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सामुदायिक वन अधिकार से कितना बदलेगा आदिवासियों का जीवन

हर घर, पेड़-पौधे, सड़क के किनारे स्थित दुकानों पर कोयले की परत बिछी दिखती है, यहाँ तक कि सड़क की धूल भी कोयले के चूरे से काली हो गई है। यहाँ प्रकृति में हरियाली नहीं करियाली दिखाई देती है, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक है। कोयला खनन और भूमि अधिग्रहण को लेकर यहाँ पिछले बीस वर्षों से लगातार विरोध और आंदोलन चल रहा है। यह आदिवासी बहुल क्षेत्र है, लोगों में इस बात को लेकर नाराजगी है कि हमारे कोयला संसाधनों पर पूँजीपतियों का अधिकार क्यों?

जंगल आदिवासियों का ही है लेकिन उन्हीं को वहाँ से बेदखल करने की कोशिशें लगातार होती रही हैं। वन विभाग और पुलिस द्वारा आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न की बेशुमार कहानियाँ हैं। आदिवासी अपने इलाकों में ही बेगाने होते जा रहे हैं। उनके साथ कब क्या हो जाय यह कहा नहीं जा सकता। इस प्रकार उनका पूरा जीवन ही अनिश्चितता और खतरे में पड़ चुका है। इसके बावजूद अपने जीवन, वजूद और सम्मान को बचाने की उनकी लड़ाई जारी है। माना जा रहा है कि इस क्रम में सामुदायिक वन अधिकार हासिल करना उनकी एक बड़ी जीत है।

इस विषय में मैंने जनचेतना, रायगढ़ की सविता रथ से बातचीत की तो उन्होंने कहा कि ‘आदिवासियों की पारंपरिक रूप से जंगल में जोत की जो जमीन थी, उसके लिए एक लम्बी लड़ाई के बाद वन अधिकार कानून 2006 बना। 2012 में संशोधन के बाद सामुदायिक वन अधिकार में महिलाओं की भागीदारी मजबूत करने के लिए वन अधिकार के पट्टों में आदिवासी महिलाओं को प्राथमिकता दी गई है। गांवों में रहने वाले ग्रामवासियों को भी मूल पारंपरिक वन पट्टा प्रदान करने का प्रावधान हुआ है। यह बेशक ग्रामवासियों की एक बड़ी जीत है लेकिन अभी इसके अनेक मुकाम हैं।’

बरसात में तमनार की ओर

यह क्या है? मैं इसे ठीक तरीके से जानना चाहती थी और मैंने सविता से कहा कि मुझे ऐसे कुछ गाँवों में लोगों से मिलना है जिन्हें सामुदायिक वन अधिकार के तहत पट्टे मिले हैं। सविता ने बताया कि ‘जनचेतना का  कार्यालय अब रायगढ़ से तमनार शिफ्ट हो गया है क्योंकि बिना किसी तरह के फंड के इस ऑफिस का प्रबंध रायगढ़ करना कठिन था, तब राजेश त्रिपाठी ने इसे तमनार में अपने एक घर में स्थानांतरित कर दिया। इसलिए आप यहाँ आ जाइए।’

बारिश का मौसम रायगढ़ में जितनी अच्छी फीलिंग देता है सड़कों के मामले में उतना ही खराब है। मैंने बस से जाना तय किया लेकिन सड़क की जो स्थिति है, उसे देखते हुए डेढ़-दो घंटे का सफर 4-5 घंटे से कम का नहीं होगा ऐसा राजेश जी ने फोन पर बताया और कहा कि जनचेतना के एक साथी राजेश गुप्ता अपनी बाइक से आने वाले हैं, उनके साथ आ जाइए। अगले दिन सुबह ग्यारह बजे राजेश गुप्ता बाइक लेकर घर खोजते हुए हाजिर हो गए। तेज बारिश का दौर एक बार गुजर चुका था, आगे भी बारिश की आशंका थी, जिसके कारण बरसाती पहनना जरूरी हो गया। निकलते हुए कैमरा और उसके बैग को अच्छी तरह ऐसा पैक किया ताकि बारिश से वह भीग न पाए। घर से निकलकर एकाध किलोमीटर ही गए होंगे कि झमाझम बारिश शुरू हुई। आज तमनार-घरघोड़ा वाले खराब रास्ते से न जाकर पाली घाट से होते हुए जाना था। अच्छी बात यह है कि यह सड़क बहुत ही बढ़िया है। संबलपुरी गाँव पहुंचते तक मूसलाधार बारिश हुई। यहाँ तक कि गाड़ी चलाने में दिक्कत होने लगी लेकिन जंगल होने के वजह से कहीं रुकने का ठिकाना भी नहीं था। किसी तरह आगे बढ़ने पर बारिश ने थोड़ी नरमी बरती और धीरे-धीरे बंद हो गई। मौसम बहुत ही सुहाना हो चुका था, पाली घाट पर चढ़ते ही नीचे कर्मागढ़ गाँव दिखा और घाट की सड़क से दूर-दूर तक शहर दिख रहा था।

