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ग्राउंड रिपोर्ट

महाराष्ट्र : महाजनों के डर से आत्महत्या करते धरतीपुत्र और घर चलाती भूमि कन्याएँ

आत्महत्या करने वाले अधिकतर किसान ओबीसी जातियों के हैं। मगर उनकी आत्महत्या का मुद्दा जब कहीं भी उन जातिगत राजनीतिक संगठनों के एजेंडे में शामिल नहीं है, तब ये आत्महत्याग्रस्त किसान महिलाएँ तो उस आंदोलन में अदृश्य ही हैं। आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार की विदर्भ से ग्राउंड रिपोर्ट

(घर के किसान पुरुष की आत्महत्या के बाद  एकल महिला के संघर्ष की आप बीती बयान करने वाली रिपोर्ट)
भाग एक से आगे – 

महिला संगठनों के कारण यवतमाल और वर्धा जिले के महिला किसानों से बात हुई 

आत्महत्याग्रस्त परिवार की महिला किसान से मुलाकात करते वक्त एक मानसिक दबाव काम करता है। फिर एक बार उन्हें दुखद घटनाओं को याद करना पड़ता है। उन्हें बोलने के लिये तैयार करना और उदास मौसम से निकलने के लिए हम कुछ नहीं कर सकते, पता होने के बावजूद इतनी संवेदनशीलता के साथ संवाद करने की कोशिश करना कि उनके घर की और उनकी भी मानसिक शांति भंग न हो पाए, उनकी भावनाएँ आहत न हो पाएँ। और फिर मुझ जैसा व्यक्ति, जो सिर्फ अध्ययन

कर्ता और लेखिका ही नहीं है, एक कार्यकर्ता भी है। इसलिए उनसे संवाद करने से पहले अपनी विषम परिस्थितियों से कैसे बाहर निकल कर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर सके, इसका भी ध्यान रखना होता है। अपनी संवाद-शैली के अनुसार मैं उनकी आपबीती सुनते हुए उन्हें परामर्श देती हूँ। प्रायः यह पद्धति सफल साबित होती है। इस तरह के व्यक्तियों के साक्षात्कार लेने के बाद जब उन्हें संगठन से जोड़कर मीटिंग, परिषद, मोर्चे या शिविर में सम्मिलित किया जाता है तो उनके व्यक्तित्व में बदलाव आता है। मेरा यह निरीक्षण रहा है।

हालाँकि दिमाग़ में अनेक सवाल मँडराते रहते हैं कि ‘उसने’ कर्ज से घबराकर आत्महत्या की और औरत के सिर पर कर्ज़ का पहाड़ छोड़कर चला गया। इस परिस्थिति में आखिर पत्नी ने भी क्यों आत्महत्या नहीं की, अपने पति की तरह? क्यों नहीं उतार फेंका अपनी ज़िम्मेदारी का बोझ? उस औरत के दिल-दिमाग़ पर क्या बीतता है? क्या इस पर किसी ने कभी सोचा? आत्महत्या करने वाले किसान के घर में बच्चों की मानसिक स्थिति के बारे में क्या कभी किसी ने विचार किया ? इतनी उद्विग्न और भयानक परिस्थिति में वह औरत अपनेआप को कैसे सम्हालती है? अपने दुखों के पहाड़ को परे हटाकर अपनी गृहस्थी चलाने के लिए वह अपने आप को कैसे तैयार करती है?

जिस किसान को भूमिपुत्र कहकर कृषि-व्यवस्था की रीढ़ माना जाता है, क्या वाकई वह वैसा ही है?  वस्तुस्थिति कुछ और ही बयान करती है। ‘वह’ टूट जाता है, विपरीत परिस्थितियों से दो-दो हाथ करने की बजाय अपनी जीवन-लीला समाप्त कर सभी मुसीबतों से छुटकारा पाने की बात सोचकर, घर-परिवार में किसी की चिंता किये बगैर, ज़िंदगी से मुँह फेर लेता है। उसके पीछे छूट गए कर्ज़े का, घर-गृहस्थी का, बच्चों का समूचा बोझ उसकी औरत को उठाना पड़ता है। तो फिर उसे भी मज़बूत, जीवट की भूमिकन्या क्यों नहीं कहा जाना चाहिए? इस तरह के अनेक सवाल मुझे परेशान करते हैं।

महाराष्ट्र : कर्ज़ से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या करें या गुलामगीरी पर गुलेल चलाएँ?

