न्यू इंडिया की विशेषता है कि जो भी करेंगे मोदी ही करेंगे। बीते 28 मई को भी यही हुआ। संसद की नई बिल्डिंग के उद्घाटन से लेकर जंतर-मंतर होते हुए उज्जैन के महाकाल तक, जो भी किया, जहां भी किया, मोदी ने ही किया।
नए संसद भवन, जिसका शिलान्यास नरेन्द्र मोदी ने किया। बीच-बीच में उसके निर्माण की देखरेख करते हुए विभिन्न कोणों से फोटो भी नरेन्द्र मोदी ने ही खिंचवाए थे। कार्य पूरा होने के बाद उसका उद्घाटन भी नरेन्द्र मोदी ने किया। उद्घाटन भाषण भी नरेन्द्र मोदी ने दिया। इस बीच, जिसे उनकी पार्टी के नेता नेहरू की वाकिंग स्टिक बताते-बताते गला सुजा रहे थे, उस सेंगोल के सामने धरा पर लम्बलोट हुए नरेन्द्र मोदी ही उसे हाथ में लेकर (नहीं धारण करके) धीरे-धीरे, खरामा-खरामा चल सीढ़ियाँ चढ़कर आसंदी तक पहुंचे। इसके पहले देश भर से छाँट-छाँट कर बुलाए गए साधु-महंतों के आगे, हरेक के आगे, शीश नवाकर आशीर्वाद भी नरेन्द्र मोदी ने लिया। नरेन्द्र मोदी जिस समारोह को अपना ही राज्याभिषेक मान भांति-भांति की मुद्राओं में इत से उत हो रहे थे, उस सुबह से जारी अनवरत और दनादन लाइव के बीच (11 से 12 बजे के मध्य) का एक अंतराल आया, ताकि नरेन्द्र मोदी के मन की बात का लाइव प्रसारण हो सके। जो हुआ भी और उसके पूरा होते ही फिर सारे चैनलों की टीवी स्क्रीन पर नरेंद्र मोदी ही थे।
सामाजिक व्यवहार की बात दूर रही। हर भाषा, हर वर्तनी और हर व्याकरण के हिसाब से भी एक पैराग्राफ में एक ही शब्द या नाम को एकाधिक बार दोहराया जाना अनुचित और अशुद्ध माना जाता है। इसलिए ऐसा करना निषिद्ध होता है; मगर जब एक चालाक अनुवार्तित कुनबे का मामला हो तो, वे जो कहें वह प्रमाण है, जो करें वह प्रतिमान है। 28 मई को यही हुआ। संसद की नई बिल्डिंग तो बहाना था। हर संभव-असंभव कोण से मोदीमयता की बहार लाना था। जिसे खुद उन्होंने दिव्य, भव्य, अलौकिक और उनके टीवी चैनलों ने तो पारलौकिक तक बताया।
राज्याभिषेक के लिए पुरोहितों के पुराणों में जो बताया गया है 28 मई को वह सब कुछ था। उघाड़े उन्नत उदरों और लहराती दाढ़ियों वाले पुरोहितों के ठठ के ठठ थे। यज्ञ की वेदी थी। हवन कुंड था। लोबान था। आरती थी। मंत्रोच्चार थे। शंखध्वनि थी। आचमन था। रोली थी। अक्षत था। शुद्धि के लिए छिड़का जाने वाला जल था। कुल मिलाकर यह कि सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य भारत की जनता के लोकतंत्र का सर्वोच्च प्रतीक संसद का नया भवन आहुतियों के गर्भगृह में बदलकर रख दिया गया था। दिखावे के लिए दूर अलग कोने में अचार की तरह सर्वधर्म प्रार्थना का प्रहसन फिलर भी था, मगर बाकी आयोजन के सारे छप्पन भोग एकरस, एकरंग थे। इसे एक धार्मिक समारोह बनाने और दिखाने का जतन किया जा रहा था। उसमें धर्म के नाम पर भी भारत की, खुद हिन्दू धर्म की विविधताओं को नकार कर सिर्फ सनातन था। वह भी इतना सतर्क और सावधान कि आशीर्वाद देने पधारे महंतों में सिर्फ साधु थे। साध्वियां अनुपस्थित थीं। ‘जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान…’ जैसी फालतू की समझदारी से पूरी तरह बचने की समझदारी थी। दंड थमाने जैसे कामों में भले अधीनम अधिष्ठाता रहे हों। मुख्य ‘पूजा’ और ‘अभिषेक’ का काम करने का अधिकार सिर्फ श्रंगेरी से बुलाये शुद्ध और शास्त्र सम्मत ब्राह्मण-पुरोहितों के हाथ में था।
