माना जाता है कि आधुनिक उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के साथ साथ ही संवैधानिक ढाँचे में नागरिकता की ठोस संकल्पना आकार ले रही थी। मगर प्रत्यक्षतः जिस तरह लोकतंत्र का व्यवहार अनेक टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होता है; उसी तरह नागरिकता की संकल्पना भी अनेक क़ानूनी प्रक्रियाओं, समझौतों और वंचनाओं के बीच अपना रास्ता तय करती है। दुख के साथ कहना पड़ता है कि, इन समझौतों का एक काला अध्याय है – स्वातंत्र्योत्तर भारत की महिलाओं के अनेक विरोधाभासों और विपरीतताओं में से उभरती हुई दोयम नागरिकता।
स्वतंत्र भारत में भारतीय संविधान द्वारा महिलाओं को सैद्धांतिक तौर पर लिंगनिरपेक्ष नागरिकता और राजनीतिक सक्रियता प्रदान की गई है। यह काफ़ी गौरव की बात है। इस बात का उल्लेख इसलिए किया गया है क्योंकि ख़ासकर उत्तरी क्षेत्र के प्रगतिशील लोकतांत्रिक देशों की महिलाओं को अपनी औपचारिक नागरिकता हासिल करने के लिए भी अनेक सालों तक संघर्ष करना पड़ा था। इस पृष्ठभूमि पर भारतीय संविधान द्वारा महिलाओं के कर्तृत्व और उनके अधिकारों को प्रदान की गई मान्यता को रेखांकित किया जाना चाहिए।
हालाँकि सवाल यह है कि, इस सैद्धांतिक मान्यता का रूपांतरण क्या प्रत्यक्ष राजनीतिक-सामाजिक व्यवहारों में हुआ है? बहुत पहले बाबा आढ़ाव (पुणे निवासी बाबा आढ़ाव असंगठित वंचित मज़दूर आंदोलन के नेता रहे हैं।) ने वंचितों की ओर से जो घोषणा की थी, उसको याद करते हुए कहा जा सकता है कि संवैधानिक ढाँचे में महिलाओं को एक मत प्राप्त है परंतु उन्हें क्या समान स्तर का सम्मान भी प्राप्त हुआ है? भारत की महिलाओं पर रोज़-ब-रोज़ होने वाले (और पहली बार माध्यमों में स्थान पाने वाले) शारीरिक अत्याचारों की खबरें जब हम सुनते हैं, उससे उनके जीवन की बहुआयामी पीड़ादायक दुर्गति की झलक प्रस्तुत होती है। यह दुर्गति महिलाओं पर होने वाले शारीरिक अत्याचारों तक, सिर्फ़ बलात्कार की खबरों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके अनेक आयाम देखे जा सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में औपचारिक लोकतंत्र का जिस तरह धीरे-धीरे विस्तार होता गया, वैसे-वैसे महिलाओं का जीवन ज़्यादा जटिल होता चला गया है और समान नागरिकता का अधिकार प्राप्त करने के लिए महिलाओं को अनेक विरोधाभासों से गुज़रना पड़ रहा है।
इन विरोधाभासों में सबसे प्रमुख पहलू है स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में महिलाओं के सक्षमीकरण और सशक्तीकरण संबंधी समाज में तैयार हो चुकी सार्वत्रिक सहमति। यह सहमति अनेक स्तरों पर काम करती है और इसके बावजूद वह विरोधाभासी है क्योंकि वह महज़ मुँहदेखी या दिखावे की सहमति है। मुख्य मुद्दा यह है कि, इस विरोधाभासी सहमति की पृष्ठभूमि पर भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की परिणामकारी राजनीतिक सहभागिता को, उनकी ‘वास्तविक’ नागरिकता को ग़लत दिशा में मोड़कर, उनके साथ धोखा किया जा रहा है। यह सब हमारे राष्ट्रीय लोकतांत्रिक नागरी समाज (जो मुख्यतया पुरुषों से निर्मित होता है, हमने यही मान लिया है) द्वारा आसानी से साधा गया है।