मैं मुंबई, नागपुर, उमरेड, वर्धा होते हुए यवतमाल जा पहुँची। अगस्त महीना चल रहा था। इस साल जुलाई महीने में ही ठीकठाक बारिश हो गई थी, फसल लहलहाने लगी थी। खेती-किसानी के काम बढ़ गए थे। टिपिर टिपिर बारिश हो रही थी। यवतमाल के दुर्गम भागों में जाते हुए एक बात की ओर मेरा ध्यान गया। भले ही शहर और महामार्ग गाँवों के पास ही थे, मगर गाँवों की हालत जस के तस थी। मेरे देश के गाँवों के रास्ते अभी भी वैसे ही उबड़खाबड़, बड़े-बड़े गड्ढ़ों वाले ही थे। कीचड़ में से गाड़ी आगे बढ़ नहीं पा रही थी। ड्राइवर ने आगे जाने से इंकार कर दिया। हम नीचे उतर गए और अंजना के खेत की ओर पैदल ही चल पड़े। माधुरी ताई खड़से ने यवतमाल अंचल में किसान महिलाओं का संगठन स्थापित किया था। (जिन किसान महिलाओं के साक्षात्कार लिए है, उनके अनुरोध पर उनके नाम और गाँवों के नाम बदल दिये हैं परंतु संगठन प्रतिनिधि और नेतृत्वकारी महिला साथियों के वास्तविक नाम यहाँ दिये गये हैं।)

जब हम खेत में पहुँचे, अंजना और सुनंदा दोनों वहाँ मौजूद थीं। सुनंदा ने सलवार के ऊपर पूरी आस्तीन का शर्ट पहना था। उसके हाथ में खुरपी थी। इन दिनों अधिकतर औरतें खेतों में इसी तरह के कपड़े पहनती हैं, क्योंकि खेतों में साड़ी पहनने पर वह खराब हो जाती है, टहनियों-काँटों से उलझकर फट जाती है, ज़ख्म हो जाते हैं। इसलिए यह पूरी आस्तीन का शर्ट पहनना बेहतर होता है। वह बहुत आराम से वहाँ काम कर रही थी।

सुनंदा जब अंजना को अपने साथ लेकर आई, हम गूलर के एक बड़े पेड़ के नीचे बैठ गए। अंजना एकदम दुबली-पतली, बीस-पचीस साल की लग रही थी। कुछ बातचीत शुरु होने के पहले ही माधुरी ताई को देखकर उसके सब्र का बाँध टूट गया। सुषमा उसे सम्हालने लगी। सुषमा ने बताया कि डेढ़ साल बीतने के बावजूद अभी भी उसके ज़ख्म हरे हैं। मैं उसे अक्सर समझाती हूँ, ‘‘बाई, हमें ही कमर कसनी पड़ती है। औरत जात इस तरह मर नहीं सकती। सब कहते हैं औरत मरती है तो उसकी गृहस्थी उजड़ जाती है, आदमी के मरने पर हमें ही उस गृहस्थी में पैबंद जोड़ने पड़ते हैं। सब कुछ ढँकना-सम्हालना पड़ता है।’’ उसी समय दो युवक मुँह पर मास्क लगाए, हाथ में कीटनाशक की स्प्रे मशीन लेकर पहुँचे। अंजना ने बताया कि उनमें से एक सचिन उस समय 14 साल का था और बड़ा बेटा सुनील तब 16 का था, जब उनके पिता चल बसे। मैंने आश्चर्य के साथ उससे पूछा, तुम्हारी उम्र क्या है? उसने बताया, 33 साल। एक बेटी भी है सोनाली, जो 12 साल की है। स्कूल गई है।