पूरा देश शोर मचाता रहा कि इतने महत्वपूर्ण आयोजन से देश की राष्ट्रपति क्यों गायब हैं? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, ‘संघ के लिये एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी।’ जो संसद राष्ट्रपति के साथ ही बनती है, वे उसी संसद के नये भवन के एकदम करीब अपने घर में अकेली क्यों बैठी हैं। इस उद्घाटन समारोह से अलग-थलग क्यों रखी गई हैं? एक अनुमान यह लगाया जा रहा है कि उन्हें इस आयोजन से इसलिए दूर रखा गया क्योंकि उनके आने से उनकी शीर्षस्थ संवैधानिक हैसियत के चलते नरेंद्र मोदी को उतना फुटेज नहीं मिलता जितना अब मिला। कैमरे के सामने अकेले ही बने रहने का मोदी-सिंड्रोम अब शब्दकोष में नार्सिसिज्म का समानार्थी हो चुका है। इसे देखते हुए इस अनुमान में थोड़ी सचाई है, मगर यह पूरा सच नहीं है। पूरा सच यह है कि इस सम्पूर्ण सनातनी आयोजन में मौजूदा राष्ट्रपति, जो महिला भी हैं और संस्थागत धर्मों में विश्वास न करने वाले सभी धर्मों से पुराने आदिवासी समुदाय की भी हैं, के लिए जगह थी ही नहीं। उलटे उनका होना पूरी तरह सनातनी मान्यताओं के विरुद्ध होता। श्रंगेरी और बाकी प्रकांड सनातनी पुरोहित, जिन्होंने जन्मना वर्ण के कारण शिवाजी महाराज तक का राज्याभिषेक करने से मना कर दिया था, वे हाथ उठा-उठाकर एक स्त्री और वो भी आदिवासी स्त्री को आशीर्वाद देकर अपना कथित सनातनत्व कैसे भ्रष्ट करते? मोदी अपने भाषण में जिसे मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी के विशेषण से संबोधित करते थे, उसमें से उस लोकतंत्र की संवैधानिक मुखिया को अलग बिठाना संसद को क्रैडल ऑफ़ मनुवाद (मनुवाद का पालना) बनाने की ओर एक बड़ा कदम था।
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संसद सर्वोच्च लोकतांत्रिक निकाय होती है, उसे लोकतंत्र का मंदिर कहना ही गलत रूपक है। जिस तरह किसी पारसी के प्रधानमंत्री बनने पर संसद आतिश बेहराम या दर-ए मेहर, किसी यहूदी के बनने पर सिनेगॉग, किसी सिक्ख के बनने पर गुरुद्वारा, किसी मुसलमान के बनने पर मस्जिद, किसी जैन के बनने पर देरासर, किसी बौद्ध के बनने पर चैत्य सभामंडप, किसी आदिवासी के बनने पर सरना स्थल या बड़ा देव नहीं हो जाती, उसी तरह किसी सनातनी के प्रधानमंत्री होने भर से उसे मंदिर नहीं कहा जा सकता। मनुष्य समाज इन तंग और अंधेरी गलियों से बहुत छटपटाहट के बाद बाहर निकला है। संविधान सम्मत लोकतंत्र की खुली हवा में सांस लेना सीखा है। इसे उलटने से जो फिसलन शुरू होती है, वह कहाँ ले जायेगी? इसका हालिया उदाहरण तुर्की और उसका राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगान है। भारत इसलिए भारत बना है क्योंकि उसने इस फिसलन पर जाने का रास्ता नहीं चुना है। मगर जो इस भारत की निर्माण प्रक्रिया में कभी रहे ही नहीं, उनके लिए इन बातों का कोई महत्व कहाँ?
