शोध की अंतहीन कथाएँ हैं। अगर शोधार्थी अपने अनुभवों को कलमबद्ध कर दें तो यह उपन्यास से भी बढ़कर और रोचक होगा। लेकिन बेचारे शोधार्थी अपने गाइड की सेवा में ही इतने चिंगुर जाते हैं कि बाकी लिखने के लिए दिमाग काम ही नहीं करता। पढ़िये युवा कवि-कहानीकार दीपक शर्मा की यह टिप्पणी
विद्यार्थियों द्वारा हमेशा से मांग की जाती रही है कि शोध के लिए चयन प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए, किंतु विश्वविद्यालयी मठाधीशों के आगे उनकी सुनवाई कभी नहीं होती। विश्वविद्यालयों में चापलूसी और भाई-भतीजावाद का ज़हर इतना खतरनाक है कि इसमें अच्छी-अच्छी प्रतिभाओं की बलि चढ़ जाती है। प्राय: देखा जाता है कि एमए प्रथम सेमेस्टर से ही विद्यार्थी, प्रोफेसर के आसपास मंडराने लगते हैं। नियमित कक्षा में न रहने वाले विद्यार्थी भी अक्सर प्रोफेसरों के चेंबर या उनके आवास पर दिखाई दे जाते हैं। प्रायः विद्यार्थियों को पता होता है कि प्रोफेसरों के विभाग में आने और जाने का समय क्या होता है और उन्हें कैसे संतुष्ट किया जा सकता है?
इसके लिए वे अपने सीनियरों से भी लगातार सलाह लेते रहते हैं तथा उनकी नज़र में खुद को अच्छा और योग्य साबित करने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं और उनके विचारधारा के अनुरूप खुद को ढालने की कोशिश करते हैं। वे विद्यार्थी अक्सर ही विभाग के बाहर उनका इंतजार करते रहते हैं और प्रोफेसर साहब की कार का फाटक खुलते ही श्रद्धा के साथ ऐसा चरण-स्पर्श करते हैं मानो अब उन्हें तीनो लोक का खजाना मिलने ही वाला है। प्रोफ़ेसर भी कम चतुर नहीं होते हैं। मुर्गा अपने से आया है तो छुरी तेज क्यों न की जाए! जो विद्यार्थी उनका सारा काम कर सके, उनके घर साग-सब्जी, दवा और जरूरत की चीजें पहुंचा सके, उनके बच्चों को स्कूल पहुंचा और ला सके, उनके घर पर पहरेदारी कर सके, उनकी बीवी के लिए खरीदारी कर सके तथा प्रोफेसर के साथ चलते हुए सेमिनारों, स्टेशनों और हवाई अड्डों तक उनका झोला ढो सके। ऐसे विद्यार्थियों को प्रोफेसर लोग ज्यादा पसंद करते हैं। ये सब काम करवाने में प्रोफेसर साहब को भी कोई दिक्कत नहीं होती।
विश्वविद्यालयों में शोध के लिए कमजोर तबके के विद्यार्थी इसलिए नहीं पहुँच पाते कि वहाँ उनका कोई सगा-सम्बंधी नहीं होता या उनके लिए विशेष सिफारिश के लिए कोई तैयार नहीं होता। मेरा मानना है कि विश्वविद्यालय में साफ-सुथरी कमेटी बनाकर इन मामलों की जांच की जानी चाहिए ताकि प्रतिभावान छात्र छात्राओं को उनका हक और न्याय मिल सके।
शिक्षक दिवस और गुरु पूर्णिमा के दिन प्रोफेसरों के चेंबर में उपहार देने वाले विद्यार्थियों की काफी भीड़ लगी होती है। कुछ विद्यार्थी शिक्षकों के सम्मान में विभाग में कार्यक्रम रखकर उनका गुण भी गाते नहीं अघाते हैं और कुछ विद्यार्थी फेसबुक पर अपने करीबी प्रोफेसरों के साथ फोटो चफना कर उनकी प्रशंसा में खूब लंबा-चौड़ा पोस्ट लिख डालते हैंं, ताकि वे प्रोफेसर की नजर में योग्य शिष्य बने रहें और आगे चलकर शोध के लिए सिफारिश करने में कोई दिक्कत न हो। मैंने कुछ ऐसे प्रोफेसरों को देखा है जो शिक्षक दिवस के दिन अवकाश रहने पर उसके एक दिन पहले ही शिक्षक दिवस का कार्यक्रम रखवा लेते हैं ताकि उन्हें अपने विद्यार्थियों से उपहार और अपनी प्रशंसा पाने में कोई कसर बाकी न रहे। प्रोफेसरों के जन्मदिन के अवसर पर फेसबुक और व्हाट्सएप पर उनकी तस्वीर के साथ गजब का महिमामंडन देखने को मिलता है। ऐसे अवसर पर प्रोफेसर खुद को श्रद्धेय होते देख आत्मविह्वल रहते हैं।
