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ग्राउंड रिपोर्ट

फुले-अंबेडकर विचारधारा को समर्पित गेल ओमवेट ने अमेरिका छोड़ भारत के एक गाँव में रहने का निर्णय लिया

गेल ओमवेट नहीं रहीं। आज 25 अगस्त की सुबह पाटणकर परिवार के ऐतिहासिक घर में उन्होंने अंतिम सांस ली। यह वह घर है , जिससे उन्हें बेहद लगाव था और जिसके लिए वह शहर छोड़कर गाँव में रहने को तैयार हुईं। 18 अगस्त को मैं अपने प्रिय मित्र राहुल निर्मल के साथ उनसे मिलने गया […]

गेल ओमवेट नहीं रहीं। आज 25 अगस्त की सुबह पाटणकर परिवार के ऐतिहासिक घर में उन्होंने अंतिम सांस ली। यह वह घर है , जिससे उन्हें बेहद लगाव था और जिसके लिए वह शहर छोड़कर गाँव में रहने को तैयार हुईं। 18 अगस्त को मैं अपने प्रिय मित्र राहुल निर्मल के साथ उनसे मिलने गया था तब मुझे पता चला कि उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है। उनकी वैयक्तिकता का सम्मान करते हुए हमने इस मुलाक़ात के विषय में उस समय कुछ नहीं कहा। उनकी हालत बिगड़ती जा रही थी और उनके साथी भारत पाटनकर महाराष्ट्र के कासेगांव में अपने पैतृक घर में उनकी सेवा करने के लिए सब कुछ कर रहे थे, जहां गेल और भरत ने लोगों के लिए रहने और काम करने का फैसला किया।

गिल ओमवेट की किताबें

गेल को महाराष्ट्र में फुले-अम्बेडकर आंदोलन के असाधारण दस्तावेजीकरण के लिए जाना जाता है। महाराष्ट्र के बहुजन कवियों और सूफियों पर उनका काम, जिसका उन्होंने मराठी से अंग्रेजी में अनुवाद किया, फुले-अंबेडकर विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। उनके अत्यंत महत्वपूर्ण कामों में से कुछ हैं औपनिवेशिककाल में समाज में सांस्कृतिक विद्रोह: पश्चिमी भारत गैर ब्राहमण आन्दोलन 1873-1930, दलित और लोकतांत्रिक क्रांति, दलित विजनतुकोबा के गीत बेगमपुरा की तलाश में, अछूत संत, ज्योति राव फुले और भारत में सामाजिक विद्रोह की विचारधारा।  उनका वैचारिक धरातल और कार्य बहुत विस्तृत था। दुनिया की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में वह लिखती रहती थीं और भारत के भी सभी प्रतिष्ठित अखबारों में उनके लेख छपते थे। वह आर्म चेयर स्कॉलर नहीं थीं, बल्कि लोगों से मिलने के साथ-साथ अपने पति भारत पाटनकर के साथ काम करती थीं, जो कोंकण क्षेत्र के जल अधिकारों पर काम करते हैं, खासकर क्षेत्र में पानी के सवाल और छोटे बांधों के निर्माण को लेकर।

गेल का जन्म 2 अगस्त, 1941 को मिनियापोलिस, मिनेसोटा, संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ था । भारत के साथ उनके ‘प्रेम’ की शुरुआत 1963-64 से हुई जब उन्होंने अपनी मास्टर्स डिग्री पूरी कर ली थी। वह दलित आंदोलन के साथ-साथ जाति विरोधी आंदोलन से भी प्रभावित थीं। यहाँ आकर उन्होंने गैर ब्राह्मण आन्दोलन के साथ कार्य करना शुरू किया। 1970-71 में अपने शोध को लेकर वह फिर से भारत आ गईं।  यहाँ 1976 में भारत पाटणकर  के साथ विवाह किया। 1983 में उन्होंने आधिकारिक तौर पर भारतीय नागरिकता स्वीकार कर ली और महाराष्ट्र में सतारा जिले के एक गाँव कासेगांव में रहने लगीं जो भारत पाटणकर का पैतृक घर है और जहाँ से उनके परिवार की एक ऐतिहासिक विरासत जुडी है। गेल  को दुनिया भर में अम्बेडकरवाद, दलित आन्दोलन, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले आदि विषयों पर बात रखने के लिए बुलाया जाता था और बहुत से संस्थानों से वह सीधे जुडी रहीं।  वह नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी की फेलो थीं और इंदिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी से भी जुड़ी रहीं। भुवनेश्वर में निस्वास नामक शोध संस्थान में वह आंबेडकर चेयर बनीं।  देश-दुनिया में जाने के बावजूद कासेगांव उनका प्रिय स्थान था, जहाँ वह जन आन्दोलनों से जुड़ीं और पानी के प्रश्न पर अपने पति भारत पाटणकर के द्वारा उठाये गए सवालों को को आगे बढ़ाया।

