वाराणसी। गांव सिकरा, ब्लॉक बक्सा जिला जौनपुर के अशोक दुबे मणिकर्णिका घाट पर अपने पिता गोकुल दुबे का अंतिम संस्कार लगभग कर चुके थे। इस बीच चिता बनवाने (व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत लकड़ी के ढेर को सजाना) का काम करने वाले सुनील कई बार अशोक से पैसे की मांग कर चुके थे और बार-बार पैसे मांगकरअशोक के दुख को गुस्से में बदलने का काम कर रहे थे। सुनील को पैसा मांगते देख उसका साथी (चिता जलाने वाला) भी अशोक के पास आया और बोला कि मुझे भी पैसे दीजिए। दोनों को जल्दी थी और पैसे लेकर जल्दी छोड़ देने की बात कर रहे थे कि इस बीच अशोक के रिश्तेदार देवी प्रसाद आकर बोले ‘पहले पिता की राख को गंगा में प्रवाहित कर लें, उसके बाद इन लोगों का पैसा दिया जाएगा।’ इसके बाद सुनील और उसके मित्र देवी प्रसाद से उलझ गए और बोले ‘ हमें पहले छोड़ दीजिए उसके बाद आप अपनी राख को गंगा में प्रवाहित करिए। हमें दूसरे ग्राहक भी देखना है। राख प्रवाहित करने तक मैं आपका इंतजार करूं, इतनी देर में तो मैं दो ग्राहकों को निपटा दूंगा। इसलिए मुझे मेरा पैसा पहले दे दीजिए।’ इसके बाद आंखों में आंसू लिए अशोक ने अपने रिश्तेदारों से पैसा मांग कर तुरंत उनका भुगतान किया।
ऐसा लग रहा था कि अशोक वाराणसी आकर अपने पिता के अंतिम संस्कार के खुद के फैसले पर पश्चाताप कर रहा हो, बोला- ‘ यहां घाटों पर चारों तरफ लुटेरे ही लुटेरे हैं। जब कोई बाहरी व्यक्ति अपने घर-परिवार के लोगों का अंतिम संस्कार कराने के लिए यहां पर आता है तो यहां घाटों पर डोमराजा से लेकर नाई, लकड़ी सजाने वाले से लेकर शव को जलाने वाले तक और उसके नीचे तक के लोगों की नजर सिर्फ आपके पैसों पर होती है। उनकी नजर सिर्फ इसी तरफ रहती है कि किस तरह से लोगों को ज्यादा से ज्यादा लूट लिया जाय। बाहर से आने वाला व्यक्ति कितना गरीब है, देने में सक्षम है या नहीं, ये लोग इस बात पर कभी विचार नहीं करते। ये जो मांगते हैं, अपनी उस मांग पर डटे रहते हैं।’ इससे पहले अशोक की नाई के साथ पैसे को लेकर झड़प हो चुकी थी। बीच-बचाव कर उनके रिश्तेदार देवी प्रसाद ने मामले को शांत करवाया था।
अशोक अपनी बात को आगे जारी रखते हुए कहता है कि ‘मैं एक गरीब ब्राह्मण परिवार से हूं। मेरे पिता गोकुल दुबे एक किसान थे। दुर्घटना में उनका एक पैर कट चुका था। पैर न होने की वजह से पिताजी कुछ कर भी नहीं पा रहे थे। हमारे पास जमीन-जायदाद भी ज्यादा नहीं है। हमारी पारिवारिक स्थिति भी नहीं ठीक नहीं है। मां की जिद पर हम पिताजी का अंतिम संस्कार करने के लिए वाराणसी आए। सोचा था 4 या 5 हजार में सब निपट जाएगा। लेकिन यहां आने के बाद मालूम हुआ कि यहां किसी भी चीज का कोई रेट फिक्स नहीं है। जो जैसा मिल गया, उससे उतना ज्यादा यहाँ के लोग कमा लेने की कोशिश करते हैं। मुझे बनारस आने में 6 हजार केवल गाड़ी का किराया देना पड़ा। 