एक सामान्य विद्यार्थी जब किसी प्रोफेसर के पास अपना प्रपोजल लेकर जाता है तो वे समय न रहने का बहाना कर देते हैं या उसमें तमाम कमियां निकालते हैं या किसी अन्य जटिल विषय पर नया प्रपोजल बनाने की सलाह दे देते हैं, किंतु जब उनका कोई करीबी उनके पास जाता है तो चेंबर में उनके साथ घंटों समय व्यतीत करते हैं तथा प्रपोजल की मोटा-मोटी रूपरेखा भी वे स्वयं खींच देते हैं। अंततः उनका खराब से खराब प्रपोजल भी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि प्रोफेसर लोग किसी प्रतिभाशाली विद्यार्थी का प्रपोजल अस्वीकार करके उसे अपने किसी सगे संबंधी को दे देते हैं तथा उसे परखने के नाम पर कोई नया टॉपिक दे देते हैं और यह काम उससे बार-बार करवाते हैं। अंत में वह परेशान होकर किसी दूसरे प्रोफेसर के यहाँ हाथ-पाँव मारने के प्रयास में लग जाता है। मुझे कोई ताज्जुब नहीं लगता है जब कोई मेरा मित्र यह कहता है कि मेरे शोध निर्देशक ने मुझे फलाना विषय पर एक समीक्षात्मक लेख लिखने को कहा है और उस लेख को वे किसी पत्रिका में अपने नाम से छपवायेंगे। इस प्रकार प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के प्रतिभा का भी जबरदस्त शोषण होता है।
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मेरे कई साथी पिछले चार सालों से काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रेट एग्जम्टेड और रेट की परीक्षा में बड़ी उम्मीद के साथ बैठ रहे हैं किंतु उन्हें हर बार निराशा हाथ लगती है। उनमें से कुछ शोध के लिए अहिंदी क्षेत्र में चले गए तो कुछ राज्यस्तरीय विश्वविद्यालय की शरण में गए। किंतु चापलूस किस्म के सारे विद्यार्थियों का चयन धीरे-धीरे हो गया। मैं यह नहीं कह रहा कि किसी योग्य और अचापलूस विद्यार्थी का चयन नहीं होता, किंतु उनमें से अधिकतर विद्यार्थी ऐसे ही होते हैं जो चापलूसी करके शोध में प्रवेश पाते हैं या किसी सगे-संबंधी का हवाला देकर।
प्रोफेसर के दिमाग में जाति का ज़हर भी लबालब भरा होता है। वे लिस्ट मंगाकर पहले ही देख लेते हैं कि कौन ब्राह्मण है, कौन क्षत्रिय है, कौन नाई, गोड़, अहिर, धोबी, कुर्मी, कोहार। विश्वविद्यालय में अब तक सवर्ण शिक्षकों की रणनीति हावी रही है। मुझसे तो वाइबा में भी पूछ लिया गया कि आप शर्मा किस जाति के अंतर्गत लिखते हैं? तभी मैं समझ गया था कि विभाग मुझे किस आधार पर नंबर कम या अधिक देगा। वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने मुझसे कहा कि मेरे अंडर में शोध के लिए चार सीटें खाली है किंतु मैं अपने अधीन सिर्फ और सिर्फ सवर्ण विद्यार्थी को ही रखता हूँ। भूलकर भी एससी, एसटी, ओबीसी या माइनॉरिटी के विद्यार्थियों को नहीं लेता।
