पिछले कुछ ही वर्षों में अवधी भाषी महिलाओं ने बड़ी संख्या में यूट्यूब पर अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है। यह ऐसी महिलाओं की कतार है जो निम्न मध्यवर्गीय और खेतिहर परिवारों से ताल्लुक रखती हैं और घर-गृहस्थी की व्यस्त दिनचर्या के बावजूद अपने गीतों से एक बड़े दर्शक समूह को प्रभावित किया है। इनमें से कई अब पूर्णकालिक और स्टार यूट्यूबर बन चुकी हैं। अपने बचपन में सीखे गीतों को वे बिना साज-बाज के गाती हैं और लाखों की संख्या में देखी-सुनी जाती हैं। यू ट्यूब पर गाना उनके लिए न केवल अपनी आत्माभिव्यक्ति है बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता भी है। इसके लिए उन्होंने कठिन मेहनत किया है। परिवार के भीतर संघर्ष किया है। जौनपुर, आजमगढ़ और अंबेडकर नगर जिलों के सुदूर गांवों की इन महिलाओं पर अपर्णा की यह रिपोर्ट।
भारत में पॉल्ट्री फ़ार्मिंग का तेजी से फैलता कारोबार है। अब इसमें अनेक बड़ी कंपनियाँ शामिल हैं जिनका हजारों करोड़ का सालाना टर्नओवर है लेकिन मुर्गी उत्पादक अब उनके बंधुआ होकर रह गए हैं। बाज़ार में डेढ़-दो सौ रुपये बिकनेवाला चिकन पॉल्ट्री फार्म से मात्र आठ रुपये किलो लिया जाता है। अब मुर्गी उत्पादक स्वतंत्र इकाई नहीं हैं। कड़े अनुबंध शर्तों पर वे कंपनियों के चूजे और चारे लेकर अपनी मेहनत से उन्हें पालते हैं और कंपनी तैयार माल उठा लेती है। मुर्गी उत्पादक राज्य और केंद्र सरकार से यह उम्मीद कर रहे हैं कि सरकारी नीतियाँ हमारे अनुकूल हों और हमें अपना उद्योग चलाने के लिए जरूरी सहयोग मिले। लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? पूर्वांचल के पॉल्ट्री उद्योग पर अपर्णा की रिपोर्ट।
सरकार नहरों के जीर्णोद्धार, मरम्मत के साथ-साथ नहरों के दोनों पटरियों पर सुगम आवागमन व्यवस्था की खातिर सड़क बनाने पर जोर दे रही है। दूसरी ओर बलिया जिले के बांसडीह तहसील क्षेत्र के सुखपुरा से सावन सिकड़िया, अपायल गांव तक जाने वाली महज पांच किलोमीटर दूरी की नहर की पटरी उपेक्षा का दंश झेलते हुए वीरान बनी हुई है। मानो वह इलाके के मानचित्र से बाहर हो चली है। जबकि इस नहर की पटरी वाली सड़क से कई गांवों के लोगों का आवागमन होता रहा है। यूं कहें कि यह लोगों की जीवन रेखा रही है। दिन हो या रात, पैदल सहित वाहनों का भी आवागमन होता रहा है, लेकिन ईट का खड़ंजा जो तकरीबन तीन दशक पहले बिछाया गया था (जिसके अंश कहीं कहीं दिखाई दे जाते हैं) उखड़ने के साथ ही अपना वजूद खो चुका है। सड़क का वजूद गुम हुआ तो उसका स्थान धीरे-धीरे जंगली झाड़ियों ने ले लिया। झाड़ियों के आगोश में नहर की पटरी ही गुम हो गई।