1990 में अंग्रेजी के विख्यात साहित्यकार डॉ. मुल्कराज आनंद मुझे दिल्ली लाये। मैं उनके साथ रहने लगा और उनके घर में मौजूद दुनिया भर के साहित्य की थोड़ी-बहुत जानकारी मुझे होने लगी। वही एलिनॉर ज़िलियट और गेल ओम्वेट के साहित्य के विषय में पता चला क्योंकि दुनिया के बड़े-बड़े साहित्यकार उनके यहाँ आते थे और बहुत से सवालों पर चर्चा करते थे। पहली बार मैंने उन्हें दलित विज़न से जाना और मुझे इस पुस्तक ने इतना प्रभावित किया कि मुझे लगा मै डाक्टर आंबेडकर का साहित्य मूल रूप में पढ़ूँ।

गेल ओमवेट और भारत पाटणकर के साथ विद्या भूषण रावत

1992 से ही मैं अम्बेडकरी आन्दोलन में सक्रिय हुआ और भगवान दास, एन जी उइके और वी टी राजशेखर के संपर्क में आया और बाबा साहेब को लेकर मेरी समझ और मज़बूत बनती गयी। मुझे लगने लगा था कि बुद्धिज़्म का उनका रास्ता ही अंतिम उपाय है। 1996 के बाद से ही मैंने एक संगठन के जरिये स्वच्छकार समाज के बीच में उत्तर प्रदेश के मोहम्मदाबाद शहर में काम करना शुरू किया। दिल्ली की साहित्यिक राजनीति से दूर हटकर मैंने अम्बेडकरवाद का मतलब उन समुदायों में ढूँढने की कोशिश की जहाँ न हमारा साहित्य पहुंचा था और न ही हमारे सामाजिक कार्यकर्ता। एक अम्बेडकरवादी होने के नाते मुझे लगा कि रोने-धोने की कहानी न कह कर हम जो कर सकते हैं वह किया जाए। मुहम्मदाबाद शहर में हमारे कार्य ने स्वच्छकार समाज के युवाओं में आशा की एक नयी किरण भर दी।  बच्चे अब स्कूल जा रहे थे और उनके लिए एक छोटे से ट्रेनिंग सेण्टर की शुरुआत कर दी गयी थी जिसमें वे कंप्यूटर शिक्षा ले रहे थे।  लड़कियों में बहुत आत्मविश्वास आना शुरू हुआ।

गेल को मेरे लेखों के जरिये इनकी जानकारी मिलती रही और वे ईमेल के जरिये संपर्क में आ गईं। वर्ष 2004 के बाद से वह दिल्ली अक्सर आती रहती थीं और फिर उन्होंने एक दिन मुझसे संपर्क किया और मिलने के लिए कहा। वह एक संगठनात्मक साझेदारी विकसित करने के लिए बहुत उत्सुक थीं और कई लोगों से ‘चेतना बढ़ाने’ के काम के बारे में बात की, जिसे हम प्रकाशन, वीडियो, व्यक्तिगत कहानियां, मौखिक और अन्य माध्यमों के रूप में एक साथ करने की योजना बना रहे थे। वह जब भी दिल्ली आतीं तो मुझे साउथ एक्सटेंशन आने के लिए के लिए कहतीं। वह चाहती थीं कि मेरे जैसे लोग, जिन्होंने जमीन पर काम किया है और जो तथ्यात्मक तौर पर लिख रहे है, उन्हें अकादमिक जगत के साथ काम पर लाया जाना चाहिए। वास्तव में, जब वह इग्नू के साथ काम कर रही थीं, तो उन्होंने कहा कि मेरे, चंद्रभान प्रसाद, जो अपने लेखन और काम के माध्यम से योगदान देते रहे हैं, जैसे लोगों को विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध कार्य से जुड़ा होना चाहिए। क्योंकि उनका मानना था कि अम्बेडकरी-फुलेवादी आन्दोलन में ऐसे बहुत लोग हैं जिन्होंने बहुत अधिक कार्य किया है। उनकी उपस्थिति अकादमिक डिस्कोर्स को ही मजबूत करेगी।