विभाग का चक्कर काटते-काटते विद्यार्थी भी समझ जाते हैं कि मेरी दाल किसकी बटलोई में गल सकती है। कई प्रोफेसर तो ऐसे होते हैं जो शोध के लिए किसी को इनकार नहीं करते। ऐसे में कई विद्यार्थियों को उम्मीद रहती है कि अबकी बार उनका चयन हो जाएगा। किंतु जब रिजल्ट सूची जारी होती है तो उसमें उनका नाम न होकर ऐसे विद्यार्थी का नाम होता है जिसकी उम्मीद किसी को नहीं रहती। तब प्रोफेसरों की तरफ से सफाई आती है कि अगली बार तुम्हारा अवश्य हो जाएगा। इस तरह से विद्यार्थी पुरजोर कोशिश और समर्पित भाव के साथ उनके आगे-पीछे लगे रहते हैं और अंत में घोर निराशा के साथ विभाग छोड़ देते हैं। ऐसे ही एक मेरे मित्र ने एक प्रोफेसर से अपने नाम के साथ जब यादव बताया तो प्रोफेसर साहब उसे झिड़क कर उठ गये तथा टालमटोल करके जगह न खाली रहने का बहाना बना दिया। बाद में उन्होंने अपने अधीन दो सवर्ण विद्यार्थी ले लिए। कुछ दिन बाद वही विद्यार्थी उसी प्रोफेसर से मिला और अपने नाम के साथ यादव हटाकर सिंह बताया तो प्रोफ़ेसर साहब ने कहा कि तुम पहले क्यों नहीं आए? चलो अबकी बार मैं तुम्हारे लिए प्रयास करता हूँ।
दबंग और नेता किस्म के विद्यार्थी जिन्हें ढंग से दो उपन्यास का नाम तक नहीं पता होता है, चयन सूची में उनका नाम प्रायः मिल जाता है। तब अन्य विद्यार्थियों की आशंका यकीन में बदल जाती है कि इसके पीछे क्या खेल हुआ है। साक्षात्कार में जो पैनल बैठता है, विद्यार्थियों को पहले से पता होता है और बार-बार वही पैनल बैठता है, इसलिए विद्यार्थीगण उनके करीब रहना ज्यादा पसंद करते हैं। यदि उनके करीब नहीं पहुंच पाते तो पता करते रहते हैं कि उनका करीबी कौन है? ताकि उनके माध्यम से जुगाड़ लगाया जा सके। पैनल में दो बाहरी लोग चुनकर भेजे जाते हैं, जिनका विभाग से साठ-गांठ होता है या पैनल में बैठे अन्य इंटरव्यूअर से उनका कोई न कोई खास रिश्ता होता है।
साक्षात्कार वाले कमरे में विद्यार्थी के अंदर जाते ही कमरा बंद हो जाता है। अंदर पहुंचने के बाद कैसा प्रश्न पूछा जाता है? प्रश्न पूछा जाता है या सिर्फ हाल-चाल होता है? किसी को नहीं पता। आत्मविश्वास के साथ सारे सवालों का जवाब देने के बावजूद विद्यार्थी असमंजस में रहता है कि मेरा चयन होगा या नहीं। एक बार नामवर सिंह ने काशीनाथजी को अशोक सिंह (भूतपूर्व विभागाध्यक्ष हिंदी विभाग बीएचयू एवं कला संकाय डीन) के बारे में एक पत्र में लिखा था कि डॉ. विजय पाल सिंह के सुपुत्र अशोक सिंह को बड़ी मुश्किल से सोशियोलॉजी में प्रवेश दिला दिया। मुझे सपने में भी खयाल न था कि यह लड़का इतना कमजोर होगा। इंटरव्यू में वह दो उपन्यास के नाम भी ना बता सका। प्रेमचंद के बारे में दो शब्द न कह सका। लोग हैरान थे कि का.हि.वि.वि. का 75% अंक पाने वाला हिंदी एम.ए. ऐसा है। बहरहाल, मैंने बात की थी तो रह गई।
इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पर्दे के पीछे क्या खेल होता है? ऐसे अनेक प्रोफ़ेसर अपने किसी खास को बात दे देते हैं और उनकी बात रह जाती है। अभी हाल ही में गाँव के लोग पत्रिका के दलित विशेषांक में प्रोफेसर कालीचरण स्नेही की कहानी शोधगंगा पढ़ने को मिली। उस कहानी में साक्षात्कार और चयन प्रक्रिया के काले कारनामे का यथार्थ चित्रण है। प्रोफेसरों के पक्षपाती चरित्र को भी उन्होंने विधिवत उजागर किया है।