8 हजार अंतिम संस्कार में खर्च करना पड़ा। अभी यहां से रास्ते में जाते समय 8 से 10 हजार खाने-पीने में लग जाएगा। तेरहवीं में हाथ दबाते-दबाते दो से ढाई लाख रुपया लग ही जाएगा। मैं दो भाई और एक बहन हूं। खेती के अलावा घर में कोई आय का जरिया नहीं है। ऐसे में सारी व्यवस्थाएं कैसे होगी यह मेरी समझ में नहीं आ रही। काशी में लोग जिस तरह से परेशान किया, मन खिन्न हो गया। डोम राजा के परिवार के लोकेश से मैंने कहा मैं गरीब किसान परिवार से हूं, पैसा कुछ कम कर दीजिए लेकिन सबके बावजूद 8 हजार मांगे, तब आग दिया।’
इसी प्रकार वाराणसी की चोलापुर ब्लाक के ताराँव गाँव के श्यामबली ने लूट की बनारसी संस्कृति पर अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा, ‘मुझे अपनी पत्नी का अंतिम दाह संस्कार करने के लिए 9 हजार देना पड़ा। इसके अलावा चिता बनाने और लाश को जलाने का अलग से पैसा देना पड़ता है। यहां तो कर्मकांड के नाम पर लोगों की आस्था से खिलवाड़ किया जा रहा है। अंतिम संस्कार के नाम पर लोगों को लूटा जा रहा है। सरकार द्वारा इसका एक मानक तैयार किया जाना चाहिए। अंतिम संस्कार के लिए एक निश्चित राशि पूरे प्रदेश में लागू करनी चाहिए। जो भी व्यक्ति इस नियम को ना माने उसके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। मुंबई के साथ ही दूसरे प्रदेशों में आप जाकर देखिए यहां के मुकाबले वहां पर अंतिम संस्कार में बहुत कम पैसे लगते हैं। मैं एक किसान हूं। अंतिम संस्कार के समय व्यक्ति से लगाव और मोह के कारण हम पैसा नहीं देखते और जितना यह लोग मांगते हैं, दे देते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं हुआ कि आम जनता का यहां पर शोषण किया जाए। सुविधाओं के नाम पर यहां कुछ भी उपलब्ध नहीं है। घाट पर ना साफ-सफाई, ना ही पीने के पानी की व्यवस्था। फिर किस चीज का हमसे इतना पैसा लिया जाता है। जब संस्कार के नाम पर हमसे इतना पैसा लिया जा रहा है तो हमें अच्छी सुविधा भी यहां मुहैया कराई जानी चाहिए।’
इस बाबत जब मणिकर्णका घाट के डोम परिवार केसदस्य लोकेश से पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘हम लोग किसी से भी ज्यादा पैसा नहीं लेते। मांगने को तो हम बहुत कुछ मांगते हैं लेकिन लोग देते कहां हैं। जिसकी जितनी सामर्थ्य होती है, वह उतना दे देता है। अगर कोई निर्धन परिवार का व्यक्ति आता है तो हम उसका बिना पैसा लिए भी अंतिम संस्कार करवा देते हैं। लेकिन मेरा कर्ज तो उसके ऊपर हमेशा बना ही रहेगा। इसलिए लोग पैसा दे ही देते हैं। रही हमारे मांगने की बात तो हमारी मांग को कोई भी पूरी नहीं कर सकता। चूंकि आग देने की परंपरा पहले से ही हमें मिली हुई है। हम लोग कालू डोम की वंशज परंपरा से हैं। वह भी यही काम करते थे। आज हम लोग भी यही काम कर रहे हैं। रही बात ज्यादा पैसा लेने की तो 5 हजार रुपये फिक्स रेट है, जो कि हमारी तरफ से तय है। मैं व्यक्ति का अंतिम संस्कार इतने में करवा देता हूं। इसके ऊपर आपकी मर्जी। आप जितना पैसा लगाएंगे आपको उतनी अधिक सहूलियत दी जाएगी। सहूलियत से मेरा तात्पर्य शवदाह में पड़ने वाली सामग्री जैसे- घी, चन्दन की लकड़ी, देवदार की चैली आदि से है।’