किसी ज़माने में चुनार के चीनी मिट्टी के बर्तनों की धाक बहुत दूर-दूर तक थी लेकिन आज वह अंतिम साँस ले रहा है। यहाँ के ज़्यादातर व्यवसायी खुर्जा से माल मंगाकर कर बेचते हैं। चुनार पॉटरी उद्योग के खत्म होने के पीछे एक अदद आधुनिक भट्ठी है जो बरसों की मांग के बावजूद नहीं लगाई जा सकी। नौकरशाही की अपनी अलबेली चाल है और व्यवसायियों की अपनी आर्थिक सीमाएं हैं। इन्हीं स्थितियों के कारण महज़ तीन-चार करोड़ की लागत वाली भट्ठी नहीं बन पाई जबकि भारत सरकार पूर्वांचल के विकास के लिए हजारों करोड़ की योजनाएँ घोषित कर चुकी है। एक भट्ठी के अभाव ने एक शहर की कारोबारी पहचान और हजारों लोगों की आजीविका छीन ली है। चुनार से लौटकर अपर्णा की रिपोर्ट
सरकार योजनाएँ लाती है और इसके लिए करोड़ों रुपए का बजट पास करती है। योजना की घोषणा के बाद लगता है कि अब सारी दिक्कतें दूर हो जाएंगी लेकिन तंत्र में बैठे लोग योजनाओं से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की जुगत लगाते हैं। ऊपर तो भ्रष्टाचार है ही नीचे वाले जो सीधे जनता से जुड़े होते हैं, वे भी गरीब मजदूर जनता को साफ-साफ ठगने का काम करते हैं। योगी सरकार का दावा है कि हर रोज 40 हजार नए नल में पानी की आपूर्ति हो रही है, गाँव में नल तो लगे हुए हैं लेकिन अधिकाशत: नलों में पानी की जगह हवा निकल रही और जो दावे की पोल खोल रही है। वाराणसी के नहवानीपुर नट बस्ती से अपर्णा की ग्राउंड रिपोर्ट
देवरिया जनपद में बिहार राज्य की सीमा पर स्थित ‘स्याही नदी’ अपने नाम और वर्तमान स्थिति के कारण एक अनोखी नदी है। सन1916-17 में अंग्रेजों के जमाने में की गयी चकबंदी में बीस किमी लम्बाई में लगभग 300 मीटर चौड़ाई वाली महानदी स्याही के समस्त प्रवाह क्षेत्र को एक राजस्व ग्राम ‘मोहाल स्याही नदी’ के रूप में दर्ज कर उसके भीतर किसानों के कृषि कार्य हेतु चक आवंटन करना आश्चर्यचकित करने वाली घटना है।
सहरता को साल तो याद नहीं है लेकिन वो बताते हैं कि जम्मू और बाकी जगहों पर जब दिहाड़ी तीन रुपया थी तब वो बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के एक गाँव से अपने माँ-बाप के साथ जम्मू में ईंट के भट्ठे पर काम करने के लिए गए थे। घर पर खेती के लिए कोई जमीन नहीं थी इसलिए माता-पिता जम्मू और पंजाब में काम के लिए आते थे और सहरता के अनुसार अपने माता-पिता की तरह ही काम करने की उम्र होते ही उन्होंने भी ईंट भट्ठे पर काम करना शुरू कर दिया था। कुछ सालों में जब माता-पिता वापस गाँव में रहने के लिए चले गए तो सहरता भी जम्मू से चंडीगढ़ कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरी का काम करने के लिए आ गए।
2010 में गाँव सैदपुर में उनका एनरोलमेंट मनरेगा में हुआ और तब से औसतन प्रतिवर्ष दो महीने का काम मिलता रहा है । 2010 में उन्हें 65 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिलती थी जो अब बढ़कर 120 रुपये हो गई है। मनरेगा के अपने अनुभवों को साझा करते हुए रामचंद्र बताते हैं कि उन्होंने अब तक गाँव के आस-पास पुलिया लगाने, सड़क और नाली की मरम्मत करने और नई नालियां बनाने के काम में लगे रहे। उनका अब कोई बकाया नहीं है लेकिन तमाम मनरेगा मजदूरों की तरह वे भी कहते हैं कि जब भी वे बैंक से पैसा निकालते हैं तो तुरंत ही प्रधान का आदमी आकर अपना हिस्सा ले जाता है।