मैंने लड़कों से पूछा, तो क्या अब तुम दोनों खेती ही करते हो? उन्होंने बताया कि छिड़काव के लिए दिहाड़ी पर मज़दूर बुलाने पड़ते, पैसे खर्च होते; इसलिए हम दोनों ने यह ज़िम्मेदारी ले ली। हमारे पास आगे की पढ़ाई के लिए पैसा नहीं है। उनमें से एक जूनियर कॉलेज जाता है। वे जाति से कुणबी होने के बावजूद, घर में गरीबी के कारण बाप ने आत्महत्या करने के बावजूद उन्हें कॉलेज में एडमिशन नहीं मिला। बड़ा बेटा माँ को खेती में मदद करने के साथ गैरेज में भी काम करता है।

पति की मौत हुई, वह दिन बहुत भयानक था। घर में अंजना की ननंद को देखने मेहमान आए हुए थे। देवर, देवरानी, बच्चे सबका खाना-पीना हो गया था। अंजना का पति अन्य पुरुषों के साथ घर की ऊपरी मंज़िल के कमरे में आराम करने गया। लोगों की आँख लग गई थी। अचानक सब को ज़ोर से गिरने की आवाज़ सुनाई दी। बाहर गली में खेलते हुए बच्चे दौड़कर घर में आए, उन्होंने बताया कि चाचा छत से कूद गए थे। अस्पताल ले जाते हुए उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था। पोस्टमार्टम हुआ। सिर में गहरी चोट लगने के कारण उसकी मौत हो गई थी। उसने अपने भाई से कहा था कि बहुत कर्ज़ हो गया है, कैसे चुकाएगा? इस बार फसल अच्छी नहीं हुई थी। बहन की शादी का खर्च कैसे होगा? बेटे की बारहवीं के बाद एडमिशन कैसे करवाएगा? खेती के लिए लिया हुआ कर्ज़ा कैसे चुकाएगा? पिछली रात को सोने से पहले उसने अंजना से इतना ही कहा था कि उसकी इच्छा है कि बच्चे अच्छे से आगे पढ़ाई करें। उसने और कोई बात नहीं की। अचानक ऐसा कुछ होगा, इसकी कल्पना नहीं थी। बस एक बार बातचीत के दौरान उसने बैंक से कर्ज़ लेने बाबत बताया था। अंजना यही जानती थी।

अब आसमान टूट पड़ा था। घर में लोग हर तरह की बात कर रहे थे। घर में रोना-पीटना मचा हुआ था। अस्पताल से लाश आने तक यकीन नहीं हो रहा था। जेठ और दोनों बेटे एम्बुलेंस से उसकी ‘बॉडी’ ले आए। कुछ देर पहले तक तो वह ज़िंदा था और अब लोग कह रहे थे कि उसकी ‘बॉडी’ आ गई। घर के सभी लोग सदमे में थे। अपनी बारह साल की बेटी को धीरज बधाऊं या सूनी नज़रों से निहारने वाले सुनील को सम्हालूँ या फिर सास को दहाड़कर रोने से रोकूँ? अंजना की हिम्मत टूट गई थी। चौदह साल का सचिन उसके पास बैठकर उसे धीरज बंधा रहा था। आसपास के लोग, पुलिस और न जाने कौन-कौन से लोग उससे सवाल कर रहे थे। वह सिर्फ इतना ही बता पा रही थी कि बैंक का कर्ज़ा था। बाद में उसे बाकी बातों का पता चला। जिस हेडगेवार बैंक से उसके पति ने कर्ज़ लिया था, वह साहूकार की तरह चक्रवृद्धि ब्याज लगाकर कर्ज़ की रकम बढ़ाते जा रहा था। वह सहकारी या सरकारी बैंक नहीं था। इसलिए वहाँ कर्ज़ माफ़ करने संबंधी कोई योजना भी नहीं थी। वस्तुस्थिति पता चलने पर अंजना और भी घबरा गई। उसे लगा कि वह भी अपनी जान दे दे। पर उसके बाद उसके बच्चों की क्या हालत होगी, वह कल्पना नहीं कर पाती थी। उसने सोचा, जो होगा देखा जाएगा और उसने खेती करना शुरु कर दिया।