डोम राज परिवार के लोकेश से जब बातचीत खत्म होती है तो उन्होंने इस बातचीत के लिए पैसे की मांग की। वे बोले ‘इतनी देर से बातचीत कर रहा हूं। आपको मैंने इतना समय दिय, कुछ तो पैसा दे दीजिए।’ लोकेश की मीडियाकर्मियों से इस तरह से पैसे की मांग करना, उसके सारे दावों की सच्चाई की पोल खोल कर रख देता है। इससे यह पता लग जाता है कि एक मीडियाकर्मी से बातचीत करने के बदले में जब वे पैसा मांग रहे हैं तो आम आदमी से अंतिम संस्कार के नाम पर किस तरह लूटते होंगे और लोगों की भावनाओं से खेलते होंगे।
अंतिम संस्कार के लिए आग देने की बात पूछे जाने पर हरिश्चंद्र घाट के डोम परिवार के विशाल कहते हैं, ‘घाट पर आने वाले लोगों से हम उचित पैसा लेते हैं।’ बहुत कुरेदने के बाद वे कहते हैं कि ‘एक साधारण व्यक्ति की लाश को जलाने के लिए हम कम से कम 5 हजार लेते हैं और इतने पैसे में लाश का अंतिम संस्कार करवा देते हैं। रही बात मांगने की, तो मांगने को तो हम बहुत कुछ मांगते हैं लेकिन पहले की तरह लोग अब नहीं देते। अब लोग चालाक हो गए हैं। पहले हम अनाज, सोना, चांदी, गाय, बछिया सब मांगते थे और हमें मिल भी जाता था लेकिन आज मांग लीजिए तो लोगों के मुंह पिचकने लगते हैं।’
वैसे अगर देखा जाय तो एक व्यक्ति के दाह संस्कार में 5 मन लकड़ी लगती है, जिसकी कीमत 18 सौ से 2 हजार रुपये पड़ती है। इसके अलावा आधा किलो घी, चन्दन एक पैकेट, स्टगन गुंगुल, राल, चिता बनाने और चिता को जलाने का मेहनताना सब मिलाकर 3 हजार से 32 सौ रुपया आता है। हरिशचंद्र घाट पर एक दुकानदार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ‘एक व्यक्ति का दाह संस्कार 3 हजार से 32 सौ रुपये में आसानी से हो जाता है। लेकिन यहां तो जैसे लूट की संस्कृति विकसित हो गई है। लोगों में इस बात की होड़ मची रहती है कि कौन कितना अधिक से अधिक लूट सकता है। आगे चलकर यह संस्कृति बड़ी भयावह होगी। इन स्थानीय लोगों के व्यवहार से बाहरी लोग यहां आना ही छोड़ देंगे। ऊपर से घाटों की साफ-सफाई का यहां बुरा हाल है। जहां पर शवदाह होते हैं वहां पर कितनी गंदगी पड़ी रहती है इसकी किसी को फिक्र नहीं है।’
जौनपुर जिले के सिरकोनी ब्लॉक के सेहमलपुर गाँव के निवासी गिरिजाशंकर यादव आपबीती सुनते हुए कहते हैं
