भारतीय समाज को लेकर मेरी समझ हिंदी भाषी प्रदेशों के समाज तक सीमित है। इधर हाल के दस वर्षों में मेरा परिचय गैर-हिंदी भाषी समाज से भी हुआ है। लेकिन मैं इसे अपनी अल्पज्ञता ही मानता हूं। खासकर दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर के राज्यों के संबंध में। दोनों क्षेत्रों के समाज में हिंदी भाषी प्रदेशों के समाज की तुलना में बहुत अंतर है। हालांकि एक मान्यता मेरी यह है कि ब्राह्मणों का पूरे भारत पर कब्जा है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक। पूर्वोत्तर के राज्य भी अछूते नहीं हैं।
मेरी जेहन में एक बात चलती रहती है कि आखिर ब्राह्मण वर्ग का चरित्र सत्ता और सेना का समर्थक होना क्यों रहा है। क्या इसके पीछे कोई खास वजह है?
[bs-quote quote=”ब्राह्मण वर्ग का चरित्र ऐसा क्यों है कि वह सत्ता की खुलकर आलोचना नहीं कर सकता। उसे न तो मुगलों से कोई परेशानी थी और ना ही अंग्रेजों के समय में। ऐसा क्यों?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अभी के हालात के आधार पर भी मैं कहूं तो आज यदि कोई जाति अथवा समुदाय अपने अधिकारों को लेकर निश्चिंत है तो वह ब्राह्मण समाज ही है। उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि देश में पेट्रोल की कीमतें बढ़ रही हैं। सरसों तेल की कीमत भी दो सौ रुपए के पार हो गयी है। आटा, दाल, चावल, सब्जी व अन्य आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में आग लगी है। कभी दो रुपए में एक किलो बिकने वाला नमक आज 50 रुपए किलो बिक रहा है। ब्राह्मण वर्ग को देश की फिक्र भी नहीं है। अभी हाल ही में पेगासस प्रकरण को लेकर ब्राह्मण वर्ग के एक बड़े पत्रकार से बात हो रही थी। उनका कहना था कि यह सब बेकार के मुद्दे हैं। शास्त्रों के मुताबिक, नरेंद्र मोदी ने कुछ भी गलत नहीं किया। यह शास्त्रों में ही है कि राजा को अपना राज चलाने के लिए साम-दाम-दंड-अर्थ-भेद का उपयोग करना चाहिए। हाल ही में भारत सरकार ने राज्यसभा में कहा कि कोरोना की दूसरी लहर के कारण किसी भी व्यक्ति की मौत ऑक्सीजन की कमी के कारण नहीं हुई। इसके संबंध में उक्त ब्राह्मण पत्रकार का मानना था कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है और इस हिसाब से देखा जाय तो जो भी मौतें हुई हैं, उसमें देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोई भूमिका नहीं है। केंद्र सरकार ने आगे बढ़कर देश भर में ऑक्सीजन की आपूर्ति को प्राथमिकता दी।
ऑक्सीजन से याद आया। घटना बीते रविवार की है। बिहार के गया जिले के मगध मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक वृद्ध की जान ऑक्सीजन नहीं मिलने से चली गयी। यह इसके बावजूद कि अस्पताल में ऑक्सीजन का सिलिंडर था लेकिन उसकी चाबी नहीं मिली। हुआ यह कि वृद्ध को अस्पताल में भर्ती कराया गया। चिकित्सक ने नर्स को तुरंत ऑक्सीजन लगाने के लिए कहा। नर्स ने वार्ड ब्वॉय को निर्देश दिया। इतना कुछ होने में करीब दो घंटे का समय बीत चुका था। वृद्ध की सांसें उखड़ रही थीं। उसके परिजन बार-बार नर्स और चिकित्सक के पास दौड़ लगा रहे थे। इस क्रम में वार्ड ब्वॉय दो बार सिलिंडर लेकर आया भी, लेकिन दोनों खाली निकले। करीब एक घंटे बाद वार्ड ब्वॉय तीसरा सिलिंडर लेकर पहुंचा जो कि खाली नहीं था। लेकिन जैसे ही नर्स ने उसे लगाने की कोशिश की तो उसकी चाबी नहीं मिली। चाबी असल में वह रेगूलेटर है जिसके जरिए सिलिंडर से ऑक्सीजन पाइप के सहारे मरीज तक पहुंचाया जाता है। अंतत: परिणाम यह हुआ कि मरीज की मौत हो गयी।
अब इस खबर को कैसे देखा जाय? क्या इसे ऑक्सीजन की कमी से मरना नहीं माना जाएगा? क्या इस घटना के लिए बिहार का मुख्यमंत्री जिम्मेदार नहीं है? क्या इस घटना के लिए देश के प्रधानमंत्री से सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए?