ऊपर उल्लिखित की गई विरोधाभासी सहमति के माध्यम से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में महिलाओं का चुनिंदा और सुविधाजनक तरीक़े से समावेश करना संभव हुआ है, यह सबसे गंभीर बात है। उदारमतवादी लोकतंत्र में नागरिकों के सुविधाजनक समावेश की संभावना हमेशा ही बनी रहती है। उदारमतवादी लोकतंत्र और उसकी नागरिकता संबंधी संकल्पना की आलोचना करते हुए यह अधूरापन महसूस किया जाता है, जिसे ख़ासकर अस्मितावादी और स्त्रीवादी अध्येता हमेशा रेखांकित करते रहे हैं। भारत की महिलाओं के चुनिंदा, सुविधाजनक राजनीतिक समावेश के संदर्भ में उनकी आलोचना (उस पर आक्षेप होने के बावजूद) सही साबित होती है। उदारवादी नागरिकता की संकल्पना में सिर्फ़ राजनीतिक क्षेत्र की औपचारिक समानता का मुद्दा महत्वपूर्ण होता है। परंतु इस औपचारिक समानता पर सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में व्याप्त विषमता का जो पर्दा पड़ा हुआ है; उसके बारे में नागरिकता की संकल्पना कोई टिप्पणी नहीं करती, न ही कोई ठोस भूमिका अख़्तियार करती है।
उदारवादी लोकतांत्रिक नागरिकता की संकल्पना के अधूरेपन को दूर करने की, उसे कुछ सौम्य बनाने की ज़िम्मेदारी भारतीय संविधान ने प्रमुखता के साथ (कल्याणकारी) शासनसंस्था और सत्ताधारी वर्ग को प्रदान की है। इसका प्रमुख कारण यह है कि नागरिकता के आशय का विस्तार करने के काम में भारतीय नागरी समाज का क्या योगदान हो सकेगा, इस पर संविधान समिति के सदस्यों के मन में समुचित शंका थी। स्वातंत्र्योत्तर काल में जैसे-जैसे लोकतंत्र का विस्तार होने लगा, वैसे-वैसे महिलाओं को (और अन्य वंचित नागरिकों को) लोकतांत्रिक क्रिया-व्यापार में समाहित करने की अपरिहार्यता भी बढ़ती गई है। मगर इसके साथ ही उनका लोकतंत्र में समावेश महज़ औपचारिक (सत्ताधारी वर्ग के लिए) सुविधा के लिए चयनित और इसीलिए परिधि पर ही सीमित होकर उनकी नागरिकता दोयम स्वरूप की रह गई है।
महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता की चर्चा में नागरिकता संबंधी यह विरोधाभास बहुत तीव्रता के साथ, मगर असहनीय तरीक़े से सामने आता है। इसका कारण यह है कि महिलाओं की राजनीतिक और सामाजिक भागीदारी के विषय पर मुँहदेखी, कृत्रिम सहमति निर्मित होती है और लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवहार का समूचा चर्चा-विश्व पूरी तरह से पुरुषप्रधान-पुरुषों के चश्मे से महिलाओं के जीवन-व्यवहारों को देखता है। वह उनके रोज़मर्रा के जीवन की बारीकी से जाँच-पड़ताल करने वाला रहा है। इसमें महिलाओं के स्वाभाविक राजनीतिक सामर्थ्य को तो नकारा ही जाता है, परंतु सक्षमीकरण के मख़मली आवरण में उनकी ज़िंदगी की बुरी हालत और उनकी दुर्गति को चालाकी से छिपा लिया जाता है।
(प्रमुखतया) महिलाओं पर होने वाले लैंगिक अत्याचार का मुद्दा अब सार्वजनिक चर्चा का विषय बन गया है। इस संदर्भ में 2013 में न्यायमूर्ति जगदीश शरण वर्मा की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा जो महत्वपूर्ण निरीक्षण दर्ज़ किये गये, उनका नामोनिशान भी अब कोलकाता, बदलापुर जैसी प्रकाश में आ चुकी (और हज़ारों अंधेरे में दफ़्न हो चुकी) लैंगिक अत्याचारों की घटनाओं की चर्चाओं में दिखाई नहीं दे रहा है। इसके बदले, सामाजिक व्यवहार में आज भी जिस पुरुषप्रधान व्यवस्था का वर्चस्व है, उसी नज़रिए से बलात्कार जैसी घटनाओं का विश्लेषण किया जाता है; उसके विरोध में बलात्कारियों को तत्काल फाँसी देने की माँग जैसी न केवल आक्रामक निरूपयोगी, बल्कि घातक माँग भी की जाती है।
