Saturday, July 27, 2024
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चींटी के पहाड़ पर चढ़ने के हौसले की कहानी

आत्मकथा लिखने के लिए जिस साहस और ज़ज्बे की आवश्यकता होती हैं वह दोनों ही तसनीम जी के भीतर मौजूद हैं I आत्मकथा का कोई भी ऐसा अंश पकड़ में नहीं आता जहाँ सच्चाई महसूस न होती हो I ईमानदारी से जुटाएं गए तजुर्बों और हौसलों की सच्ची दास्तान पाठक के मन को गहरे तक द्रवित करने का पूरा दमख़म रखती है I पितृसत्तात्मक मानसिकता स्त्री की आजादी को बहुत कम महत्त्व देती है या यूँ कहिए की स्त्रियों की ‘आज़ादी’ जैसा कोई टर्म उनके शब्दकोश में है ही नहीं I

तसनीम पटेल आज महाराष्ट्र शिक्षा जगत की एक महत्वपूर्ण शख्सियत हैं। कॉलेज से रिटायर होने के बाद वे फिलहाल महात्मा गाँधी मिशन विश्वविद्यालय में मानद प्रोफेसर हैं लेकिन अपनी सेवाओं के बदले वे कोई मानदेय नहीं लेतीं।

एक दौर था जब तसनीम महाराष्ट्र की राजनीति में एक प्रखर वक्ता के रूप में अपना जवाब नहीं रखती थीं। वे लम्बे समय तक कांग्रेस के मंचों पर उम्मीदवारों के पक्ष में भाषण देतीं और बाद में शरद पवार के प्रेरित करने पर राष्ट्रवादी कांग्रेस में शामिल हो गईं।

तसनीम पटेल ने कुछ वर्ष तक महाराष्ट्र महिला कल्याण विभाग की अध्यक्ष के रूप में काम किया लेकिन  जल्दी ही शिक्षा जगत में लौट आईं। शिक्षण उनका पैशन और प्रतिबद्धता है। इससे उन्होंने कोई समझौता नहीं किया।

अभी अभी उनकी मराठी में दो बार छपकर चर्चित हो चुकी आत्मकथा हिंदी में धरती भर आकाश के नाम से छपकर आई है। यह आत्मकथा इतने दर्दनाक अनुभवों से भरी है कि कोई भी पढ़कर विचलित हुए बिना नहीं रह सकता।

लेकिन वास्तव में यह इससे भी बड़ी किताब है। यह एक लड़की के हौसलों और सपनों के साकार होने की अभूतपूर्व कहानी है।  धरती भर आकाश आज़ाद भारत की पहली मुस्लिम स्त्री की आत्मकथा है।

यह एक परिवार, एक समाज, एक संस्कृति और एक परिवेश का बहुत बारीकी से चित्रण करती किताब है जो पढ़ने वालों को उसके कोने-अंतरों तक ले जाती है।

इन सबसे अलग यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो जन्म से ही सर्वहारा थी लेकिन अपनी लगन और मेहनत से अपनी जिंदगी की हर लड़ाई को जीत लिया!

“आत्मकथा लिखने के लिए जिस साहस और ज़ज्बे की आवश्यकता होती हैं वह दोनों ही तसनीम जी के भीतर मौजूद हैं I आत्मकथा का कोई भी ऐसा अंश पकड़ में नहीं आता जहाँ सच्चाई महसूस न होती हो I ईमानदारी से जुटाएं गए तजुर्बों और हौसलों की सच्ची दास्तान पाठक के मन को गहरे तक द्रवित करने का पूरा दमख़म रखती है I पितृसत्तात्मक मानसिकता स्त्री की आजादी को बहुत कम महत्त्व देती है या यूँ कहिए की स्त्रियों की ‘आज़ादी’ जैसा कोई टर्म उनके शब्दकोश में है ही नहीं I यह आत्मकथा ‘धरती भर आकाश’ केवल एक स्त्री की भूख , शिक्षा ,दुर्भिक्ष और उसके पिछड़े समाज की सडांधता की ही जानकारी नहीं देती बल्कि मुस्लिम जीवन के संकट ,उनमें पनप रहे परस्पर भेद- भाव से भी रूबरू कराती हैं I कथा के साथ जैसे – जैसे आगे बढ़ते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी पितृसत्तात्मक शोषण को झेल रही मजलूम ,थकी और बीमार औरतों के हलफनामे मिलने लगते हैं”डॉ. प्रियदर्शिनी