तमनार में सड़क का हाल बेहाल

पौन घंटे के सफर के बाद हमने तमनार में प्रवेश किया, जहां सड़कों की स्थिति बेहद बुरी है। जेपीएल और तमानर की आठ कोयला खदानों से खनन काम होते रहने और बड़े-बड़े ट्रेलर से सप्लाइ होने के कारण भारी वाहनों की आवाजाही बनी रहती है। हर घर, पेड़-पौधे, सड़क के किनारे स्थित दुकानों पर कोयले की परत बिछी दिखती है, यहाँ तक कि सड़क की धूल भी कोयले के चूरे से काली हो गई है। यहाँ प्रकृति में हरियाली नहीं करियाली दिखाई देती है, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक है। कोयला खनन और भूमि अधिग्रहण को लेकर यहाँ पिछले बीस वर्षों से लगातार विरोध और आंदोलन चल रहा है। यह आदिवासी बहुल क्षेत्र है, लोगों में इस बात को लेकर नाराजगी है कि हमारे कोयला संसाधनों पर पूँजीपतियों का अधिकार क्यों?

जब हम सविता और राजेश के रिहाइशी कार्यालय पहुंचे तो देखा सविता एक मीटिंग में व्यस्त हैं और राजेश भी फोन पर लोगों को अपने काम के लिए लाइनअप कर रहे हैं। मैं सविता के साथ बैठ गई और उनकी मीटिंग में हो रही बातों को सुनने लगीं। मीटिंग में तीन महिलायें शामिल थीं, जिनके साथ सविता उनके पास उपलब्ध सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के दावे हेतु की जाने वाली कार्यवाही-रजिस्टर में शामिल बातों को जानना चाह रही थीं। इनमें से दो महिलायें सामुदायिक वन संसाधन अधिकार की कार्यकर्ता थीं, जो घरघोड़ा ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले गाँव में सीएफआर (सामुदायिक वन संसाधन अधिकार) को लेकर काम कर रही हैं।

विकास ने आदिवासियों का बहुत कुछ छीन लिया है 

तमनार और उसके आसपास के इलाके में कई बड़े पावर प्लांट, स्पंज आयरन के कारखाने काम कर रहे हैं और साथ ही कोयला खदानों में निरंतर खनन हो रहा है। इसके चलते आसपास की ज़मीनें और जंगल सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं और इसका सीधा-सीधा असर यहाँ रहने वाले आदिवासी समुदायों पर पड़ रहा है। यहाँ जिनकी खेती-बाड़ी है, उनके उत्पादन पर प्रदूषण का असर साफ दिखाई दे रहा है।

आदिवासी समुदाय की आमदनी का एक स्रोत वनोपज भी है , जिनमें कई किस्म के कंदमूल मसलन करू कांदा, राम कांदा, डांग कांदा, भुई कोहड़ा, सैकड़ों किस्म की भाजियाँ, मशरूम, बांस की सब्जियां, वन औषधि, भुई लिम (चिरायता), सफेद मूसली, हर्रा, बहेड़ा, आंवला, चार, चिरौंजी, महुआ, तेंदू आदि शामिल हैं लेकिन जंगलों के खत्म होते जाने से इन वनोपजों पर आदिवासियों निर्भरता सी होती जा है। बहुत से वनोपज जंगल से पूरी तरह गायब हो गए हैं।  किसी कौतुक, जिज्ञासा अथवा सरोकार की पूर्ति के लिए आनी वाली पीढ़ी को इन सबको देखने-समझने के लिए गूगल का सहारा लेना पड़ेगा। हम जानते हैं कि आदिवासी जंगल की एक-एक घास और जड़ की उपयोगिता से परिचित हैं, और जीवन की शुरुआत से लेकर अंत तक वे प्रकृति पर निर्भर रहते हुए पेड़-पौधों को देवता मानते हैं। वे अपने पारंपरिक त्योहारों में पेड़ों की पूजा करते हैं।