कर्मकांडी हुकूमत के हिसाब से भी 28 मई का दिन कोई बहुत मांगलिक शुभ मुहूर्त का दिन नहीं था। सिवाय इसके कि यह मौजूदा हुक्मरानों के वैचारिक आराध्य विनायक दामोदर सावरकर की 140वीं जयंती थी। यही दिन संसद उद्घाटन के लिए चुना जाना सिर्फ संयोग नहीं है, यह सायास चयन है। वे सावरकर, जिन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगने और उनका सेवक बनकर काम करने के अपने जगजाहिर आचरण के अलावा उस हिंदुत्व का शब्द और हिंदुत्वी राज की अवधारणा गढ़ी थी, जिसका हिन्दू धर्म या भारत की परम्पराओं के साथ लेशमात्र का भी संबंध नहीं है। वे सावरकर, जिन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग देशों वाला द्विराष्ट्र सिद्धांत देकर भारत विभाजन का विषबीज बोया था। जो गांधी हत्याकांड में अभियुक्त थे, जिन्होंने हिंसा और बलात्कार को राजनीतिक औजार बताने का काम तक किया था। भले खुद प्रधानमंत्री उनका नाम लेने का साहस नहीं कर पा रहे थे, किन्तु उनके कुनबे और नत्थी मीडिया ने बार-बार इसे बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
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बिना किसी अतिरंजना के कहा जाए तो संसद का नया भवन, एक ऐसा रंगमंच था, जिस पर संवैधानिक और लोकतांत्रिक मर्यादाओं के बचे-खुचे-झीने वस्त्रों को तार-तार किया जा रहा था। यह उस हिंदुत्वी राष्ट्र की स्क्रिप्ट (हॉरर ट्रेजेडी) की ड्रेस रिहर्सल थी, जिसे जल्द से जल्द फ़ाइनल शो में दिखाया जाना है। सूत्रधारों की चली तो 2025 में मंचित कर दिखाना है। यह ड्रेस रिहर्सल राजपथ पर खड़े इस देश के संसदीय और राजनीतिक इतिहास के सबसे महंगे, विराट स्टेज पर ही नहीं हो रही थी, जनपथ पर जंतर-मंतर की दर्शक दीर्घा में भी दिखाई जा रही थी। इधर मदर ऑफ डेमोक्रेसी का जाप हो रहा था उधर दुनिया के अखाड़ों में सामने वालों को पटखनी देकर सोना-चाँदी-काँसा जीतकर आने वाली लड़की – अपने जैसी दूसरी लड़कियों के साथ – अपने ही घर में पटकी-घसीटी-नोची और रौंदी जा रही थी। अमरीका में मार डाले गए जॉर्ज फ्लॉयड की तरह पुलिस की बूट उसकी गर्दन पर रखी जा रही थी। अब जब सब कुछ मोदी ही करते हैं, तो जब 28 मई को दिल्ली में जो भी हुआ, वे मोदी ही कर रहे थे; तो ज़ाहिर है कि जंतर-मंतर पर भी जो हो रहा था वह भी उन्हीं के कहने पर ही हो रहा था। अपने दुशासनों के खरदूषण अवतार, भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह को बचाने के लिए सारा दलबल झोंका जा रहा था। दुर्योधन की कौरव सभा में द्रौपदी को निरावृत किए जाने की हुंकार और यलगारें की जा रही थीं। धृतराष्ट्र खुद व्यूह रचना की कोरियोग्राफी में लगे थे। जिनसे सर्वोच्च न्याय की उम्मीद थी वे भीष्म न जाने कब खुद ही शरशैया पर जा लेटे थे। शकुनि स्टूडियो का मालिक बना बैठा था, जिसमें बैठे शिशुपाल प्रचंड स्वर में एंकरिंग करते हुए महाभारत की गालियाँ दोहरा रहे थे।
इधर, कॉर्पोरेट के उधारी के दम पर राजतंत्र के श्रृंगार की धजा थी तो उधर, इन सबसे दूर देश के प्राचीनतम नगरों में से एक उज्जैन के प्राचीन मंदिर महाकाल में ज़रा-सी तेज हवा में सैकड़ों करोड़ रुपयों के भ्रष्टाचार की गंदगी में डुबोकर खड़ी की गई सप्तऋषियों की विराटाकार प्रतिमाएं टूट-फूटकर लुंठित पड़ी थीं। धूल-धूसरित हो रही थी। मोदी यहाँ भी थे। इन मूर्तियों के उद्घाटन में वे ही तो गए थे। साथ ही इन्हें सदियों की परम्परा को और आगे ले जाने का निर्माण बताकर आए थे।
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इस तरह 28 मई को, जहां एक तरफ ऐसी वेदी सजाई जा रही थी, जिसमें देर-सबेर सब कुछ की बलि देकर स्वाहा किया जा सके, दूसरी तरफ, ज़रा-सी हवाएं साबित कर रही थीं कि उनमें सारा शीराजा बिखेरने की कितनी शक्ति है। ये ज़रा-सी हवाएं इतना कुछ कर सकती हैं, तो जब जनता के आक्रोश की आंधी उठेगी, तो इनके नाम पर बहकाने, बहलाने और सैकड़ों करोड़ कमाने वालों को भी नहीं बख्शेंगी।
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