एक बर्बाद परिवार की कहानी

तसनीम के दादा याहिया पटेल महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले की बिलोली तहसील के एक गाँव साँवली से ताल्लुक रखते थे । वे वहाँ निज़ाम हैदराबाद के शासन के तहत साँवली गाँव की मालगुजारी वसूलते और काश्त  संभालते थे। वे  किसानों से मालगुजारी की वसूली करके हैदराबाद भेजते थे। लेकिन जब तसनीम के पिता नूरमोहम्मद पटेल महज सात साल के ही थे तब वे चल बसे।

पिता के निधन के बाद नूरमोहम्मद के दो बड़े भाइयों ने विधवा माँ, छोटे भाई और अबोध बहन को छोड़कर हैदराबाद की राह ली और फिर कभी पलटकर नहीं देखा कि वे किस हाल में जी रहे हैं ? बहुत बाद में जब नूर मोहम्मद पटेल साँवली गाँव के मुख्तार बन गए तब वे लोग यहाँ आते और मौज-मस्ती करते।

दोनों बेटों के जाने के बाद तसनीम की दादी राबिया बी ने अपने पति के दायित्व को संभाला। वे गाँव के बच्चों को उर्दू-फारसी पढ़ातीं और किसानों से लगान वसूल कर हैदराबाद पहुंचवातीं। बहुत कम उम्र में नूरमोहम्मद ने उनकी देख-रेख में काम संभाल लिया। वे किसानों के प्रति एक उदार रवैया रखते और निज़ाम को नियमित लगान भिजवाते।

उनकी वफादारी से खुश होकर निज़ाम शासन के बड़े अधिकारी सैयद याहिया देशमुख ने उन्हें एक हज़ार बीघे ज़मीन दी और साँवली गाँव का मुख्तार बना दिया। इसी बीच में उनकी शादी अपने बड़े भाई की छोटी साली महमूद बानो से हुई। परिवार खुशहाली में कुलांचे भर रहा था लेकिन देश की आज़ादी के बाद हुये बदलावों से यह परिवार तंगहाली में जीने को मजबूर हो गया।

आज़ादी के बाद देशी रियासतों का भारत में विलय होना शुरू हुआ लेकिन निज़ाम के रजाकारों ने इसके विरुद्ध एक युद्ध छेड़ दिया। वे साँवली में भी आए और नूरमोहम्मद से रज़ाकारों का संगठन बनाने को कहा लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। साँवली की उनकी मुख्तारी चली गई और वे अपने परिवार के साथ बहुत गहरे आर्थिक संकट में चले गए।

इतिहास की कई परतें

कोई भी आत्मकथा अपने समय की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से अछूती नहीं रह सकती। धरती भर आकाश में भी हम भारतीय इतिहास की अनेक परतें देख सकते हैं। भारत विभाजन के बाद बिलोली समेत पूरे महाराष्ट्र में अनेक स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे हुये और मुसलमानों को पाकिस्तान जाने के नारे लगाए गए।

तसनीम का परिवार सीधे इन हालात की जद में था क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था स्वतन्त्रता पूर्व एक भारतीय रियासत से जुड़ी हुई थी। 1947 में मची अफरा-तफरी में नूर मोहम्मद को सैयद याहिया देशमुख का आदेश मिला कि वे यथाशीघ्र किसानों से मालगुजारी वसूल करके हैदराबाद पहुंचाएं ।

रज़ाकारों ने जगह-जगह उपद्रव शुरू कर दिया । बिलोली तहसील के एक गाँव अर्जापुर में रजाकारों ने दिनदहाड़े एक नौजवान का खून कर दिया । मारा गया युवक गोविंदराव पानसरे था। इससे पूरा इलाका सड़कों पर उमड़ पड़ा और धार्मिक विद्वेष की भावना बहुत तेजी से फैली।

