्या सार्वभौमिक है इसलिए दुनिया के सभी देशों में उनके ऊपर साहित्य और सिनेमा भी रचा गया है।

सिनेमा : बॉलीवुड भी दक्षिण और दक्षिणपंथ के साए से बच नहीं पाया

कला, सिनेमा और साहित्य पर देश की राजनीति का असर साफ़ तौर पर पड़ता है। 2014 के बाद मनोरंजन के सबसे बड़े, प्रिय और चर्चित माध्यम सिनेमा में जो बदलाव देखने को मिला, उससे सभी लोग परिचित हैं। संघ मनोरंजन की इस दुनिया में भी घुसपैठ कर वैचारिक वर्चस्व को बरकरार करने में कामयाब हो गया। साथ ही ओटीटी जैसे माध्यम आ जाने के बाद पैन इंडिया सिनेमा के चलते दक्षिण के सिनेमा और उसके अभिनेताओं/अभिनेत्रियों का वर्चस्व हिंदी भाषी दर्शकों पर पड़ने से बॉलीवुड के कलाकारों की चमक फीकी हुई है।

हिंदी सिनेमा प्रवासियों का चित्रण सही परिप्रेक्ष्य में नहीं कर सका है

सिनेमा ने प्रवासी जीवन को सम्पूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया है। बॉलीवुड बाजारोन्मुखी है, उसको प्रवासियों की वास्तविक समस्याओं से अधिक अपने मुनाफे में दिलचस्पी है। यहाँ जो फिल्में बनी हैं उस पर गौर करें तो पाएंगे उनमें पंजाबी चरित्र ही प्रमुख हैं। वहां शेष भारत वासी लगभग अनुपस्थित ही नजर आएंगे। वहां न तो दक्षिण भारतवंशी दिखेंगे और न ही लाखों पुरबिये गिरमिटिया मजदूरों (हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों) के वंशज। इस लिहाज से हमारा सिनेमा अभी एकांगी और यथार्थ से बहुत दूर ही है।

बाल विवाह : आज भी नहीं मुक्त हो पा रहे राजस्थान के गांव

बाल विवाह बच्चों के अधिकारों का अतिक्रमण करता है जिससे उनपर हिंसा तथा यौन शोषण का खतरा बना रहता है। हालांकि बाल विवाह लड़कियों और लड़कों दोनों पर असर डालता है, लेकिन इसका प्रभाव सबसे अधिक लड़कियों के जीवन पर पड़ता है। इससे उनके विकास के अवसर छिन जाते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि एक प्रभावी नीति बनाई जाए जिससे लड़कियों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध हो सके और बाल विवाह जैसे दंश से उन्हें मुक्ति मिल सके।

सिनेमा किस तरह उठा रहा है युवाओं के मुद्दे

श्रीलंका(2022) और बांग्लादेश (2024) में जब बात हद से आगे बढ़ी और निजाम अपनी जनता से दूर होकर तानाशाही को अपनाने लगा तो युवाओं ने उन्हें सत्ता से उखाड़कर फेंक दिया। हर देश के हुक्मरानों को युवाओं के मुद्दों को विशेष संवेदनशीलता से निस्तारित करना चाहिए अन्यथा जिस ओर जवानी चलती है उस ओर जमाना चल पड़ता है और कोई भी सत्ता उन्हें रोक नहीं सकती। बॉलीवुड की अनेक फिल्मों में युवाओं को समाज और राजनीति के तंत्र के विरोध में लड़ते दिखाया गया है।

निर्देशक प्रसन्ना की तीन-दिवसीय नाट्य कार्यशाला : श्रम के साथ अभिनय सीखा प्रतिभागियों ने

नाटककार प्रसन्ना एक सहज निर्देशक हैं। उन्होंने नाटक के कथ्यों की जटिलता को बहुत ही आसानी से प्रस्तुत करने के गुर कार्यशाला में उपस्थित अभिनेताओं को बताये। कोई भी व्यक्ति एक्शन-रिएक्शन कर लेने या संवाद बोल लेने से अभिनेता नहीं बन जाता बल्कि को चरित्र को जीते हुए उसमें घुसना जरूरी होता है इसका कोई फार्मूला नहीं होता बल्कि उस तक पहुँचने के लिए अभिनय के साथ मंच पर प्रस्तुति के दौरान ध्यान रखी जानी वाली बारीक बातों को प्रसन्ना ने साझा किया।