सूखा हुआ डोरी,करील, जामुन,महुआ डोरी(महुआ का फल) और आलू बीज (वनोपज)

जंगल पर निर्भर होने के बावज़ूद आदिवासी समुदाय कभी जंगल को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। बल्कि अपनी रोज की जरूरत के लिए उतना ही हिस्सा लेते हैं, जितने में उनकी आवश्यकता पूरी हो जाए। कहने का मतलब कि वे कभी कल के लिए सहेजने पर विश्वास नहीं करते हैं। लेकिन उनके इलाके में विकास के नाम पर बाहर से आए पूंजीपतियों ने घुसपैठ कर उनकी जमीन और जंगल को लगातार हथिया कर उन्हें विस्थापित और  असुरक्षित कर दिया है।

वन अधिकार को लेकर सरकार की नीतियाँ अभी भी स्पष्ट नहीं हैं

सामुदायिक वन अधिकार को लेकर एक तरफ खुशी है तो दूसरी ओर आशंकाएं भी कम नहीं हैं। जानकार लोग इसके पीछे के वास्तविक कारणों को समझना चाहते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि सरकार की मंशा समझ से परे है। वह एक तरफ खनन सहित अनेक ऐसे उद्योगों को स्थापित करने की अनुमति देती है जो बिना जंगलों को उजाड़े संभव नहीं हैं। एक तरफ वह पूँजीपतियों का सहयोग करती है तो तो दूसरी ओर वहाँ स्थित जंगल को बचाने के लिए कानून भी पास करती है। यह दोहरा व्यवहार ग्रामवासियों और आदिवासियों के लिए भयानक स्थिति पैदा कर देता है। नौ अगस्त 2022 को विश्व आदिवासी दिवस के दिन भूपेश बघेल सरकार ने वन क्षेत्रों के लोगों को जागरूक करने के लिए पूरे छतीसगढ़ में पंद्रह अगस्त से छब्बीस जनवरी तक सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के प्रति जागरूकता अभियान की शुरुआत की है।

सामुदायिक वन संसाधन अधिकार वितरित चिमटापानी का कुरुंजखोल ग्रामसभा

सविता रथ कहती हैं ‘सामुदायिक वन अधिकार छत्तीसगढ़ की वर्तमान सरकार की बहुत महत्वाकांक्षी योजना है।  और वह इसे पूरा करने में बहुत  सक्रियता दिखा रही है।  तमनार में सामुदायिक वन अधिकार वाले लगभग 22 जगहों को पट्टा प्रदान किया। हमारी संस्था ने लगातार लोगों के बीच जाकर उन्हें ट्रेनिंग दी, मीटिंग आयोजित की, प्रशिक्षण देने का काम किया है और उसका एक बड़ा परिणाम यह निकला कि हम बेहतर तरीके से सामुदायिक वन अधिकारों के पट्टे दिला पाए लेकिन खतरनाक बात यह है कि कानूनन सामुदायिक वन अधिकार क्षेत्रों में खनन कार्य नहीं किया जा सकता लेकिन यह लगातार हो रहा है। सरकार ने पेसा और एफआरआर दोनों कानूनों द्वारा आदिवासियों के संसाधनों को संरक्षित और संवर्धित करने के प्रावधान को खत्म कर दिया है। अब जंगलों को वन विभाग से हटाकर समुदाय को देने की बात की जा रही है। लेकिन जिस तरीके से इसका ढोल पीटा जा रहा है, धरातल पर वैसा कुछ होता दिख नहीं रहा है। यदि वास्तविक रूप से देखा जाए तो प्रबन्धन का काम उस तरह से संभव नही हो पाया है। वन विभाग के अधिकार का दखल अभी भी बना हुआ है। इसके कारण जिन लोगों को पट्टा का कागज में मिला हुआ, उनके लिए सरकार की तरफ से न कोई प्रशिक्षण की बात हो रही न प्रबन्धन की।’

दावा प्रक्रिया के सूचना पत्र का नमूना

छतीसगढ़ में आदिवासियों की जनसंख्या अन्य राज्यों से कहीं ज्यादा है। उनके जीवनयापन का मुख्य केंद्र जंगल में मिलने वाली वनोपज है, लेकिन विकास के नाम पर तेजी से जंगल काटे जा रहे हैं, जिसके कारण वनोपज निरंतर खत्म होते हुए लुप्त होने की स्थिति में है। हालांकि कहा यह जा रहा है कि सीएफआर के लागू हो जाने से आदिवासी अपनी सीमा में आने वाले जंगलों का संरक्षण और प्रबंधन बेहतर तरीके से कर सकेंगे और उनकी आजीविका भी सुरक्षित रह पाएगी।

सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के तहत शामिल हो जाने के बाद उस गाँव की पारंपरिक सीमा के अंदर आने वाले जंगल और राजस्व के छोटे-बड़े पेड़ों के जंगल का उपयोग कौन करेगा, किस तरह करेगा और कितना करेगा इसकी अनुमति देने और न देने का पूरा अधिकार ग्रामसभा को होगा। अनुमति के अलावा उन वन क्षेत्रों की सुरक्षा, संरक्षण, पुनरुत्पादन और साथ ही प्रबंधन की जिम्मेदारी भी ग्रामसभा की होगी।

कंपनियों के अतिक्रमण के विरुद्ध गाँवों की स्वायत्तता के प्रति जागरूकता बढ़ाती दो युवतियाँ

जनचेतना कार्यालय में नित्या राठिया और नीलकुमारी राठिया अपने रजिस्टर को पूरा करने में लगी हुई थीं।  मैंने सोचा कि उनसे बात कर जाना जाए कि सामुदायिक वन संसाधन क्या है? यह क्यों जरूरी है और कब से लागू है ? इन लोगों इस काम को जिम्मेदारीपूर्वक करना क्यों शुरू किया? और अचानक क्या हुआ कि छतीसगढ़ सरकार ने सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के लिए वन क्षेत्र के लोगों को जागरूक करने के लिए पूरे छत्तीसगढ़ में 15 अगस्त ये 26 जनवरी तक एक अभियान चलाना शुरू कर दिया?

नित्या राठिया 23-24 साल की युवती हैं, जिन्होंने बीएससी की पढ़ाई पूरी की और इसी दौरान उनकी शादी हो गई। कुछ करने की इच्छा शुरू से थी लेकिन गाँव, परिवार, ससुराल, जिम्मेदारियों ने नौकरी की तरफ जाने नहीं दिया। ऐसे में अपने गाँव में ही रहकर काम करने का मन बनाया और जनचेतना की सविता रथ और राजेश त्रिपाठी से मुलाकात हुई जिनका कार्यक्षेत्र तमनार की कोल माइंस और आदिवासी हैं। नित्या सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के दावे लागू होने के बाद वन-प्रबंधन का काम कर रही हैं।

जनचेतना की कार्यकर्ता नित्या राठिया जो सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के लिए जागरूक करने का काम कर रही हैं ।

नित्या राठिया, घरघोड़ा ब्लॉक के ग्राम दनोट, चिलकागुड़ा पंचायत में रहती हैं और इनके जिम्मे कमतरा और चिमटापानी की दो ग्राम पंचायतों के दस गाँव हैं। कमतरा पंचायत में कर्रीकछार, सहसपुर, टिहलीपहर, बोइरमुड़ा गाँव हैं। इसी तरह चिमटापानी में  कुरुंजखोल, बाहनपाली, कांटाझरिया और सिंघनपुर गाँव शामिल हैं।

इसमें चिमटापानी ग्राम पंचायत के कुरुंजखोल को 2020 में सामुदायिक वन संसाधन अधिकार मिल चुका है। सीएफआर मिल जाने से वन और वन संसाधन प्रबंधन और नियंत्रण का काम ग्रामसभा के जिम्मे हो गया है। कुरुंजखोल की कुल आबादी 250 है। इस गाँव में सबसे ज्यादा अनुसूचित जनजाति के 174 (आदिवासी) हैं। शेष अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग से हैं। घरघोड़ा ब्लॉक से 27 किलोमीटर दूर स्थित इस गाँव में जाने के लिए बस उपलब्ध है। वह भी मात्र 20 किलोमीटर तक। उसके बाद अपने साधन से ही वहाँ तक पहुंचा जा सकता है। जाते हुए आसपास घने जंगल दिखाई देते हैं। इस इलाके में कोई कंपनी नहीं है लेकिन प्रभावित क्षेत्र है।