प्राय: एक प्रोफेसर को भी पता होता कि कौन विद्यार्थी किस प्रोफेसर के पास कितनी बार जाता है? किसके साथ कितनी बार बैठकबाजी में शामिल होता है? किसके साथ कितनी बार चाय पीता है? ये खबरें उनके चापलूस विद्यार्थी ही उन्हें देते रहते हैं। कभी-कभी विभागीय गुटबाजी के कारण भी विद्यार्थियों को अच्छा-बुरा परिणाम देखना पड़ता है। यह गुटबाजी दो कारणों से होती है- जातिवाद या विचारधारा। जातिवाद में सवर्ण बनाम बहुजनवाद तथा विचारधारा में दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ और सबके अपने-अपने खेमे होते हैं। हमेशा एक खेमा दूसरे खेमे से कटकर रहता है। यहाँ तक कि विभाग में किसी कार्यक्रम और सेमिनार में वे मंच भी साझा नहीं करते। इसमें विद्यार्थियों पर भी नजर होती है कि कौन किसके कार्यक्रम में शामिल होता है, मध्यम मार्ग पर चलने वाला विद्यार्थी कहीं का नहीं हो पाता है।
लड़कों का आरोप रहता है कि प्रोफेसर लोग लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का चयन बेहद आसानी से कर लेते हैं। कैंपस के अंदर किसी पुलिया पर या हॉस्टल के कमरों में चर्चा का विषय बना रहता है कि लड़कियों को रिसर्च के लिए क्यों विशेष सिफारिश की जरूरत नहीं होती? हालांकि इसमें अपवाद भी है। वर्ष 2018 में बीएचयू हिंदी विभाग के एग्जेम्टेड का जब रिजल्ट आया था तो उसमें 44 चयनित विद्यार्थियों में 40 लड़कियां थीं। महिलाओं को वरीयता देकर उन्हें शिक्षा में आगे लाने का घोर समर्थक मैं भी हूँ, किंतु जब इतना बड़ा अंतर होता है तो विद्यार्थियों के मन में सवाल उठना लाजमी है। आए दिन छात्राओं का तरह-तरह से शोषण होते देख प्रोफेसरों के व्यवहार पर सवाल उठना अब आम बात हो गई है। लेकिन छात्राएं समाज में इसे खुलकर व्यक्त नहीं कर पातीं।
अभी हाल ही में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में पीएचडी प्रवेश के लिए रेट परीक्षा का रिजल्ट आया, जिसके बाद कुछ छात्र-छात्राएं विभाग के बाहर धरने पर बैठ गए। उनका मानना है कि परीक्षा में बहुत हद तक धाँधली हुई है। लिखित परीक्षा में अधिक नंबर पाने वाले विद्यार्थियों को इंटरव्यू में कम नंबर देकर उन्हें चयन सूची से बाहर कर दिया गया। यह विभाग की पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़ा करता है। अब छात्र धरने पर बैठ कर जीने-मरने तक की बात कर रहे हैं। इंटरव्यू में पक्षपात का खेल उत्तर भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में होता है। इसमें जातिवाद और भाई-भतीजावाद का बहुत गम्भीर मामला होता है।
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विश्वविद्यालयों में शोध के लिए कमजोर तबके के विद्यार्थी इसलिए नहीं पहुँच पाते कि वहाँ उनका कोई सगा-सम्बंधी नहीं होता या उनके लिए विशेष सिफारिश के लिए कोई तैयार नहीं होता। मेरा मानना है कि विश्वविद्यालय में साफ-सुथरी कमेटी बनाकर इन मामलों की जांच की जानी चाहिए ताकि प्रतिभावान छात्र छात्राओं को उनका हक और न्याय मिल सके। साक्षात्कार के लिए हर बार पैनल में परिवर्तन किया जाए तथा साक्षात्कार कैमरे के सामने ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग सहित हो। तब इससे कुछ हद तक सुधार हो सकता है।
दीपक शर्मा युवा कहानीकार हैं।
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