[bs-quote quote=”एक संभावित जवाब यह है कि ब्राह्मण वर्ग यह जानता है कि जाति व्यवस्था के टूटने से उसके उपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना निश्चित है। इस बात को ध्यान में रखते हुए क्या ब्राह्मणों से यह उम्मीद करना बुद्धिसंगत है कि ब्राह्मण कभी एक ऐसे आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए हामी भरेंगे, जिसका अंतिम नतीजा ब्राह्मण जाति की शक्ति और प्रतिष्ठा को नष्ट करना है?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मैं तो आसाम और मिजोरम की सीमा पर दो दिनों में हुई हिंसा को देख रहा हूं। ब्राह्मण वर्ग के लोगों को संभवत: यह नजर भी नहीं आ रहा कि वहां एक राज्य आसाम कैसे मिजोरम की सीमा में घुसकर उत्पात मचा रहा है। उसकी नजर में मिजोरम के लोग उपद्रवी हैं। इसी आशय के साथ हिंदी के अखबारों ने खबर प्रकाशित किया है। मैं यह देखकर हैरान हूं कि आसाम और मिजोरम के बीच हिंसक घटना की खबर को पटना से प्रकाशित प्रभात खबर ने मुख्य पृष्ठ पर जगह दी है। दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता द्वारा इस खबर को पहले पृष्ठ पर जगह देना अप्राकृतिक नहीं लगता है। लेकिन प्रभात खबर के मामले में ऐसा नहीं है। प्रभात खबर ने जो शीर्षक दिया है, वह वाकई में ब्राह्मण वर्ग की सोचने-समझने की शक्ति का परिचायक है – असम के 6 पुलिसकर्मियों की मौत, एसपी को भी लगी गोली।
मैं आईजॉल से प्रकाशित मिजोरम टाइम्स की खबर को देख रहा हूं। खबर में बताया गया है कि बीते 24 जुलाई को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने शिलांग में पूर्वोत्तर के राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की थी। इसके बाद से ही सीमा पर हिंसक घटनाएं हुई हैं। मिजोरम के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस लालबिकथंगा खिंगथे ने अपने बयान में कहा है कि कोलासिब जिले के एक सीमावर्ती गांव में आसाम पुलिस घुस गयी थी। इसका विरोध वहां के सथानीय निवासी कर रहे थे। दोपहर में आसाम पुलिस के द्वारा लोगों पर ग्रेनेड दागे गए। हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। हमारी पुलिस ने भी मोर्चा खोला और करीब 40 मिनट तक दोनों राज्यों की पुलिस ने एक-दूसरे पर गोलियां चलायी। इस घटना में दर्जनों स्थानीय नागरिक घायल हुए हैं।
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हिंदी के अखबारों में वह सूचनाएं नहीं हैं जो मिजोरम टाइम्स द्वारा प्रकाशित खबर में है। हिंदी अखबारों के मुताबिक मिजोरम की पुलिस उपद्रवी है।
खैर, मैं यह देख रहा हूं कि कैसे देश का गृह मंत्री अपने ही देश के दो राज्यों के बीच जंग करवा रहा है। और मैं यह भी देख रहा हूं कि हिंदी प्रदेशों का ब्राह्मण वर्ग तालियां बजा रहा है। एक वजह यह भी कि आसाम का मुख्यमंत्री ब्राह्मण है और मिजोरम का मुख्यमंत्री आदिवासी।
फिर से वापस उसी सवाल पर लौटता हूं कि ब्राह्मण वर्ग का चरित्र ऐसा क्यों है कि वह सत्ता की खुलकर आलोचना नहीं कर सकता। उसे न तो मुगलों से कोई परेशानी थी और ना ही अंग्रेजों के समय में। ऐसा क्यों?
मेरे हिसाब से इसका एक संभावित जवाब यह है कि ब्राह्मण वर्ग यह जानता है कि जाति व्यवस्था के टूटने से उसके उपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना निश्चित है। इस बात को ध्यान में रखते हुए क्या ब्राह्मणों से यह उम्मीद करना बुद्धिसंगत है कि ब्राह्मण कभी एक ऐसे आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए हामी भरेंगे, जिसका अंतिम नतीजा ब्राह्मण जाति की शक्ति और प्रतिष्ठा को नष्ट करना है?
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मेरा जवाब है नहीं। ब्राह्मण केवल नाम के वास्ते प्रगतिशील जरूर हो सकते हैं, वे दिखावा कर सकते हैं। लेकिन वे सत्ता का विरोध कभी नहीं कर सकते। उनके गले में हांडी है। इसे वे हमेशा लटकाकर रखते हैं। इसी में वे थूकते भी हैं और खाद्य सामग्री भी रखते हैं। समाज की जड़ता को तोड़ने के लिए वे इमानदार पहल नहीं कर सकते। यह काम तो देश के दलित-बहुजनों को ही करना पड़ेगा।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।