बेमेल विवाह , बेशुमार बच्चों की पैदाइश , घरेलू हिंसा के अंतहीन सिलसिले,दर्जनों बच्चे पैदा कर थकी जिंदगियां I बीमार औरतों की कराह उनकी काली सुरंगदार खोह में फँसी और उनकी उखडती साँसों की बेचैनी मन को बहुत बेचैन कर देती है I “अजी i आप मेरे शौहर है , आपके किये जुल्म ,जुल्म नहीं बल्कि ईनाम होते हैं I आप तौबा करके मुझे जहन्नुम में मत भेजिए” जैसे संवाद बेचारगी और मानसिक गुलामी का बड़ा सजीव ग्राफ खींचतें हैं I धर्म के पिछड़ेपन और गरीबी के साथ आर्थिक अभाव में दर – बदर होते एक मुफलिस मुस्लिम परिवार की बेटी तसनीम अपनी जिन्दगी बदलने और आर्थिक तंगी के नर्क से निकलने के लिए जो हिम्मत दिखाती हैं वह असाधारण हैं I” डॉ. प्रियदर्शिनी 

संप्रादायिक एकता की जगह धार्मिक उन्माद ने ज़ोर पकड़ लिया। गाँव-गाँव में लोग झुंड बनाकर नारे लगाने लगे – ‘हिंदुस्तान हिंदुओं का’, मुसलमानों पाकिस्तान जाओ’। चारों तरफ अफवाहें फैली हुई थीं। कभी भी दंगा हो सकता था।

मौके का फायदा उठाकर साँवली के अनेक किसानों ने उन ज़मीनों पर कब्जा कर लिया जिन्हें वे पहले से जोत रहे थे। हालांकि कई किसानों ने नूर मोहम्मद के साथ वफादारी दिखाई लेकिन एक दिन कुछ लोगों ने उनका अपहरण कर लिया। वे लोग उन्हें जान से मार डालना चाहते थे लेकिन कुछ किसानों ने मिलकर उन्हें छुड़ा लिया।

इस घटना ने पटेल परिवार की हिम्मत तोड़ दी । राबिया बी अपनी बेटी के साथ हैदराबाद चली गईं और नूर मोहम्मद ने अपने बीवी-बच्चों के साथ साँवली छोड़ दिया और बिलोली तहसील के पास एक किराये के मकान में रहने लगे।

इसके साथ ही इस किताब में मराठवाडा को लेकर चलनेवाली राजनीतिक लड़ाइयों और आंदोलनों का विस्तार से वर्णन है । कॉंग्रेस के राजनीतिक वर्चस्व को चुनौती देनेवाली ताकतों के उभार और राज्य की राजनीति में उनके केंद्र में आने की कई रोचक कहानियाँ तो हैं ही दलितों और सवर्णों के बीच की रस्साकशी भी अभिव्यक्त हुई है । मराठवाडा विश्वविद्यालय का नाम  बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर के नाम पर किए जाने के आंदोलन में स्वयं तसनीम भी शामिल रही हैं।

“यह आश्चर्यजनक है कि गरीबी और बीमारी से लड़ने के लिए तसनीम के पिता किसी भी तरह का परिश्रम करने की बजाय छिल्ले लगाने और आध्यात्मिक शक्तियाँ जगाने पर ज्यादा भरोसा किया। वे अल्लाह की ताकत पर अपने भरोसे में अपनी इस निर्योग्यता को छिपा लेते थे। घर बीमार पत्नी और चार बच्चे भूख से बिलबिला रहे होते लेकिन वे निर्द्वंद्व रहते।”