मैं गेल के काम, विशेषकर दलित बहुजन संतों और मानवतावाद पर उनके काम से बहुत प्रभावित हुआ हूं। शायद उस तरह का काम विशेष रूप से मराठी कविता का अंग्रेजी में अनुवाद इससे पहले नहीं किया गया था। एक गैर-मराठी भाषी व्यक्ति के लिए महाराष्ट्र के संतों और कवियों के बारे में जानने के लिए यह बहुत मूल्यवान काम था। बेशक यह गेल के कारण संभव हुआ। उन्होंने मुझसे अपनी कई रचनाएं साझा कीं।”

जब वह बलिजन सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बनीं, तो वह चाहती थीं कि मैं इसका हिस्सा बनूं और मैं इसमें शामिल हो गया क्योंकि मुझे लगा कि उनकी उपस्थिति हम सभी को प्रेरित करने के लिए पर्याप्त है। बेशक, ऐसे कई मुद्दे थे जिनसे वह खुद असहज थीं लेकिन मैं कहूंगा कि जब भी वह कुछ बोलती हैं तो वह साहसी और स्पष्ट होती हैं। नागपुर में एक बलिजन सभा में, जब सभी एक साथ हमारे काम पर चर्चा कर रहे थे, एक मुद्दा आया कि बलिजन आंदोलन का सदस्य कौन हो सकता है। सत्र की अध्यक्षता प्रो. कांचा इलैया कर रहे थे। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के हमारे कुछ दोस्तों ने दलित, ओबीसी, अल्पसंख्यकों, कबीरपंथियों आदि की अस्मिताओं का सवाल उठाया और उनसे इतर किसी भी व्यक्ति की वैचारिक निष्ठा पर सवाल खड़े कर दिए। इसका अर्थ यह होता कि बहुजन समाज के ‘सभी लोग’ अपनी पैदाइश के ही आधार पर बलिजन आन्दोलन के सदस्य बन जाते। लेकिन जो दूसरे लोग उनसे जुड़ना चाहते थे उन्हें जन्म के आधार पर बाहर कर दिया जाता, जिससे किसी और का सदस्य बनना लगभग असंभव था  दरअसल बहुत से लोगों को भय था कि सवर्ण भी अम्बेडकरवादी और कबीरपंथी होने के नाम पर सदस्य बन जायेंगे और फिर नेतृत्व हथिया लेंगे। वे लोग यह भूल गए कि वैचारिक आन्दोलनों के लिए वैसे ही लोगों की जरूरत भी होती है। नेतृत्व का सवाल तो पहले से ही साफ़ होता है और वह किसी को दहेज़ में नहीं मिलता। ज्यादा से ज्यादा आप यह कह सकते है कि गैरदलित बहुजन नेतृत्व में नहीं आ सकते। यह केवल उन लोगों पर हमला किया जाता है जो अपनी पहचान छोड़कर नए आन्दोलन से जुड़ते हैं। आखिर फुले और बाबा साहेब के बहुत से नजदीकी साथी तथाकथित अन्य बिरादरियो के थे। किसी भी आन्दोलन की ताकत उसकी विविधता में होती है । उसकी विविधता इस बात में होती है कि वह कैसे अन्य लोगों को साथ लेता है। जन्म के आधार पर आपके कार्य मनुवाद ने निर्धारित किये थे और इस प्रकार की सोच उसे ही मज़बूत करती है। गेल इस पूरी घटना से नाराज थीं क्योंकि वह भी कार्यकारणी की सदस्य थीं। इस प्रकार की  क्राइटेरिया को लागू किया जाता तो उनका समिति का सदस्य होना भी गलत होता। बाद में प्रो. कांचा इलेय्या ने उनको समझाया। उन्होंने कहा कि अगर इस तरह के मानदंड इसका हिस्सा बन जाते हैं तो उनके लिए इस तरह के आंदोलन के साथ जुड़ना मुश्किल होगा। एक बातचीत में, मैंने उनसे कहा कहा कि वह मुझसे ज्यादा भारतीय हैं क्योंकि वह 1963-64 में भारत आ रही थीं और इसे ज्यादा अच्छी तरह जानती थीं जबकि मेरा जन्म चार साल बाद हुआ था।

“मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह मेरे काम को स्वीकार कर रही थीं और मुझे मौखिक परंपराओं को लिखने और दस्तावेज़ लाने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी, विशेष रूप से कबीर, रैदास और बहुजन संत परम्पराओं को। वह युवा विचारकों को प्रोत्साहित करने और ऐसे लेखकों, फिल्म निर्माताओं, कार्यकर्ताओं का एक नेटवर्क बनाने की इच्छुक थीं जो साथी नागरिकों के बीच जागरूकता ला सकें।”

मैं कई बार उनका इंटरव्यू लेना चाहता था लेकिन किसी तरह उनके व्यस्त कार्यक्रम, उनके अपने शोध कार्य के कारण ऐसा नहीं हो सका। साथ ही, जैसा कि हम नियमित रूप से बोलते रहे हैं, मुझे एहसास हुआ, शायद, वह इसको लेकर सहज नहीं थीं। जब वह दिल्ली में थीं तब एक दिन, मैंने उनका साक्षात्कार करने की योजना बनाई थी। हम भारतीय सामाजिक संस्थान की छत पर मिले। मैंने उसकी कुछ तस्वीरें लीं लेकिन इंटरव्यू नहीं हो सका। उसके बाद जब मैं दो साल पहले पुणे गया था, तब सोचा था कि मैं उनका साक्षात्कार लूंगा, लेकिन उस समय वह ठीक नहीं थीं।  भारत जी उनके साथ थे और मुझे लगा शायद वह पहचानेंगी लेकिन जब वह बिलकुल नहीं पहचानीं और कुछ जवाब नहीं दे रही थीं तो मुझे समझ आ गया था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। सच कहूँ तो, यह मेरे लिए एक बहुत ही कठिन साक्षात्कार था जो मुझे  दरअसल गेल के साथ करना था। मैंने अपना संयम बनाए रखा और उनके स्वास्थ्य को लेकर कोई बात नहीं की और सीधे भारत जी से सवाल शुरू कर दिया। अंत में यह साक्षात्कार भी बेहद महत्वपूर्ण बन गया क्योंकि  भारत पाटणकर ने बेहद सधे  हुए जवाब दिए।  मुझे इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह लगी कि  भारत जी ने कभी भी गेल को अपने से अलग नहीं किया। आंबेडकर फुले आन्दोलन का यह एक बहुत अच्छा उदहारण है।

अपने पति भारत पाटणकर के साथ

मैं गेल के काम, विशेषकर दलित बहुजन संतों और मानवतावाद पर उनके काम से बहुत प्रभावित हुआ हूं। शायद उस तरह का काम विशेष रूप से मराठी कविता का अंग्रेजी में अनुवाद इससे पहले नहीं किया गया था। एक गैर-मराठी भाषी व्यक्ति के लिए महाराष्ट्र के संतों और कवियों के बारे में जानने के लिए यह बहुत मूल्यवान काम था। बेशक यह गेल के कारण संभव हुआ। उन्होंने मुझसे अपनी कई रचनाएं साझा कीं।

मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह मेरे काम को स्वीकार कर रही थीं और मुझे मौखिक परंपराओं को लिखने और दस्तावेज़ लाने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी, विशेष रूप से कबीर, रैदास और बहुजन संत परम्पराओं को। वह युवा विचारकों को प्रोत्साहित करने और ऐसे लेखकों, फिल्म निर्माताओं, कार्यकर्ताओं का एक नेटवर्क बनाने की इच्छुक थीं जो साथी नागरिकों के बीच जागरूकता ला सकें।

उनका काम बोलता था लेकिन वह स्वयं को सामने नहीं आने देती थीं। उनकी यह विशेषता उन्हें यहाँ के अन्य शिक्षाविदों से बहुत अलग करती है। यहाँ लोग अपनी ‘दृश्यता’ के लिए अधिक जाने जाते हैं, न कि अपने ‘काम’ के लिए । गेल ने जितना काम किया है वह न केवल असाधारण है बल्कि प्रेरक भी है। एक व्यक्ति, जो यहां पैदा नहीं हुआ है, वह किसी विशेष जाति या समुदाय का नहीं हो सकता है, लेकिन एक मानवतावादी के रूप में जुनून की हद तक जाकर काम करता है।  एक समुदाय या समाज के उत्थान के लिए काम करने के लिए आपको प्रतिबद्ध विचारधारा की आवश्यकता है, भले ही आप किसी विशेष समुदाय में पैदा न हुये हों। उन्होंने कभी भी उन समुदायों को ‘बोलने’ या ‘नेतृत्व’ करने के लिए अहंकार का कोई संकेत नहीं दिया। समुदायों में काम करने वालों में से अधिकांश ऐसा बन जाते हैं। मुझे उनके बारे में यह पसंद है कि वह अपने काम का पूरी तरह से आनंद लेती थीं और कभी भी इसके बारे में घमंड नहीं करती थीं।