‘बनारस घाटों पर जाते ही लोग, मेरी जजमानी(पुराने समय में नाऊ,पंडित,लोहार जाति के लोगों का एक विशेष इलाका बंटा होता था जिसे जजमानी कहा जाता था) कहकर घेर लेते हैं और मोलभाव करने लगते हैं। एक लाश के दाह संस्कार के लिए 15 से 20 हजार में बढ़िया ढंग से दाह संस्कार की बात कहकर मोलभाव करते हैं। इस दौरान सभी की भाषा एक ही रहती है। आप कितना खर्च कर सकते हैं। आपकी हैसियत कितना खर्च करने की है। आपके घर परिवार के लोग क्या करते हैं। एक वर्ष पूर्व अपने भाई के दाह संस्कार में मेरा 16 हजार केवल घाट पर लग गया था। उसके मुक़ाबले देखा जाय तो स्थानीय स्तर पर नदियों के किनारे दाह संस्कार सिर्फ एक हजार में हो जा रहा है। बनारस ले जाने से हमें क्या मिला? देखा जाय तो कुछ नहीं। बनारस जितना पैसा यहां लाशों को जलाने में लगा दिया जाये तो शव केवल घी से जलेंगे।’
अंतिम संस्कार के लिए बनारस में दो प्रमुख घाट हैं, जहां पर बनारस के अलावा आसपास के जिलों से लोग अपनों का अंतिम दाह संस्कार करने के लिए आते हैं। एक है हरिशचंद्र घाट और दूसरा मणिकर्णिका। बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर अब भी वाराणसी के दक्षिण और पश्चिमी भू-भाग के लोग अपनों के अंतिम दाह संस्कार के लिए आते हैं, दूसरी तरफ मणिकर्णिका घाट पर बनारस के पश्चिम और उत्तर में बसे लोग ही आते हैं। घाट के किनारे रहने वाले लोगों के अनुसार मणिकर्णिका घाट पर औसतन जहां एक दिन में लगभग दो से ढाई सौ लाशें आती हैं तो वहीं दूसरी तरफ हरिश्चंद्र घाट पर 40- 50 लाशें ही आती है। प्रति लाश अगर 5 हजार के हिसाब से एक आंकड़ा निकाला जाए तो दोनों घाटों से होने वाली आय का आंकड़ा आसानी से निकाला जा सकता है।
मरने के बाद जातिवाद
दोनों घाटों पर बनारस के अलावा आसपास के दूर-दराज के जिलों के लोग भी अपनों के दाह संस्कार के लिए आते हैं। लेकिन चिताओं को जलाने में हो रहे भेदभाव से ज़्यादातर लोग अपरिचित होते हैं। आज भी इन दोनों घाटों पर शव के दाह संस्कार में ऊंच-नीच के भेदभाव का दृश्य दिखाई पड़ता है। एक तरफ जहां हरिश्चंद्र घाट पर सवर्णों के लिए अलग से चबूतरा बना हुआ है तो छोटी जातियों के लिए सामान्य जगहों पर शवदाह का प्रावधान है। मजेदार बात तो यह है कि सवर्णों के चबूतरे पर छोटी जातियों के लोग अपनों का अंतिम संस्कार नहीं करवा सकते। नाम न छापने की शर्त पर डीएलडब्लू से अपने रिश्तेदार की शव यात्रा में आये एक व्यक्ति बताते हैं, ‘दाह संस्कार में आज भी जातिवाद का मुद्दा हावी है। सामने जो चबूतरा दिखाई पड़ रहा है, उस पर केवल सवर्ण जाति के लोग ही अपनों का अंतिम संस्कार करवाते हैं। यह उन्हीं लोगों के लिए रिजर्व है। आप चाहे जितना भी पैसा दे दीजिए लेकिन उस जगह पर आप अपने परिवार के लोगों का अंतिम दाह संस्कार नहीं करवा सकते। यह चबूतरा सिर्फ हरिश्चंद्र घाट पर ही नहीं है बल्कि मणिकर्णिका घाट पर भी बना हुआ है जो केवल सवर्ण शवों के लिए आरक्षित है।
बहरहाल यहाँ जो लोग अपनों के मोक्ष के लिए आते हैं वह साफतौर पर देखते हैं कि मोक्ष के प्रवेशद्वार पर सिर्फ और सिर्फ लूट संस्कृति की पहरेदारी है। यह संस्कृति काशी और काशी के क्रिया-कर्म के नाम पर होने वाले कर्मकांड को बखूबी लांछित करती है। लाशों का कफन बेच लेना आम जीवन में भले ही मुहावरा हो, पर यहाँ यह रोज घट रहे परिदृश्य का अहम हिस्सा है।