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प्रवास का सिनेमा और भारतीय महिलायें

मनुष्यों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर विभिन्न कारणों से पलायन करने का लंबा इतिहास रहा है। हम इस लेख में भारत के गांवों से शहरों की तरफ पुरुषों के पलायन और उसके प्रभावों के उपर चर्चा करेंगे। इस विषय पर बॉलीवुड में बहुत सी फ़िल्में भी बनी हैं।  ऐसी ही एक हिंदी फिल्म […]

मनुष्यों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर विभिन्न कारणों से पलायन करने का लंबा इतिहास रहा है। हम इस लेख में भारत के गांवों से शहरों की तरफ पुरुषों के पलायन और उसके प्रभावों के उपर चर्चा करेंगे। इस विषय पर बॉलीवुड में बहुत सी फ़िल्में भी बनी हैं।  ऐसी ही एक हिंदी फिल्म वर्ष 1988 में रिलीज हुई थी जिसका नाम था ‘रिहाई’। इस फिल्म में विनोद खन्ना, हेमा मालिनी, नसीरुद्दीन शाह, नीना गुप्ता, रीमा लागू और मोहन अगाशे जैसे बड़े कलाकारों ने काम किया था। यह फिल्म गुजरात राज्य के एक दूरस्थ गांव की कहानी कहती है जिसके युवक और पुरुष रोजगार की तलाश में शहरों में पलायन कर गये थे जिसके कारण गाँव महिलाओं, बच्चों और वृद्ध लोगों का एक समुदाय रह जाता है। पुरुषों के उत्प्रवास और उसके फलस्वरूप महिलाओं के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को अत्यंत मार्मिक ढंग से इस फिल्म में चित्रण किया गया था। ‘रिहाई’ फिल्म की निर्देशक अरुणा राजे नाम की एक महिला थीं। गांवों से शहरों की तरफ होने वाला प्रवास एक बहुत महत्वपूर्ण प्रघटना है जिसने ग्रामीण जीवन के सामुदायिक चरित्र को गहरे प्रभावित किया है. अस्सी और नब्बे का दशक भारतीय समाज में बड़े बदलावों के लिए जाना जाता है। गुजरात समुद्र किनारे स्थित एक विकसित राज्य है जहां विविध प्रकार के व्यवसाय और उद्योग स्थापित हैं। अस्सी के दशक में गुजरात राज्य के गाँव पलायन की जिस व्यथा को जी रहे थे उसका आरम्भ उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पिछड़े राज्यों में नब्बे के दशक में हुआ। जजमानी व्यवस्था टूटी, जाति आधारित व्यवसायों की अनिवार्यता समाप्त हुई, शिक्षा और गतिशीलता बढ़ी, परिवार और स्थानीयता का मोह लोगों के मन से धीरे-धीरे कम होने लगा। समाज पुरुष प्रधान था और घर के बाहर काम करने और रोजी-रोटी कमाने की ज़िम्मेदारी पुरुषों के उपर ही थी इसलिए उत्प्रवास भी पुरुषों का ही हुआ।