अरुंधति रॉय के काम की उनकी आलोचना ने कई लोगों को परेशान किया। मैंने वास्तव में उनसे इस पर सवाल किया था, लेकिन यह वह समय था जब गेल ने मुझसे भारत पाटणकर के जल संरक्षण से संबंधित कार्यों के बारे में बात की। उन लोगों ने छोटे बांधों का निर्माण किया, जिससे पता चलता है कि पानी के अधिकार का मतलब पीने के पानी तक पहुंच का अधिकार नहीं है, बल्कि किसानों को उनकी फसलों के लिए पानी प्राप्त करने का अधिकार भी है। कई लोगों को लगा कि वह ‘जानबूझकर’ मार्क्सवाद की आलोचना कर रही हैं और ईसाई चर्च के प्रति नरम हैं लेकिन ये तर्क पूरी तरह से अतिरेक हैं।  शायद वे लोग उन्हें एक कोण से पढ़ते हैं। गेल का काम इतना बड़ा है कि उन्हें ऐसे वन-लाइनर तक सीमित नहीं किया जा सकता। उनका दलित विजन समय की मांग है। सभी दलित बहुजन संत वास्तव में मानवतावाद, प्रेम और करुणा की बात करते थे।

इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में पूंजीवाद, वैश्वीकरण, दलित और आदिवासी शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख वह वह जोरदार ढंग से समझाती है, ‘दलितों, महिलाओं और अन्य लोगों को वास्तविक मूल लोकतांत्रिक मांगों को छोड़कर ‘वैश्वीकरण से लड़ने के लिए’ कहना, वास्तविक विश्लेषण और बिना समझ का है। बिना यह विकल्प बताये कि जिस स्थिति में वे खुद को पाते हैं, उससे कैसे निपटें। यह आपदा का नुस्खा है। यह किसी भी आंदोलन के नेतृत्व को पुरुष, उच्च जाति के अभिजात वर्ग के साथ-साथ उनके  राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक बनाने के लिए केंद्रित रखने का एक नुस्खा भी हो सकता है। जिस चीज की जरूरत है, वह न केवल वर्तमान व्यवस्था का विकल्प है, बल्कि इसके लिए वामपंथी आन्दोलन और मौजूदा  और पारिस्थितिक चुनौतियों का भी भली प्रकार से विश्लेषण होना चाहिए। (EPW, 19 वें नवम्बर, 2005)।

मेरे लिए, उनका काम केवल किताबें लिखने का ही नहीं था, बल्कि वह युवा लेखकों, कार्यकर्ताओं, विचारकों, सामाजिक कार्य करने वाले लोगों की एक टीम बनाने के लिए भी उत्सुक थीं, जो जमीन से कहानियां ला सकें। मौखिक परंपराओं का दस्तावेज़ीकरण कर सकें और विभिन्न समुदायों को एक साथ ला सकें। आंदोलन की उनकी समझ और इसकी विविधता को स्वीकार करना हमारी पीढ़ी के लिए महत्वपूर्ण है। उसके लिए इन संबंधों को फिर से शुरू करना महत्वपूर्ण है और भारत को उस मानवतावादी दृष्टि की पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है।