स्त्रियों का लोमहर्षक जीवन

यह आत्मकथा केवल एक स्त्री तसनीम की ही कहानी नहीं है बल्कि उनके बहाने उनके घर-परिवार की अनेक स्त्रियॉं और उनके समय की आम मुस्लिम स्त्री की भी ऐसी कहानियों का समुच्चय है जो पढ़नेवाले के दिल में वहशत पैदा करती हैं। तसनीम की माँ और मौसियों की कहानियाँ इतनी लोमहर्षक हैं कि इन्हें पढ़कर मन विचलित हुये बिना नहीं रह पाता।

तसनीम की एक मौसी ने पति की प्रताड़ना और घर के अभावों से जूझते हुये एक दिन आत्महत्या कर ली। उस समय वे गर्भवती थीं। उनके देहांत को महीना भी नहीं बीता था कि पति ने दूसरी शादी रचा ली । इसी तरह सत्तर साल की उम्र में उनके एक मौसा ने अपनी पत्नी को बिना तलाक दिये एक किशोरी से शादी कर ली।

तसनीम की तीसरी मौसी भी इससे कम दुर्भाग्यशाली नहीं थीं। उनके पति ने भी उनको बिना तलाक दिये दूसरी शादी कर ली और उन्हें खर्च देना पूरी तरह बंद कर दिया । उनकी एक मंदबुद्धि बेटी थी । वे अपना और अपनी बेटी के खर्च के लिए अपने पति और सौतन का हर घरेलू काम निपटातीं । बहुत बाद में उनके पति ने उन्हें फिर से अपने साथ रख लिया। तसनीम अपनी इस मौसी को अल्लाह मियां की बकरी कहती थीं। और उन्हें इस बात का बहुत गुस्सा था कि वे इतनी सहनशील क्यों हैं ?

“अपने गुरु को याद करते हुये तसनीम ने जो लिखा है उसे पढ़कर आँखें स्वतः गीली हो जाती हैं। लगता है काश कोई ऐसा व्यक्ति हमारा मार्गदर्शक क्यों न हुआ। किताब के  समर्पण पृष्ठ पर तसनीम ने लिखा है कि अगर गुरुजी न होते तो तसनीम कहाँ होती कुछ पता नहीं।”

परिवार में पर्दा प्रथा थी। यहाँ तक कि भीषण बीमारी में भी डॉक्टर बिना पति की उपस्थिति के किसी स्त्री की नाड़ी की जांच नहीं कर सकता था। तसनीम की माँ ऐसी ही स्त्री थीं। कई बार ऐसे मौके आए कि जब लगा जान चली जाएगी । दरवाजे पर डॉक्टर खड़ा है लेकिन पति के घर में रहने पर उन्होंने डॉक्टर को अपनी जांच नहीं करने दी।

तसनीम ने बिलोली कस्बे की तमाम मुस्लिम औरतों का वर्णन किया है जिनकी किस्मत में आधे पेट खाकर और फटे-चीथड़े पहनकर घर का काम निपटाना और जरा सा नानुकुर करने पर बुरी तरह पीटी जाने के अलावा कोई सुख नहीं था।

युवा तसनीम ने कॉलेज के दिनों में मुस्लिम स्त्री की इन दशाओं को लेकर एक लेख लिखा जो बाद में अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा। इस लेख के कारण उन्हें सैकड़ों की संख्या में धम्की और गाली-गलौज से भरे पत्र आते। उनके ऊपर हमले की कोशिशें हुईं। फिर भी तसनीम ने निडर होकर अपनी बात कही।

तसनीम का निजी संघर्ष और सफलता की राहें

अपने सुंदर माँ-बाप और भाई-बहन के मुक़ाबले तसनीम साँवली , दुबली-पतली और अति साधारण रूप लेकर पैदा हुईं और प्रकृति की इस रचना के लिए उन्हें लोगों ने जीभर अपमानित किया। उन्हें केवल भाई बहन अथवा पड़ोसी ही नहीं बल्कि स्वयं अपनी माँ से भी सुंदरता को लेकर व्यंग्य-बाण सुनने को मिलते। हालांकि उनके पिता उन्हें बहुत प्यार करते थे।

