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‘शाश्वत सत्य’ और राज्य डायरी (9 अगस्त, 2021)

भारतीय सामाजिक व्यवस्था का केंद्रीय चरित्र पूंजीवादी है और यह कोई नयी बात नहीं है। चार वर्णों की व्यवस्था इसलिए ही बनायी गयी है। संसाधनों का वितरण भी इसी हिसाब से हुआ है। इस कारण से ही समाज में भेदभाव है और शोषण-उत्पीड़न है। मुख्य बात यह है कि राज्य अपने ही संविधान के खिलाफ […]

भारतीय सामाजिक व्यवस्था का केंद्रीय चरित्र पूंजीवादी है और यह कोई नयी बात नहीं है। चार वर्णों की व्यवस्था इसलिए ही बनायी गयी है। संसाधनों का वितरण भी इसी हिसाब से हुआ है। इस कारण से ही समाज में भेदभाव है और शोषण-उत्पीड़न है। मुख्य बात यह है कि राज्य अपने ही संविधान के खिलाफ जाकर वर्चस्ववादी सामाजिक व्यवस्था का संपोषण करता है। हालांकि वह कई तरह के दावे भी करता है ताकि लोक कल्यणकारी राज्य का भ्रम बना रहे।

बात बहुत पुरानी नहीं है। 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर में धारा 370 और धारा 35ए को खत्म कर दिया गया था। तब जो तस्वीर सामने आयी थी, वह खतरनाक थी। बड़ी संख्या में लोगों को हिरासत में ले लिया गया था। इनमें तमाम बड़े नेता तो थे ही सामाजिक कार्यकर्ता भी रहे। सड़कों पर फौज थी और आम लोगों के चेहरे पर खौफ। उन दिनों ही झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलन को दबाने के लिए राज्य सरकार तमाम तरह के प्रयास कर रही थी। गोया पत्थलगड़ी जो कि आदिवासी समाज सदियों से अपने पुरखों को याद रखने के लिए करता रहा है, उससे राज्य सत्ता की चूलें हिल रही हों। लाखों की संख्या में लोगों के खिलाफ देशद्रोह के मामले दर्ज किए गए। राज्य सरकार ने आजतक यह आंकड़ा जारी नहीं किया है कि तब कितने लोगों को जेल में डाला गया। हालांकि बाद में जब वहां हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने ऐलान किया कि राज्य सरकार सारे मुकदमे वापस लेगी। परंतु, सच यह है कि अब भी बड़ी संख्या में आदिवासी देशद्रोह के मामले में जेल में बंद हैं।

[bs-quote quote=”देश में जेलों की दशा पर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की आखिरी रिपोर्ट 2019 में प्रकाशित हुई थी. इस रिपोर्ट के अनुसार भारतीय जेलों में तब 4.78 लाख कैदी थे, जो कि कुल क्षमता से 18.5 प्रतिशत अधिक थे। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि कुल क़ैदियों में से 69.05 प्रतिशत क़ैदी विचाराधीन थे। इन विचाराधीन क़ैदियों में से 16 प्रतिशत क़ैदी छह महीने से एक साल का समय जेलों में बिता चुके थे।  इसी तरह 13 प्रतिशत अंडर ट्रायल क़ैदी एक से 2 साल का समय जेल में बिता चुके थे। एनसीआरबी की रिपोर्ट में उन कैदियों की संख्या नहीं बतायी गयी जिन्हें 2 साल से अधिक समय तक जेलों में रह रहे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मैं दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता को देख रहा हूं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन का बयान पहले पन्ने पर प्रकाशित किया गया है। उनका बयान है – “थानों में मानवाधिकार हनन का खतरा ज्यादा”। वे दिल्ली के विज्ञान भवन में कानूनी सेवा ऐप और नालसा के दृष्टिकोण और मिशन स्टेटमेंट की शुरुआत के अवसर पर भाषण दे रहे थे। वही नालसा जिसका गठन विधिक सेवा प्राधिकरण कानून, 1987 के तहत इस मकसद से किया गया था कि कमजोर वर्गों के लोगों को मुफ्त कानूनी सेवाएं उपलब्ध कराया जा सके। अपने भाषण में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि मानवाधिकार और शारीरिक चोट, नुकसान का खतरा थानों में सबसे ज्यादा है। हिरासत में यातना और अन्य पुलिस अत्याचार ऐसी समस्याएं हैं, जो हमारे समाज में अभी भी विद्यमान हैं। संवैधानिक घोषणाओं और गांरंटी के बावजूद, थानों में प्रभावी कानूनी प्रतिनिधित्व का भाव गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए व्यक्तियों के लिए बड़ा नुकसान है।