वर्षों से, वह फुले-आंबेडकर विचारधारा को समर्पित बलिजन आंदोलन और ऐसे अन्य आंदोलनों में शामिल हो रही थीं। इस मामले यह तथ्य उल्लेखनीय है कि गेल का काम केवल अकादमिक नहीं था, बल्कि उन्होंने भारत पाटणकर और अन्य मित्रों के साथ-साथ श्रमिक मुक्ति दल, स्त्री मुक्ति संघर्ष और शेतकरी महिला अघाड़ी आदि का निर्माण किया। महिलाओं के अधिकार और स्वायत्तता पर उनके विचारों की स्पष्टता सबसे अच्छी तरह से परिलक्षित होती है प्रसिद्ध लेखिका, अनुवादक मीना कंडास्वामी के साथ एक साक्षात्कार में। गेल कहती हैं, ‘जाति तभी बच सकती है जब महिलाओं की कामुकता पर नियंत्रण हो! जाति की पहचान बनाए रखने के लिए आपको विवाह को जाति के भीतर रखना होगा। मराठी में कहा जाता है कि रोटी-बेटी -व्यवहार, ‘रोटी और लड़कियों का आदान-प्रदान’ जाति के भीतर होना चाहिए। ऐसा होने के लिए, लड़कियों को युवावस्था से पहले नियंत्रित करना होगा और फिर जाति में ही उनकी शादी कर देनी चाहिए, ताकि  जाति के लिए कोई खतरा नहीं हो। यदि मनुष्य किसी के साथ मैथुन करे, तो वह अशुद्ध नहीं होता, क्योंकि वीर्य निकल जाता है; महिला प्रदूषित है क्योंकि वह इसे अंदर ले जाती है। (इसी तरह कई मानवविज्ञानी इसका विश्लेषण करते हैं)। तो मनु कहते हैं, ‘युवा महिलाओं को अपने पिता के नियंत्रण में रहना चाहिए, वयस्क होने पर अपने पति के अधीन होना चाहिए। बुढ़ापे में अपने बेटों के नियंत्रण में होना चाहिए। तो इसका मतलब सिर्फ यही हुआ कि महिलाओं को कभी भी स्वतंत्र नहीं होना चाहिए।’

एक अन्य प्रश्न के उत्तर में गेल महिलाओं के लिए भूमि और संपत्ति के अधिकारों के मुद्दे के बारे में अपनी स्पष्ट राय थी, जब उन्होंने कहा, ‘अम्बेडकर के शब्द, ‘शिक्षित बनो, संघर्ष करो और संगठित हो’ – हम सभी के लिए आज भी बेहद महत्वपूर्ण है। महिलाओं को अपने भूमि अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। उनके पास यह अधिकार न होने का एकमात्र कारण यह है कि पूरी व्यवस्था इतनी पितृसत्तात्मक है कि केवल पुरुषों को ही नाम, संपत्ति और भूमि के उत्तराधिकारी के रूप में देखती  है। यह जाति-पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का हिस्सा है और इसे खत्म करने के लिए हमें मिलकर लड़ना होगा।

जब अगस्त 2011 में यूपीए के तहत सरकार द्वारा यूआईडी प्रक्रिया शुरू की गई, तो उन्होंने हमें इसके खिलाफ याचिका पर हस्ताक्षर करने की सलाह दी क्योंकि ‘हमारे वैयक्तिक जीवन में बहुत अधिक हस्तक्षेप हो रहां  है। पैन कार्ड काफी हैं, यूआईडी की जरूरत क्यों?’

वह 1873 में ज्योतिबा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज के आदर्शों के लिए समर्पित थीं और बलिजन सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा थीं और उन्होंने जनगणना प्रक्रियाओं पर सवाल उठाया और जाति को इसमें शामिल करने की मांग की। यह वह समय था जब हम सभी जाति को जनगणना का हिस्सा बनाने की मांग कर रहे थे। उन्होंने विकास के मौजूदा मॉडल को पतनशील बताया।

“ऐतिहासिक मौखिक परंपराओं के दस्तावेज़ीकरण के माध्यम से, जो अक्सर उपेक्षित हो जाते हैं, उन्हें  मजबूत करने के संदर्भ में भारत में दलित-बहुजन आंदोलन में गेल का योगदान हमेशा युवा कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों को जमीन पर काम करने के लिए राह दिखाएगा।”