महिलाओं पर बलात्कार जिस तरह पुरुषप्रधान व्यवस्था के वर्चस्व-संबंधों की पाशविक अभिव्यक्ति होती है, उसी तरह (महज़) बलात्कार का किया जाने वाला; बलात्कार की घटनाओं को नाटकीय बनाने वाला विरोध भी ‘उनकी’ महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के कारण ‘उनकी’ इज़्ज़त के ख़तरे में आने का कारण बन जाती है और फिर पुरुषप्रधान चर्चाओं की प्याली में तूफ़ान आ जाता है। इसके अंतर्गत महिलाओं पर होने वाले लैंगिक अत्याचारों की घटनाओं का ख़तरनाक तरीक़े से विरोध किया जाता है। ‘बलात्कारियों को तत्काल सरेआम फाँसी की सज़ा’ के केंद्रीय वक्तव्य के आसपास आज जो महिला सक्षमीकरण का चर्चा-विश्व निर्मित किया जा रहा है, वह महिलाओं के आत्मनिर्भर सामाजिक व्यवहार के लिए अनेक स्तरों पर ख़तरनाक साबित होता है। इसके माध्यम से महिलाओं का समूचा अस्तित्व उनके केवल और केवल शरीर के अस्तित्व से और योनि-शुचिता की संकल्पना से जोड़ा जाता है। इसके अतिरिक्त उन्हें रोज़मर्रा के व्यवहारों के बीच निरंतर जिन असहनीय असुरक्षितताओं का सामना करना पड़ता है, उनके विषय में कुछ दूरगामी उपाय-योजनाओं को लागू करने की बात हमारे मन में भी नहीं आती।
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, भारतीय संविधान ने इन दूरगामी उपाय-योजनाओं की ज़िम्मेदारी राजनीतिक दलों और लोक-प्रतिनिधियों को प्रदान की है। इसके पीछे यह विश्वास है कि, स्थापित सामाजिक विषम व्यवहारों को दूर कर सच्चे अर्थों में सर्व-समावेशक समाज-निर्माण की संभावनाएँ लोकतांत्रिक राजनीति में ही उपलब्ध हो सकती हैं। मगर दुर्भाग्य से लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवहार में भी महिलाओं को सतही स्तर तक ही शामिल किया जाता है; मगर प्रत्यक्ष में उनके स्थान को परिधि तक सीमित रख कर उनकी दोयम नागरिकता रेखांकित करने का ही प्रयास होता रहा है।
काफ़ी पीछे जाकर देखें तो उन्नीस सौ नब्बे के दशक में और निकट वर्तमान में 2019 के लोकसभा चुनाव के आसपास महिला मतदाताओं की राजनीति में निर्णायक भूमिका संबंधी चर्चा शुरू हुई। नीतीश कुमार की शराबबंदी – साइकिलों का वितरण – लखपति दीदी – कांग्रेस की मुफ़्त बस-यात्रा – मुफ़्त शिक्षा – मध्य प्रदेश में लाड़ली बहना – उज्ज्वला जैसे चरणों में मंज़िल-दर-मंज़िल बढ़ते हुए यह चर्चा अब महाराष्ट्र में भी ‘अपनी लाड़ली बहन’ तक आ पहुँची है। इन समूची चर्चाओं में महिलाओं के मतदान संबंधी कुछ आसान पूर्वग्रह रचे गये हैं। पहला, सभी महिलाएँ किसी विशेष तरीक़े से ही मतदान करेंगी। दूसरा, उन्हें विवेकी मतदाता न मानते हुए सिर्फ़ ‘लाभार्थी’ के रूप में देखना कुछ भी ग़लत नहीं है और तीसरा, महिलाओं का कार्यक्षेत्र महज़ घरेलू स्तर तक सीमित मानते हुए, उनके द्वारा बतौर बहन अपने (सार्वजनिक क्षेत्र में – राजनीति में सक्रिय) भाइयों को मदद की जानी चाहिए। ख़ुद राजनीति में उतरकर सत्ता हासिल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। महिला मतदाताओं के सक्षमीकरण संबंधी चर्चा इस तरह के आसान विरोधाभासी, पुरुषप्रधान पूर्वाग्रहों पर आधारित होने के कारण उसमें भी महिलाओं की दोयम नागरिकता ही रेखांकित होती है।
(हिन्दी अनुवाद : उषा वैरागकर आठले) (साभार : मुंबई से प्रकाशित ‘लोकसत्ता’ के 04 सितंबर 2024 के संपादकीय पेज पर प्रकाशित लेख)