“सालेह चाउस ने तसनीम के पिता को बताया कि उनकी माँ ने अपने बहू के ऊपर कला जादू किया है। उन्होंने यह भी बताया कि उनके कमरे में तीन-चार फीट ज़मीन के नीचे उन्होंने कुछ गाड़ा है। नूर मोहम्मद को विश्वास नहीं हुआ लेकिन वे हैदराबाद से अपनी माँ को लेकर साँवली आए । जब उन्होंने अपनी माँ के मना करने के बावजूद घर में गड्ढा खोदा तो वहाँ कपड़ों की बनाई एक गुड़िया और दूरी वस्तुएं मिलीं। इस घटना ने माँ-बेटे को हमेशा के लिए एक-दूसरे से दूर कर दिया।”

तसनीम के पैदा होने के पहले उनके परिवार में गरीबी अपने पाँव पसार चुकी थी और अभाव शान से जम गया था। यहाँ तक कि तसनीम से पहले पैदा हुई संतान के जन्म के समय प्रसूता को ठीक से खिलाने के लिए भी घर में कुछ नहीं था लिहाजा वह लगातार बीमार रहने लगी। तसनीम के जन्म समय तो हालात और भी बुरे हो चुके थे।

उनके पिता अपने पूर्व मुख्तार तथा महदवी संप्रदाय से होने के गुरूर में बदलते हालात में कोई काम करने को राजी नहीं थे। इसका स्वाभाविक परिणाम यह था कि घर की जरूरतें पूरी करने के लिए वे अपनी जमीनें अथवा घर के सामान बेच देते । लेकिन स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि बेचने लायक सारी चीजें बिक गईं । अब कर्ज का ही आसरा था जो बहुत मुश्किल से मिलता।

इस प्रकार तसनीम ने एक अभावग्रस्त संसार में होश संभाला जहां न खाने को पर्याप्त और बढ़िया अन्न था। न पहनने के लिए कपड़े और न स्कूल के लिए स्लेट ही। दो तीन साल तक वह टूटी हुई पट्टी पर लिखना सीखती रहीं और फिर भाई-बहन की कॉपियों में से खाली पन्नों से बनाई कॉपी पर अपना पाठ लिखती लेकिन कई बार ऐसी कॉपियाँ भी मयस्सर न होतीं।

आठवीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते तसनीम को इस दुनिया के अनेक भयावह अनुभवों से गुजर जाना पड़ा। लेकिन उनकी हिम्मत थी कि टूटती ही न थी । पाँचवीं कक्षा में तसनीम ने सबसे पहली बार भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और इनाम जीता। उसके बाद तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। महाराष्ट्र में उनकी वक्तृता के चर्चे होते थे। वे हमेशा इसमें बेजोड़ रहीं।

तसनीम के इनाम में मिले पैसों से अक्सर घर में राशन, मिट्टी का तेल आता और न केवल अपनी बल्कि भाई बहनों की फीस भी भरी जाती। छोटी होने के बावजूद तसनीम ने अपने घर के अभिभावक का रोल अदा किया। भाइयों की नौकरियाँ लगवाईं और बहन की शादी की।

इसके बावजूद घर के लोगों ने उन्हें भरपूर उपेक्षित किया। लेकिन तसनीम को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सका । उन्होंने अपनी मेहनत और योग्यता से एक ऊंचाई हासिल की।

तसनीम के पथ-प्रदर्शक

तसनीम का सौभाग्य था कि उन्हें अच्छे अध्यापक मिले और उन्होंने इस प्रतिभाशाली लड़की को आगे बढ़ने  में मदद की । कमाल किशोर कदम , गोविंदराव बरबदेकर, गंगाधर पटने, रा.ब. इनामदार , अमृत देशमुख और सुधाकर राव डाइफोड़े जैसे अनेक लोगों का उनके जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है ही लेकिन नरहर कुरुंदकर का जो योगदान है वह बेमिसाल है।

कुरुंदकर तसनीम के सिर्फ गुरु ही नहीं थे बल्कि पिता और अभिभावक भी थे। उनके मार्गदर्शन में तसनीम ने अपनी पढ़ाई को सही दिशा में पूरा किया। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनीं और जीवन की हर परेशानी से निजात पाया। नरहर कुरुंदकर उनकी हर परेशानी का इलाज थे लेकिन उन्होंने तसनीम के स्वाभिमान को कभी कमतर न होने दिया।