जाहिर तौर पर मुख्य न्यायाधीश को सपना नहीं आया है। वे यह सच जानते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था कैसी है और भारत की पुलिस कैसी है। एक उदाहरण यह कि देश में जेलों की दशा पर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की आखिरी रिपोर्ट 2019 में प्रकाशित हुई थी. इस रिपोर्ट के अनुसार भारतीय जेलों में तब 4.78 लाख कैदी थे, जो कि कुल क्षमता से 18.5 प्रतिशत अधिक थे। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि कुल क़ैदियों में से 69.05 प्रतिशत क़ैदी विचाराधीन थे। इन विचाराधीन क़ैदियों में से 16 प्रतिशत क़ैदी छह महीने से एक साल का समय जेलों में बिता चुके थे।  इसी तरह 13 प्रतिशत अंडर ट्रायल क़ैदी एक से 2 साल का समय जेल में बिता चुके थे। एनसीआरबी की रिपोर्ट में उन कैदियों की संख्या नहीं बतायी गयी जिन्हें 2 साल से अधिक समय तक जेलों में रह रहे हैं। कई बार खबरें आती हैं कि किसी को दस साल के बाद रिहाई मिलती है तो किसी को 15 साल के बाद।

[bs-quote quote=”आज विश्व मूलनिवासी दिवस है। इसे विश्व आदिवासी दिवस भी कहा जाता है। आज एक खास दिन है। मैं यह सोच रहा हूं कि क्या मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन के जेहन में वे आदिवासी होंगे, वे मुसलमान होंगे, वे दलित होंगे, वे पिछड़े वर्ग के लोग होंगे जो जेलों में बंद कर दिए गए हैं, और जिनके पास इतना पैसा नहीं है कि वे अपने लिए वकील की सेवा ले सकें। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यह तो केवल एक बात है। पुलिस के थानों में किस तरह की व्यवस्था है, उसका एक बेहतरीन उदाहरण है  28 सितंबर, 2017 को छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के पखांजूर थाने में दर्ज करायी एक प्राथमिकी। यह प्राथमिकी लोकेश सोरी ने दर्ज करायी थी। यह एक ऐतिहासिक प्राथमिकी थी। ऐतिहासिक इसलिए कि पहली बार दुर्गा के उपासकों के खिलाफ थी यह प्राथमिकी। लोकेश सोरी का कहना था कि दुर्गा के उपासकों द्वारा दुर्गा के हाथों महिषासुर का वध दिखाये जाने वाली प्रतिमाओं की स्थापना से उनकी भावनाएं आहत होती हैं। लोकेश सोरी सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे कांकेर जिले में भाजपा के कार्यकर्ता भी रहे थे। लेकिन आदिवासियों पर हिंदू धर्म जबरन थोपे जाने की कोशिशों का विरोध करते थे। वे निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधि भी रह चुके थे। इसके बावजूद जब उन्होंने अपनी प्राथमिकी दर्ज करानी चाही तो थाने में मौजूद बाह्मण दरोगा ने उनका अपमान किया। गंदी-गंदी गालियां दीं। लेकिन लोकेश भी अड़े थे। आखिरकार पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करनी पड़ी। लेकिन तीसरे ही दिन पुलिस ने लोकश के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया और वह भी दो साल पहले फेसबुक पर लिखी एक टिप्पणी को आधार बनाकर। बात यहीं खत्म नहीं हुई। लोकेश को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इस बीच पुलिस ने उनके द्वारा दर्ज कराए गए मुकदमे के आलोक में कोई कार्रवाई नहीं की। थाने में उनके उपर थर्ड डिग्री का इस्तेमाल किया गया। उन्हें हर तरह से प्रताड़ित किया गया। हालांकि केवल डेढ़ महीने के बाद ही अदालत को उन्हें जमानत देने का आदेश सुनाना पड़ा। उन दिनों ही उन्हें मैक्सिलरी कैंसर की शिकायत हुई। यही बीमारी 11 जुलाई, 2019 को उनके निधन की वजह बनी।

सामाजिक कार्यकर्त्ता लोकेश सोरी, जो अब हमारे बीच नहीं हैं .

आज विश्व मूलनिवासी दिवस है। इसे विश्व आदिवासी दिवस भी कहा जाता है। आज एक खास दिन है। मैं यह सोच रहा हूं कि क्या मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन के जेहन में वे आदिवासी होंगे, वे मुसलमान होंगे, वे दलित होंगे, वे पिछड़े वर्ग के लोग होंगे जो जेलों में बंद कर दिए गए हैं, और जिनके पास इतना पैसा नहीं है कि वे अपने लिए वकील की सेवा ले सकें।

काश, मुख्य न्यायाधीश महोदय नालसा से पूछ पाते कि उसने कितने ऐसे गरीब-मजलूमों की मदद की है।

खैर, कल देश के प्रसिद्ध दलित विचारक और समालोचक कंवल भारती से मिलने रामपुर में उनके घर जाना हुआ। लौटते वक्त उन्होंने एक किताब “दलित निर्वाचित कविताएं” दी। इस किताब में अशोक भारती की एक कविता शाश्वत सत्य संकलित है –

तथागत ने कहा था

जो पैदा हुआ है, मरेगा

यही सत्य है

शाश्वत सत्य।

 

और-

मरना ही सत्य है

तो लाेग मरेंगे

आज, कल और परसों

अलग-अलग जगहों पर

अलग-अलग से।

 

कुछ मरेंगे-

नशे में धुत

लठैतों से घिरकर

गू-मूत से पटी बस्तियों में,

सूअरों की तरह चीखते हुए

बेबस, निरीह, लाचार।

 

 नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

 

 

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