बाद में एक दिन एक आदमी ने खेत के कुएँ के पास स्कूटर रोकते हुए उससे कहा कि, ‘यह खेत मेरा है। तुम्हारे आदमी ने उसे मुझे बेच दिया था। वह तो उस पर सिर्फ काम कर रहा था। अब सात-बारा (ज़मीन के राजस्व संबंधी दस्तावेज़) मेरे नाम पर है। तू भाग यहां से!’ अंजना ने दूसरे खेत में काम करने वाली सुनंदा को आवाज़ देकर बुलाया। सुनंदा ने सुनकर कहा, ‘ऐसे कैसे हो सकता है?’ उसने उस आदमी से पंचायत ऑफिस में आकर बात करने के लिए कहा। सुनंदा अपनी साइकिल पर अंजना को बिठाकर ऑफिस की ओर चल पड़ी। रास्ते में उसने रूककर अंजना के जेठ, सरपंच, पुलिस पाटिल को फोन किया। अंजना का पति गाँव में लोकप्रिय था। उसकी ज़मीन पर जो आदमी ‘सात-बारा’ अर्थात ज़मीन संबंधी दस्तावेज़ दिखा रहा था, उसे गाँववालों ने बताया कि वहाँ अंजना खेती करेगी और तुम्हें उसके नाम पर ही ‘सात-बारा’ वापस करना पड़ेगा। वह डरकर भाग गया मगर अभी भी अंजना को कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं।

उसके पति की मौत का कारण था, उसे फंसाकर साहूकार द्वारा कर्ज़ें की रकम बढ़ाते हुए कसा जाने वाला कर्ज़ का शिकंजा। इससे छुटकारा पाने का कोई रास्ता न देखकर कभी कोई एंड्रीन पीकर भी आत्महत्या करता है!

वर्धा जिले के सेलू रोड का एक गांव! वैशाली (बदला हुआ नाम) ने बताया। कल बाजू में सोया हुआ पति बेचैन था, पता ही नहीं चला। घर में कोई झगड़ा नहीं था। सब कुछ ठीक-ठाक था। दो लड़के और एक लड़की स्कूल चले गए। मैं दूसरों के खेत पर मज़दूरी करने गई थी। वहाँ से तीन कोस पर हमारा खेत है। दोपहर के एक बजे अचानक मेरा देवर दौड़ते हुए आया और कहने लगा, भाभी चल, दादा ने एंड्रीन पी लिया है। मेरा दिल बुरी तरह धड़कने लगा। मैं क्या कहती? वह कहता था बाहर के व्यवहार में दखलंदाज़ी मत कर। और अब अचानक क्या हो गया! इतना बड़ा कर्ज़ा चुकाने के लिए क्या अब मुझे बाहर नहीं निकलना पड़ेगा? कौन मदद देगा? कोई आदमी हो, जो मदद करे! जेठ दवाखाने में थे। उन्होंने बताया कि सत्तर हजार का कर्ज़ा था। मेरे सिर पर आसमान टूट पड़ा। आदमी मर गया, तीन बच्चों की ज़िम्मेदारी, देवर आवारागर्दी करता है। जेठ-जेठानी भी हमारे आगे हाथ फैलाते थे। मैं किससे कहूँ? सब पूछ रहे थे कि उसने कैसे तुझे कुछ नहीं बताया! तुझे कुछ तो पता होगा! मुझे पता होता तो क्या मैं उसे अकेले खेत पर जाने देती? जेठ ने कहा कि अब उसका अंतिम संस्कार करने के लिए पैसे लगेंगे। मैंने गले में पहना मंगलसूत्र उतारकर उन्हें दे दिया। मेरा आदमी ही जब चला गया तो उसका क्या काम! तेरहवीं पर समूचा गाँव टूट पड़ा। आदमी का कर्ज़ चुकाने के लिए पैसा नहीं था, मगर उसके मरने के बाद तेरहवीं पर इतना खर्च! यही पैसा अगर पूरा घर मिलकर कर्ज़ा चुकाने में लगा देता तो? मगर अब दो-दो कर्ज़े मेरे ही सिर पर हैं। एक ही सवाल पूछती हूँ, ‘मैं उसकी औरत थी, मुझे बिना बताए मेरा आदमी क्यों चला गया? अब तो मुझे ही उसके पीछे का सारा जंजाल काटना पड़ेगा।’ वैशाली का यह सवाल जायज़ और प्रातिनिधिक है।

जिस पति के साथ उसके मरने के बाद भी औरत का अस्तित्व जोड़ा जाता है, वह उससे कुछ शेयर नहीं करता था। उनमें कोई संवाद नहीं था। वह तो चला गया, कर्ज़े के साथ दिल पर भी बड़ा बोझ छोड़ गया। वह उससे हमेशा ही सब छिपाता रहा है। आखिर शादी का अर्थ क्या होता है?