वह समूह चर्चाओं में भाग लेती थीं और असहमत होने में संकोच नहीं करती थीं। उन मुद्दों पर दृढ़ता से बोलती थीं जो उन्हें गलत लगता था। जब कुछ अम्बेडकरवादी दलित वायस के संपादक वीटी राज शेखर की आलोचना कर रहे थ, तो वह चाहती थीं कि वे उस व्यक्ति के इतिहास को जानें और फिर प्रतिक्रिया दें। उन्होंने कहा था- ‘मैं वीटीआर को ‘पागल’ नहीं कहूंगी। बेशक वह कभी-कभी बेहद अतिरेक पूर्ण  स्थिति पैदा कर लेते हैं जो मुझे भी पसंद नहीं है, लेकिन वह बहुत अच्छे  इंसान हैं। आप युवाओं को हमारी विरासत के विषय में  कुछ चिंता करनी चाहिए। वीटीआर वर्षों तक दलित वायस  चलाते रहे और वर्षों तक यही एकमात्र पत्रिका थी जिसने दलितों को वास्तव में आवाज दी। आप  उनके खिलाफ बहस करो, लेकिन इसे अच्छी तरह से करो। वास्तव में यह भी एक बौद्ध संदेश है। ‘संलग्न बौद्ध धर्म’ का अर्थ है। ‘सही भाषण’ का मतलब यह नहीं है कि हम केवल दलाई लामा की तरह मीठी बात करते हैं। हमें कभी-कभी अपने शत्रुओं पर प्रभाव डालने के लिए कठोर बात करने की आवश्यकता भी हो सकती है।’

वास्तव में, आज के सामाजिक मीडिया की दुनिया में जहाँ  हमारी ‘बौद्धिकता’ ‘ट्विटर’ तक केन्द्रित हो गयी है और जहां लोगों को भी बौद्धिक आंदोलनों के  इतिहास की जानकारी नहीं है, गेल के शब्द वास्तव में ज्ञान से भरे हुए हैं। यह दुखद है कि इन स्थानों पर सक्रिय अधिकांश युवा भारत में अम्बेडकरवादी-फुलेवादी आंदोलन की समृद्ध सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत के बारे में बहुत कम जानते हैं क्योंकि उनमें से अधिकांश ने उन्हें राजनीतिक दलों और बयानबाजी तक सीमित कर दिया है।

ऐतिहासिक मौखिक परंपराओं के दस्तावेज़ीकरण के माध्यम से, जो अक्सर उपेक्षित हो जाते हैं, उन्हें  मजबूत करने के संदर्भ में भारत में दलित-बहुजन आंदोलन में गेल का योगदान हमेशा युवा कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों को जमीन पर काम करने के लिए राह दिखाएगा। उस समय, जब अधिकांश अम्बेडकरवादी शिक्षाविद अपने ड्राइंगरूम से आगे नहीं बढ़ते थे, तब उन्होंने लोगों के साथ काम किया, जिसके परिणामस्वरूप उनका प्रत्येक कार्य मील का पत्थर बन गया। कोई भी संस्था उस विश्वास  और धैर्य के साथ महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मण आंदोलन का इतिहास तब तक नहीं लिखती जब तक कि उसमे वैचारिक निष्ठा और साफगोई न हो। उनका क्षितिज निश्चित रूप से उनके कई समकालीनों की तुलना में व्यापक था, जिन्होंने ब्राह्मणवाद की आलोचना पर अधिक ध्यान केंद्रित किया, लेकिन बहुजन समाज की गौरवशाली परंपराओं को सामने लाने के लिए बहुत कम काम किया। उनके लेखन और लेखों को हमेशा अम्बेडकरवाद, दलित बहुजन आंदोलन और अछूत संतों पर सबसे अच्छे शोध किए गए लेखों में माना जाएगा। उन्होंने केवल उन मूल्यों को मजबूत किया जो उनकी पूर्ववर्ती एलेनॉर ज़ेलियट द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के अम्बेडकरवादी लेखन में स्थापित किए गए थे। गेल के काम ने दिखाया कि यदि आप वास्तव में इस उद्देश्य के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कहां पैदा हुए हैं और आप कौन हैं। यह महत्वपूर्ण है कि आप क्या करते हैं और अब तक आपने क्या किया है।

कुछ लम्हें

गेल ओमवेट ने वृद्धावस्था से संबंधित सवालों के साथ आने वाले दर्द से खुद को मुक्त किया है। उनके पति भारत पाटणकर उनकी देखभाल करते हुए अंत तक उनके साथ रहे। वे सत्यशोधक परंपराओं की तर्ज पर एक आदर्श युगल थे। वह भले ही यहां शारीरिक रूप से न हों, लेकिन गेल ओमवेट की भारत की अविश्वसनीय यात्रा अपने काम के माध्यम से उन्हें विद्वानों और कार्यकर्ताओं के दिल में हमेशा जीवित रखेगी। विशेष रूप से उनके लिए जो महाराष्ट्र में फुले-अंबेडकरी परंपराओं और सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन को समझने के इच्छुक हैं।

गेल ऑमवेट को हमारा सलाम!

गाँव के लोग
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