लम्बी दूरी के प्रवास की यह घटना नयी थी जिसके प्रभावों से निपटने का उपाय समाज को अभी खोजना बाकी था। महिलाओं का घर से बहुत दूर जाकर पति के साथ रहना परिवार और समाज ने स्वीकार नही किया था। पुरुष शहर में अकेले था और पीछे गाँव में उसके माँ-बाप, बीबी-बच्चे और अन्य सगे सम्बन्धी थे। इस तरह चिट्ठियों से सम्वाद के ज़माने में एक नए तरह के परिवार और समुदाय की संरचना का उद्भव हुआ जिसे मैं फ्रेक्र्चर्ड फेमिली स्ट्रक्चर (एफएफएस) और फेक्चर्ड कम्युनिटी स्ट्रक्चर (एफसीएस) कहता हूँ। इस नयी संरचना में घर-परिवार की जिम्मेदारियों को सम्भालने का बोझ महिलाओं के कंधे पर आ गया। इससे उनके  अधिकारों में वृद्धि का आभास तो हुआ लेकिन वास्तविकता में दूर बैठे पुरुष मुखिया या पति का दखल महत्वपूर्ण निर्णयों में बना रहा। बच्चों की कल्पना में भी वह एक पिता की तरह बराबर मौजूद रहा कि एक दिन वह कमाकर लौटेगा या हर साल होली या दीवाली जैसे त्यौहार पर तो अवश्य लौटेगा। परिवार से अनुपस्थित ऐसे प्रवासी पुरुष को अवधारणात्मक रूप से मैं एब्सेंटी फादर  और एब्सेंटी हस्बैंड कहता हूँ। कभी-कभी तो बच्चों को अपने पिता का सिर्फ नाम और वह कहाँ रहता है इतना पता होता है जिसकी चर्चा वह अपनी माँ, दादा-दादी या गाँव वालों से सुनता है। ऐसे बच्चों के लिए वह इमैजिंड फादर होता है। प्रवास से उत्पन्न परिस्थितियों में वास्तविक जैविक पिता और सामाजिक पिता (समाज द्वारा स्वीकृत पिता) की द्विधाजनक स्थितियां भी उत्पन्न हुई हैं जिसके कारण अनेक तरह के संघर्ष और हाइब्रिड रिलेशंस का जन्म हुआ है। मानवशास्त्रीय शब्दावली में बात करे तो परिहार (रिलेशंस ऑफ़ अवाइडेंस) और मजाक (जोकिंग रिलेशंस) के सम्बन्धों में परिवर्तन आया है जिसके कारण प्रतिबंधित सम्बन्धों वाले लोगों में भी अन्तः क्रिया बढी है इसमें महिलाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण भी बढ़ा है । पति की अनुपस्थिति में पत्नियों का गर्भवती हो जाना और बच्चों को जन्म देना परम्परागत ग्रामीण परिवारों के लिए अपमानजनक परिस्थितियां उत्पन्न करता है । पड़ोस और गाँव में रहने वाले लोगों के आपसी बातचीत और प्राथमिक सूचनाओं से आप इस विषय में काफी जानकारी जुटा सकते हैं जो घरों की चारदीवारी के भीतर होने वाले झगड़ों और कलह से निकलकर बाहर आती रहती हैं । रिहाई फिल्म की विषय वस्तु पुरुषों के प्रवास से उत्पन्न परिस्थितियों में महिलाओं के जीवन में आने वाली समस्याओं को प्रमुखता से उठाती है.

[bs-quote quote=”विदेशिया, बटोहिया नाटक और गीतों में भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर ने अकेली महिलाओं के दुःख-दर्द को चित्रित किया। बॉलीवुड की फ़िल्में इस भेदभाव को प्रभावी ढंग से चित्रित करती है। रिहाई के अतिरिक्त अन्य बॉलीवुड फ़िल्में भी इस मुद्दे को प्रस्तुत करती हैं और हमे सोचने को मजबूर करती हैं:” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

प्रवास, सिनेमा और समाज

फिल्म रिहाई में नसीरुद्दीन शाह ने मनसुख नाम के एक नौजवान की भूमिका निभाई थी। वह कई वर्ष का समय दुबई में बिताकर वापस अपने गाँव लौटता है । उसके गाँव लौटने से एकाकी जीवन जी रही शादीशुदा औरतें बहुत खुश और उत्तेजित हैं जिनमें सुखी (नीना गुप्ता), रीमा लागू इत्यादि प्रमुख हैं । एक और औरत है टाकू (हेमा मालिनी) जो अमरजी (विनोद खन्ना) की पत्नी है और स्वाभिमानी प्रवृत्ति की महिला है । मनसुख उसे लुभाने-पटाने की कोशिश में लग जाता है और बाद में सफल भी हो जाता है । कुछ दिनों बाद मनसुख गाँव से चला जाता है । उसके जाने के बाद पता चलता है कि सुखी और टाकू गर्भवती हैं । इन दोनों के पति गाँव से दूर शहरों में रहते हैं। एक पराये मर्द के संसर्ग से गर्भवती हो जाना परम्परागत भारतीय समाज के मूल्यों, मान्यताओं, और प्रतिमानों के समक्ष चुनौती बनकर खड़ा हो जाता है । पुरुष वर्चस्ववादी समाज इस तरह की दुर्घटनाओं का प्रत्युत्तर महिलाओं को ज़िम्मेदार मानते हुए ही देता है क्योंकि घर-परिवार और समाज सबकी इज्ज़त बचाने की गुरुतर ज़िम्मेदारी स्त्रियों के कंधे पर ही होती है ।  इसीलिए तो अखबारी भाषा में ऐसे अपराधों के दण्ड में लोगों द्वारा गैर-क़ानूनी तरीके से लड़कियों/महिलाओं को मार दिए जाने की घटनाओं को ‘ऑनर किलिग़’ लिखा और बोला जाता है ।

