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हबीब जालिब के कबीर

महान शायर हबीब जालिब (24 मार्च 1928-12 मार्च 1993 ) के अशआर और नज़्में हरेक जन आंदोलन के समय जनाकांक्षाओं की तरजुमानी करते हैं। वे स्वयं जनता थे । भारत विभाजन के बाद जब वे पाकिस्तान गए तब वहाँ उन्हें प्रूफ़रीडिंग जैसे कड़े मशक्कत के काम से जीविका चलानी पड़ी। जिन्होंने यह काम किया है […]

महान शायर हबीब जालिब (24 मार्च 1928-12 मार्च 1993 ) के अशआर और नज़्में हरेक जन आंदोलन के समय जनाकांक्षाओं की तरजुमानी करते हैं। वे स्वयं जनता थे । भारत विभाजन के बाद जब वे पाकिस्तान गए तब वहाँ उन्हें प्रूफ़रीडिंग जैसे कड़े मशक्कत के काम से जीविका चलानी पड़ी। जिन्होंने यह काम किया है वे जानते होंगे कि यह काम कितना कठिन है और गलती से अगर कुछ छूट गया तो लेखक और प्रकाशक कितनी बेरहमी से प्रूफ़रीडर को बधिया करने पर उतर आते हैं । यह काम जितनी मेहनत का है इसकी मजदूरी उतनी ही कम होती है । ज़ाहिर है जालिब साहब ने इस मशक्कत , अभाव और ज़िल्लत को बहुत झेला होगा। उनकी कविताओं जो तल्खी है उसके पीछे उनके जीवन की सचाइयाँ और कठिनाइयाँ हैं । इससे उनमें वर्गीय चेतना का विकास और गैरबराबरी तथा अन्याय की व्यवस्था के सख्त नकार का साहस पैदा हुआ । वे प्रगतिशील कविता के स्तम्भ हैं । वे पाकिस्तानी शासकों की तानाशाही के खिलाफ एक दुर्निवार आवाज थे । अयूब खान के शासनकाल में उन्हें जेल में दाल दिया गया लेकिन वे कभी खामोश नहीं रहे । उनकी सीधी-सदी भाषा लोगों को अपील करती थी । उन्हें सुनने के लिए हजारों की महफिल जमा होती । बाद के दिनों में उन्होंने फिल्मों में भी लिखा लेकिन वहाँ भी उन्हें उचित परिश्रमिक नहीं मिला ।

कविता पढ़ते हुए हबीब जालिब

आज कबीर जयंती के मौके पर जालिब साहब की एक नज़्म इसलिए पढ़े जाने की जरूरत है ताकि मौके  और दस्तूर के लिहाज से कबीर साहिब को याद किया जाय और जालिब साहब कबीर को लेकर क्या सोचते थे उसे देख लिया जाय । वे कह रहे हैं कि दुनिया में अन्याय , गैर बराबरी , शोषण और उत्पीड़न देखकर जो उदास हो जाता है वही कबीर है । या वही उदास हो सकता है जिसमें कबीरी संवेदना हो । इस प्रकार जालिब साहब कबीर को एक व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि संवेदनाओं,चेतना और विद्रोद की एक विराट परंपरा के रूप में देखते हैं।

और मजे की बात यह है कि इसमें फिल्मी गीतकारों की तकलीफ भी है । तो फिर पढ़ी जाय नज़्म –

भए कबीर उदास

इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए

दूजा जुल्फ़ों की छावों में सुख की सेज पे सोए

राज सिंहासन पर इक बैठा और इक उसका दास

भए कबीर उदास !

 

ऊँचे ऊँचे ऐवानों में मूरख हुकम चलाएं

क़दम क़दम पर इस नगरी में पंडित धक्के खाएं

धरती पर भगवान बने हैं धन है जिनके पास

भए कबीर उदास !

 

गीत लिखाएं पैसे ना दें फिल्म नगर के लोग

उनके घर बाजे शहनाई लेखक के घर सोग

गायक सुर में क्योंकर गाए क्यों ना काटे घास

भए कबीर उदास !

 

कल तक जो था हाल हमारा हाल वही हैं आज

‘जालिब’ अपने देस में सुख का काल वही है आज

फिर भी मोची गेट पे लीडर रोज़ करे बकवास

भए कबीर उदास !

गाँव के लोग
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