अपने गुरु को याद करते हुये तसनीम ने जो लिखा है उसे पढ़कर आँखें स्वतः गीली हो जाती हैं। लगता है काश कोई ऐसा व्यक्ति हमारा मार्गदर्शक क्यों न हुआ। किताब के  समर्पण पृष्ठ पर तसनीम ने लिखा है कि अगर गुरुजी न होते तो तसनीम कहाँ होती कुछ पता नहीं।

अपने घर एक मांगलिक कार्यक्रम में उन्होंने तसनीम को बुलवाया था । चारों ओर खुशी का माहौल था । लेकिन अगले दिन अपने ठिकाने से जब गुरुजी के घर जाने के लिए निकलीं तब उनकी मृत्यु का दुखद समाचार मिला।

तसनीम की नौकरी लग जाने के बाद नरहर कुरुंदकर उनसे बहुत सख्ती से आधी तनख्वाह ले लेते थे। अगर तसनीम ने कुछ खरीदने की बात कहकर सौ-पचास मांगने की जुर्रत की तो वे हत्थे से उखड़ जाते थे। उनके न रहने के बाद उनकी पत्नी ने तसनीम को बुलवाया। एक थैली में डायरी रखी हुई थी जिसमें एक-एक बात का ब्योरा लिखा हुआ था कि कब कितने पैसे मिले। कुल इकट्ठा हुये साढ़े चौदह हज़ार रुपए तसनीम के हाथ पर रख दिये गए। यह राशि उनको बीएड की फीस जमा करने के काम आई। तसनीम ने लिखा है कि गुरुजी जानते थे कि मैं अगर सारा वेतन खर्च कर दूँगी तो कभी भी बीएड नहीं कर सकूँगी।

मुस्लिम जीवन में जात-पाँत और सामाजिक दूरी की दास्तान

मुस्लिम समाज की अंदरूनी जिंदगी को देखने के लिए तसनीम की कहानी एक बढ़िया माध्यम है। तसनीम के माता-पिता अपनी कुलीनता के आवरण में अपनी गरीबी, अभाव और अकर्मण्यता छिपाने की कोशिश करते।

उनके पिता कभी भी बिलोली की मस्जिद में इसलिए नमाज़ नहीं पढ़ने जाते थे क्योंकि बिलोली के मुसलमान उनकी तरह कुलीन और महदवी संप्रदाय के नहीं थे। उनके घर के लोग भी साँवली के ही कब्रिस्तान में दफनाये जाते थे। यहाँ तक कि वे बिलोली के मुसलमानों से एक दूरी बनाकर रखते थे।

रही मासूम रज़ा के उपन्यासों में पठानों ने अंसारियों को हमेशा हिकारत से देखा और उनके नामों को अक्सर बिगाड़कर उच्चारण करते थे। लगभग वैसे ही नूर मोहम्मद का अपने पड़ोसियों से संबंध था।

तसनीम ने ग्यारह साल अपना इंतज़ार करनेवाले मूक प्रेमी मेहताब पठान से प्रेम विवाह किया। उनके पिता इस शादी के कितने खिलाफ थे यह अलग से एक अध्याय है। तसनीम की माँ ने भी कभी खुशी-खुशी इस शादी की स्वीकृति नहीं दी। आर्थिक रूप से स्वावलंबी, पढ़े-लिखे, विनम्र और सुंदर मेहताब पठान राजनीतिक गतिविधियों में भी सक्रिय थे। लेकिन तसनीम के पिता उनको अपने से छोटे खानदान का और अकुलीन मानते थे।