कानूनी तौर पर देखें तो बालिग़ लड़कों की तरह लड़कियों के लिए भी जीवनसाथी चुनने का अधिकार भारतीय संविधान देता है । परन्तु वास्तविकता में भारतीय समाज अंतरजातीय-अंतर्धार्मिक वैवाहिक सम्बन्धों की इजाज़त प्रायः नहीं देता । माँ बनने का अधिकार भी एक महिला स्वयम तय नहीं कर सकती कि वह किस पुरुष के बच्चे की माँ बनेगी । परिस्थितिजन्य या शोषण/अपराध की शिकार होकर भी यदि एक अविवाहित लड़की या विवाहित महिला गैर पुरुष के बच्चे की माँ बन जाये तो भी सारी ज़िम्मेदारी/गलती उसी की मानी जाती है । यह फिल्म महिलाओं के हक की बात करती है । फिल्म के संवाद और दृश्यों से महिलाओं के बारे में पुरुषों की सोच, माँ बनने, गर्भवती होने के बारे में भी समाज के दृष्टिकोण का पता चलता है। फ्रायडियन फ्रेमवर्क में देखें तो मानव शरीर की जैविक जरूरतों को पूरा करना अनिवार्य है । यदि वह समाज द्वारा निर्धारित या थोपे गए प्रतिमानों में पूरा नही होता तो व्यक्ति उन बन्धनों को चाहे-अनचाहे तोड़ देता है जिसके लिए शास्तियां भी निर्धारित हैं । ये शास्तियां या दण्ड पुरुषों और महिलाओं के लिए बराबर या समान नहीं हैं । महिलायें इस भेदभाव की ज्यादा शिकार हैं जो समाज के ‘डबल स्टैण्डर्ड’ या प्रेज्यूडिस को दिखाता है । विदेशिया, बटोहिया नाटक और गीतों में भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर ने अकेली महिलाओं के दुःख-दर्द को चित्रित किया। बॉलीवुड की फ़िल्में इस भेदभाव को प्रभावी ढंग से चित्रित करती है। रिहाई के अतिरिक्त अन्य बॉलीवुड फ़िल्में भी इस मुद्दे को प्रस्तुत करती हैं और हमे सोचने को मजबूर करती हैं:

कथा (1982 सई परांजपे), तिरियाचरित्तर (बासु चटर्जी1994 शिवमूर्ति) अस्तित्व (2000 महेश मांजरेकर), रुस्तम (2016), मृत्युदंड (प्रकाश झा 1997).  

सई परांजपे के निर्देशन में बनी फिल्म ‘’कथा’’ में दीप्ति नवल, फारुख शेख और नसीरुद्दीन शाह ने मुख्य भूमिकाएं की थी। नसीर, दीप्ति से प्रेम करते हैं लेकिन फारुख एक आवारा टाइप आदमी है और वह अपनी मीठी बातों में उलझाकर दीप्ति और अन्य महिलाओं को न केवल फ्लर्ट करता है बल्कि शारीरिक सम्बन्ध भी बनाता है और एक दिन चुपचाप गायब भी हो जाता है। उसके गायब होने के बाद ये महिलायें ठगा हुआ महसूस करती हैं। तिरियाचरित्तर एक नकारात्मक शब्द है जिसका प्रयोग पुरुषों द्वारा महिलाओं के अस्थिर एवं संशयपूर्ण मानसिक स्थिति एवं व्यवहार वाली बताने के लिए किया जाता है। शिवमूर्ति जी अपनी ‘’तिरियाचरित्तर’’ शीर्षक कहानी में दिखाते हैं कि असल में महिलायें नहीं पुरुष का व्यवहार ज्यादा संकीर्ण और छल-कपट से भरा होता है और वह अपने इन दुर्गुणों से महिलाओं का शोषण करता है। रिहाई फिल्म के शोषक युवक की तरह इस फिल्म में भी शोषक ससुर की भूमिका में नसीरुद्दीन शाह ही हैं। शिवमूर्ति अपनी एक और कहानी ‘’कुच्ची का कानून’’ में कुच्ची नाम की एकल महिला माँ बनने का न केवल निर्णय लेती है बल्कि अपने फैसले को समाज के सामने जस्टीफाई भी करती है. महेश मांजरेकर निर्देशित और तब्बू, सचिन खेडेकर एवं मोहनीश बहल अभिनीत फिल्म ‘’अस्तित्व’’ भी विवाह के बंधन, शारीरिक जरूरतों, विवाहेतर सम्बन्धों, माँ बनने के अधिकार जैसे मुद्दों के प्रति मर्दवादी नजरिये की पोल खोलती है। प्रकाश झा निर्देशित ‘’मृत्युदंड’’ फिल्म में शबाना आज़मी की भूमिका में वह तय करती है कि उसके पेट में किसका बच्चा पलेगा। वास्तव में माँ ही जानती है कि वह किसके बच्चे की माँ है जिसका उसे पूरा हक भी है. अक्षय कुमार और इलियाना डीक्रूज़ अभिनीत ‘’रुस्तम’’ फिल्म में एक नौसेना के अधिकारी की विदेश में पोस्टिंग के दौरान उसकी पत्नी के अकेलेपन का लाभ उठाकर सेना का सामान सप्लाई करने वाला एक ठेकेदार शारीरिक सम्बन्ध बना लेता है। अधिकारी की पत्नी इसके लिए अपराधबोध में जीने को बाध्य होती है साथ ही अपने पति के प्यार से वंचित अभिशप्त जीवन जीती है। वैवाहिक समबन्धों से इतर जब पति या पत्नी परिस्थितिवश शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं तो कई तरह की जटिल स्थितियां उत्पन्न होती हैं। रुस्तम फिल्म में ऐसी मुश्किलों से मुक़ाबिल चरित्रों के कशमकश को यह फिल्म प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है।