इस तरह लगभग पचास महिला किसानों से मैं मिली। उन्होंने 5 और 6 अगस्त 2023 को भूमिकन्या परिषद आयोजित की थी।

इस परिषद के माध्यम से यह बात स्पष्ट हुई कि विदर्भ, मराठवाड़ा, पश्चिम महाराष्ट्र और उत्तर महाराष्ट्र अंचल में जिन किसानों ने आत्महत्या की थीं, उनके परिवार की किसान, मज़दूर एकल महिलाओं की दैनिक ज़िंदगी में आर्थिक समस्याएँ जितनी भीषण हैं, उतना ही भयानक उनका मानसिक, लैंगिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन भी है।

इस परिषद में महाराष्ट्र के मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन, हिंदु, आदिवासी, खानाबदोश आदि विविध प्रकार की प्रगतिशील विचारों की महिलाओं का प्रतिनिधित्व था। कुछ बातों का विशेष उल्लेख करना होगा, जिनकी चर्चा अनेक महिलाओं ने की थी।

आत्महत्याग्रस्त किसान विधवाओं के लिए शासन ने कुछ योजनाएँ बनाई हैं, मगर उनका लाभ लेने की पहली शर्त है कि उनका नाम ‘सात-बारा’ अर्थात ज़मीन पर मिल्कियत संबंधी दस्तावेज़ पर दर्ज़ हो। घर के तमाम कागज़ों एवं राशन कार्ड पर उनका नाम दर्ज़ हो। परिवार की सूची में उनका नाम शामिल हो। पति की मौत के बाद अनेक महिलाओं को पता चलता है कि उसने पति-पत्नी का संबंध कागज़ों पर कहीं दर्ज़ ही नहीं करवाया है। यहाँ से शुरु होता है एक अनवरत संघर्ष। पति तो मर चुका है। समाज उसके नाम पर भरी गई मांग पोंछ देता है, पहना हुआ मंगलसूत्र निकलवा देता है; मगर उसे ही सिद्ध करना पड़ता है कि वह उसी की पत्नी है।

नांदोरा गाँव की नीना ने सवाल किया कि पति की मौत के बाद एक विधवा इतनी महंगाई में बच्चों को कैसे पाल सकती है? कोई औरत जब किसी कारण से समय-पूर्व बच्चे को जन्म देती है, उसे संदेह के आधार पर आरोप लगाकर घर से निकाल दिया जाता है कि वह पहले से प्रेग्नंट थी, उसका विवाहपूर्व किसी से संबंध था। इस परिस्थिति में कोई औरत क्या करे? मुस्लिम धर्म में तीन बार तलाक कहने पर पति-पत्नी अलग हो जाते हैं; मगर इसमें वह अकेली औरत आगे क्या करेगी, इस बात पर भी विचार करना ज़रूरी है। नीना को पति की मौत के बाद तहसील कार्यालय जाकर तमाम ज़रूरी कागज़ात जमा करने में बहुत दिक्कतें हुईं। उसके तीन बच्चे हैं। ससुराल के लोग उसे बहुत परेशान करते हैं। एक बार तो सास ने उसे जलाकर मारने की कोशिश भी की थी। काफी पापड़ बेलने के बाद उसे विधवा पेंशन मिलने लगी। आवास योजना के अंतर्गत कुछ धनराशि प्राप्त हुई। उसने जैसे-तैसे थोड़ा पैसा जोड़कर घर बनाया है।