छिल्ला लगाने और काला जादू का रहस्यमय संसार

यह आश्चर्यजनक है कि गरीबी और बीमारी से लड़ने के लिए तसनीम के पिता किसी भी तरह का परिश्रम करने की बजाय छिल्ले लगाने और आध्यात्मिक शक्तियाँ जगाने पर ज्यादा भरोसा किया। वे अल्लाह की ताकत पर अपने भरोसे में अपनी इस निर्योग्यता को छिपा लेते थे। घर बीमार पत्नी और चार बच्चे भूख से बिलबिला रहे होते लेकिन वे निर्द्वंद्व रहते।

कभी-कभी संयोग से कोई सामान बिक जाता या कहीं से कर्ज मिल जाता तो घर में चूल्हा जलने की नौबत आती। इस पर भी उन्हें कभी ग्लानि न होती बल्कि वे कहते कि अल्लाह अपने बंदों को तीं दिन से ज्यादा उपवास नहीं करने देता।

तसनीम की दादी राबिया बी यूं तो एक दबंग महिला थीं लेकिन एक प्रसंग में उनको काला जादू करनेवाली दिखाया गया है। तसनीम के ननिहाल वाले मानते थे कि उनकी बेटी के पाँव बहुत मुबारक हैं जिसके कारण दामाद को साँवली की मुख्तारी मिल गई लेकिन राबिया बी इससे सहमत नहीं थीं। दो बेटों के हैदराबाद बस जाने से उनके भीतर नूर मोहम्मद को लेकर असुरक्षा पैठ गई कि कहीं बहू के चक्कर में यह भी उनसे अलग न हो जाये ।

तसनीम के पिता हैदराबाद के बाहरी इलाके बंडलागुड़ा के एक गुनी के यहाँ अपनी बीमार पत्नी को लेकर गए जिन्होंने बताया कि आप बहुत पवित्र धर्मगुरु परिवार से हैं । सालेह चाउस नमक यह तांत्रिक बहुत रहस्यमय व्यक्ति थे और उनकी कहानी बड़ी अविश्वसनीय थी।

सालेह चाउस ने तसनीम के पिता को बताया कि उनकी माँ ने अपने बहू के ऊपर कला जादू किया है। उन्होंने यह भी बताया कि उनके कमरे में तीन-चार फीट ज़मीन के नीचे उन्होंने कुछ गाड़ा है। नूर मोहम्मद को विश्वास नहीं हुआ लेकिन वे हैदराबाद से अपनी माँ को लेकर साँवली आए । जब उन्होंने अपनी माँ के मना करने के बावजूद घर में गड्ढा खोदा तो वहाँ कपड़ों की बनाई एक गुड़िया और दूरी वस्तुएं मिलीं। इस घटना ने माँ-बेटे को हमेशा के लिए एक-दूसरे से दूर कर दिया।

टोने-टोटके का यह संसार बहुत भयावह, निष्ठुर और हृदयहीन था। पिता ने प्रेम विवाह करनेवाली अपनी ही पुत्री के बेटे को मर जाने के लिए छिल्ला लगाया। उसकी किसी खुशी में नहीं शामिल हुए और अपनी करनी पर उन्हे कोई पछतावा नहीं हुआ।

दूसरे स्तर पर तसनीम की कहानी सांप्रदायिक सद्भाव की भी एक अच्छी कहानी है। तसनीम के परिवार का पड़ोसी हिन्दू घरों से हमेशा प्रेमपूर्ण रिश्ता रहा और तसनीम को अधिकतर लोगों से सहयोग और समर्थन मिला।

प्रकाशक – अगोरा प्रकाशन,वाराणसी पृष्ठ -384 मूल्य – 400/- संपर्क – 9479060031

 

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

6 COMMENTS

  1. ऐसी संघर्ष भरी आत्मकथा को पढा जाना चाहिए।

  2. Hats off ??Tasneem and the struggle she went through is really inspiring and a lot of respect to her teacher who really made recommendable efforts through his guidance to make his student’s future secure and bright ??

  3. मर्मस्पर्शी आत्मकथा। धन्यवाद अपर्णा जी।

  4. मुस्लिम समाज की बारीकियों को कुरेदती और जीवन जीने की जिजीविषा के साथ मौजूद इस आत्मकथा कृति का स्वागत है. पुस्तक परिचय लिखने की शैली दमदार है.

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