इंदौर में याद-ए-हबीब : ‘जिन लाहौर नईं वेख्या’ ने मनुष्यता की ऊँचाई दिखायी

हबीब तनवीर को उनके ही द्वारा मंचित और निर्देशित नाटक के अंश और नाटकों में गाये गीतों के माध्यम से 10 जून 2024 को इंदौर के अभिनव कला समाज सभागृह में "याद-ए-हबीब" कार्यक्रम में याद किया। श्रोताओं और दर्शकों की संख्या सभागार की क्षमता पार कर गई थी और नीचे बैठे और खड़े हुए लोगों ने भी अपनी जगह छोड़ना गवारा नहीं किया जब तक कार्यक्रम चलता रहा।

सिनेमा ने युद्ध को मनोरंजन का माध्यम बनाया तो महिलाओं की दुर्दशा और जीवटता को भी दिखाया

सिनेमा बनाने वाले सिनेमा के विषय समाज से उठाते हैं भले ही उसका ट्रीटमेंट वे कैसे भी करें। बॉलीवुड हो या हॉलीवुड इधर युद्ध आधारित सिनेमा का चलन बढ़ा है। यह जरूर है कि विदेशी फिल्मों में भारत जैसे देशभक्ति का बखान नहीं दिखाया जाता। इधर महिला सैनिकों के जुनून पर भी अनेक फिल्में बनी। पढ़िये डॉ राकेश कबीर का यह आलेख

सिनेमा में लड़ती हुई औरत केवल देह नहीं रही है

दुनिया के हर हिस्से में पुरुषों द्वारा स्त्रियॉं का शोषण किया जाता है, उनका उत्पीड़न किया जाता है। वे केवल स्त्री को उपभोग की एक देह के अलावा कुछ नहीं समझते। पितृसत्ता समाज में अधिकतर पुरुष दंभ का शिकार होते हुए संवेदनहीन होते हैं। समाज की यही सच्चाई दुनिया भर के सिनेमा में सामने आई है, जिसमें स्त्रियॉं उनसे मुक़ाबला करते हुए जीत हासिल की हैं।

दहेज के नाम पर प्रतिदिन लगभग 20 लड़कियां मारी जा रही हैं

बरसों से शादी के समय दिए जाने उपहार भले ही लड़कोयों को दिए जाते रहे हों लेकिन वास्तव में यह दहेज है, जिसे लड़के वाले मुंह खोलकर मांगते हैं, जैसे अपने बेटे की बोली लगा रहे हों। लड़कीं के माता-पिता, बेटी खुश रहेगी इसके चलते उनकी मांग पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन इसके बाद भी दहेज के नाम पर लड़कियों की हत्याएं आए दिन सुनने को मिल रही है। साल 2017 से 2021 के बीच देश भर में दहेज के नाम पर करीब 35,493 हत्या के मामले दर्ज किए गए थे, यानी प्रतिदिन लगभग 20 मामले दहेज के नाम पर होने वाली हत्या के दर्ज किए गए, जो बहुत ही चिंता की बात है।

अमेरिकी रंगभेद के खिलाफ़ चिकानो सिनेमा और ग्रेगरी नावा की फिल्में

अमेरिका में रहने वाले कुल आप्रवासियों में 24 प्रतिशत के लगभग मेक्सिकन लोग रहते हैं जो कि सबसे बड़ा अप्रवासी समूह है। सन 2019 में लगभग 11 मिलियन मेक्सिको में पैदा हुए व्यक्ति अमेरिका में रहते थे। मेक्सिको के अप्रवासियों की संख्या लगातार घटने के बावजूद अभी भी इनकी संख्या बहुत बड़ी है। अप्रवासी होने के कारण अमरीका में रहने वाले मेक्सिकन हॉलिवुड में उपेक्षित होकर अपने जीवन, संस्कृति और सच्चाइयों पर फिल्में बनाईं और खुद को स्थापित किया।