लोणी गाँव की सुचेता ने बताया कि पति की मौत के बाद ससुराल वालों ने उसे घर में नहीं रखा। आखिर एक बेटे और बेटी को लेकर वह कहाँ जाती? उसने पंचायत में आवेदन लगाया। सरपंच ने उसे रहने के लिए एक कमरा दिलवाया। उसने शुरु में पचास हजार रूपये का कर्ज़ समूह से लिया और फिर धीरे-धीरे चुका भी दिया। वक्त-ज़रुरत पर ज्वार, गेहूँ और अरहर की सिर्फ घुँघनी खाकर दिन काटे। घोर गरीबी थी। जो भी काम रोजी पर मिल जाए, वही किया। खेतों में मजूरी की। बेटे को फीस के अभाव में कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल रहा था। उसने उसे जैसे तैसे बारहवीं तक पढ़ाया था। अब बेटा भी कुछ कमाकर माँ की सहायता करता है। बड़ी समस्या यह है कि इन एकल महिलाओं को ग्राम पंचायत से प्रमाण पत्र नहीं मिलता इसलिए नल-जल योजना का लाभ नहीं मिलता। ग्राम पंचायत आवास योजना की मंजूरी नहीं देती। इन समस्याओं का समाधान निकाला जाना ज़रूरी है।

डॉ लता प्रतिभा मधुकर एक किसानीन के साथ

चित्रा इन दिनों खुद एकल महिलाओं के साथ संगठन स्थापित कर रही है। ससुर ने घर से बाहर निकाला, तब संगठन ने ही उसे आसरा दिया। काफी जूझने के बाद उसे घर मिला। संगठन के साथ तहसील गई तो ग्राम सेवक ने भी मदद की। आज भी विधवा औरत को सम्मान नहीं दिया जाता। जिस तरह पुरुष के विधुर होने के बाद भी उसके तमाम अधिकार बरकरार रहते हैं, वैसे अधिकार औरत को क्यों नहीं मिलते? एक ओर तो कहा जाता है कि हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं है तो दूसरी ओर, पत्नी होने के कारण मिलने वाले फायदे भी वे लूटना चाहते हैं! पति जीवित रहने तक मैं ‘घर की लक्ष्मी’ थी और अब उसके मरने के बाद ‘पाँव की जूती’ से भी गईबीती हो गई! कब तक यह सब सहना होगा?

सेलू गाँव की शेवंता ताई के पति ने आत्महत्या की। उसकी लाश एक नाले में मिली। कीटनाशक का सेवन करने के बाद उसके शरीर में तीव्र जलन होने लगी और वह एक नाले में कूद गया। उस समय उसका एक बेटा बारह साल का था। अब वह अठारह का हो गया है। उसने अपनी माँ की तमाम मुसीबतें देखी हैं। वह कॉलेज में पढ़ता है लेकिन आज भी अपनी माँ के साथ खेती के काम में, मजूरी करने हाथ बँटाता है। वह कहता है, माँ है इसलिए मेरे सिर पर छत है। पिता के मरने पर हमें बिना किसी सामान के घर से निकाल दिया था। माँ ने जैसे तैसे कागज़ जुटाकर आवास योजना में मिले पैसों से घर बनाया। पिता सारी कमाई दारू में उड़ाता था। माँ ने ही दूसरों के खेतों में मजूरी कर मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया। माँ ने आत्महत्या कर मुझे अनाथ नहीं किया। उसने अपनी ज़िम्मेदारियों को झटका नहीं।

इन निरीक्षणों के दौरान यह भी देखा गया कि आत्महत्या करने वाले अधिकतर किसान ओबीसी जातियों के हैं। मगर उनकी आत्महत्या का मुद्दा जब कहीं भी उन जातिगत राजनीतिक संगठनों के एजेंडे में शामिल नहीं है, तब ये आत्महत्याग्रस्त किसान महिलाएँ तो उस आंदोलन में अदृश्य ही हैं।

सांगोला, सोलापुर आदि गाँव पश्चिमी महाराष्ट्र में होने के बावजूद अकालग्रस्त हैं। सांगली, सोलापुर, सांगोला क्षेत्र में आंबेडकर कृषि विकास संस्था का काफी बड़ा संगठन है। यहाँ प्रभा यादव से बहुत मदद मिली। मैंने उनके साथ ही इस क्षेत्र का दौरा किया। विदर्भ जैसी ही खेतों की स्थिति होने के बावजूद यहाँ आत्महत्या का अनुपात तुलनात्मक रूप में कम है। (मराठी से अनुवाद – उषा वैरागकर आठले)

(विदर्भ की जमीन से किसानों की स्थिति और आत्महत्या करने वाले किसानों की पत्नियों/परिवारों की स्थिति का तीसरा और अंतिम भाग कल)

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