प्रवास एक सामान्य डेमोग्राफिक प्रक्रिया है। शिक्षा, रोजगार, युद्ध और माहामारी की स्थितियों में लोग एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते हैं। प्रवास से जहां एक तरफ शिक्षित-कुशल लोगों की संख्या बढती है वहीँ समाज का आर्थिक स्तर भी उपर उठता है। गाँवों में अतिरिक्त जनसंख्या के बाहर चले जाने से शेष बचे लोगों की बारगेनिंग क्षमता में वृद्धि होती है इस तरह उनका आय और सम्मान दोनों में वृद्धि होती है। बच्चों को अच्छा कपडा, भोजन और शिक्षा उपलब्ध हो पाती है। कृषि भूमि खरीदने के साथ ट्रेक्टर, हार्वेस्टर जैसे आधुनिक संसाधनों को खरीदने की क्षमता में भी वृद्धि होती है। जातिवादी व्यवसाय और सामाजिक संरचना की जकड़न से भी राहत मिलती है जिससे श्रम और श्रमिक दोनों का सम्मान बढ़ता है। प्रवासी लोग अपनी बचत से गाँव में या आसपास के चौराहों और बाजारों में स्थायी प्रतिष्ठान खोलते हैं और आत्मनिर्भर होकर आगे प्रवास से बच जाते हैं। प्रवास से अर्जित सामाजिक-सांस्कृतिक और तकनीकी पूंजी से प्रवासी लोग पोल्ट्री, मशरूम डेयरी जैसे एग्रो-अलाइड बिजिनेस भी आरम्भ करते हैं जिससे नए रोजगार पैदा होते हैं।

पलायन के बाद शहरी केन्द्रों में मजदूर गंदी बस्तियों में रहने को मजबूर होते हैं जहाँ हवा, पानी, प्रकाश की समस्या होती है। गाँव में भी समर्थ लोगों द्वारा स्त्रियों का शोषण होता है। प्रवासी पुरुष तमाम गंदी आदतों जैसे शराब, गुटखा,पर स्त्री गमन के शिकार होकर एड्स जैसी बीमारियों के शिकार होते हैं. परिवारों भावनात्मक में वंचना व टूटन बढ़ता है। बच्चों और वृद्ध व्यक्तियों की देख-रेख ठीक तरह से नही हो पाती है. वयस्कों के शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से कई तरह की समस्याएं बढती हैं. महिलाओं का परीवार के अंदर और बाहर शोषण बढ़ जाता हैं। प्रवास के बहुआयामी सकारामक और नकारात्मक प्रभाव प्रवासी व्यक्तियों और परिवारों पर पड़ते हैं जिसे बॉलीवुड की फ़िल्में भी अपना विषय बनाती हैं।

गाँव के लोग
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2 COMMENTS
  1. एक सामान्य सा बिषय जिसे हम रोजमर्रा की जिंदगी में देखते और सुनते हैं, आपने बहुत ही बारीकी से बिषय के सभी पहलुओं को छूआ है जिसे हम सब सामान्यतया गौर ही नहीं करते। बहुत ही मर्मस्पर्सी एवं सुंदर आलेख,सर

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