सामुदायिक वन संसाधन के लिए अधिकार पत्र का नमूना

नीलकुमारी राठिया ने बताया कि वह घरघोड़ा और लैलूँगा दो ब्लॉकों में कुल दस गांवों में सीएफआर के अधिकार को लेकर काम कर रही हैं। घरघोड़ा में जिन गांवों में काम कर रही हैं, उनमें अभी तक किसी को भी सीएफआर नहीं मिला है लेकिन लैलूँगा ब्लॉक में फुलिकमुंडा और फुटहामुड़ा दो ग्राम पंचायतों को सीएफआर हासिल हो गया है। दोनों ग्राम पंचायतों में फुलिकमुंडा की आबादी 400 और फुटहामुड़ा की जनसंख्या 349 है। फुटहामुड़ा में 479.890 हेक्टेयर और फुलिकमुंडा में 273.980 हेक्टेयर क्षेत्र के  लिए अधिकार दिया गया है।

नीलकुमारी ने इसके फायदे का जिक्र करते हुए अपना अनुभव बताया कि ‘जब वह तमनार के सरईटोला गाँव में काम कर रही थीं तो वहाँ कंपनी के आ जाने से खनन का काम गाँव वालों की अनुमति के बिना ही शुरू कर दिया, जिसके कारण जंगल पूरी तरह खत्म हो गया और वनोपज पर आश्रित आदिवासियों का रोजगार छिन  गया। प्रकृति के समीप रहने वाले आदिवासी अब मजदूरी करने को बाध्य हैं।’

जनचेतना की कार्यकर्ता नीलकुमारी राठिया

वह कहती हैं कि ‘यदि सरईटोला गाँव का सीएफआर अधिकार होता तो गाँव वाले खनन काम के लिए खत्म किए गए गांव और जंगल को बचा सकते थे। यही बात दावा प्रस्तुत करने से पहले गाँव में होने वाली मीटिंग में समझाती हूँ। कुछ तो आसानी से समझ पाते हैं और अपनी स्वीकृति देते हुए सहयोग दे रहे हैं।’

लेकिन अपने गाँव की समस्या का जिक्र करते हुए नीलकुमारी ने बताया कि ‘जिस दनौट गाँव में वह रहती हैं, सीएफआर अधिकार दावे के लिए सरपंच के पास गए तो उन्होंने मना कर दिया। गाँव के बुजुर्गों से बात की तो उन सबने सरपंच से ही बात करने को कहा। कहने का मतलब कि सरपंच ही इस बात को नहीं समझना चाहते और जो समझ रहे हैं वे पूँजीपतियों के साथ खड़े हैं। ऐसा समझ आता है।’

सामुदायिक वन संसाधन अधिकार का महत्त्व बताते हुए नीलकुमारी और नित्या राठिया

सामुदायिक वन संसाधन अधिकार का अतीत और प्रक्रिया

सबसे पहले 2016  में ओड़ीशा के सिमलीपाल राष्ट्रीय उद्यान के अंदर CFR को मान्यता देते हुए उसे कानून के दायरे में शामिल किया गया था। छतीसगढ़ सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों को मान्यता देने वाला देश में दूसरा राज्य है। इसके अंतर्गत छतीसगढ़ के कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान को CFR की श्रेणी में शामिल हुआ है। छत्तीसगढ़ राज्य में 8000 गांवों में दावा की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है जबकि 3801 गांवों के दावे स्वीकृत हो चुके हैं और ये गाँव सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के अंतर्गत आ चुके हैं।

सामुदायिक वन संसाधन अधिकार उन गाँवों को सौंपा जाता है जिनकी सीमा में जंगल राजस्व आता है। इस अधिकार को पाने वाले गाँव को इन वन क्षेत्रों की सुरक्षा, देखरेख, संरक्षण, पुनरुत्पादन, प्रबंधन, जैव विविधता को बनाये रखने की जिम्मेदारी उठानी होती है। दावा प्रस्तुत करने के लिए ग्राम सभाएं वन अधिकार समिति का गठन करती है और दावा मिल जाने पर प्रबंधन के लिए वन प्रबंधन समिति का गठन करती है।

सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के दावे के लिए परंपरागत गाँव की सीमा का चयन गाँव में रहने वाले जन प्रतिनिधि, बुजुर्ग, पटवारी, वन रक्षक, पंचायत सचिव कर सकते हैं। दावे के साथ गाँव का निस्तार पत्र, वहाँ रहने वाले बुजुर्गों के वक्तव्य, आसपास के गाँव का अनापत्ति प्रमाण पत्र, गाँव का नज़ीर-नक्शा लगाकर सबडिवीजन की स्तरीय समिति द्वारा सत्यापित करवा कर जिला स्तरीय समिति के पास भेजा दिया जाता है। जब सभी दस्तावेज़ और जानकारियाँ सही पाए जाते हैं तो दावा स्वीकृत कर लिया जाता है।

दावा प्रस्तुत करने के लिए तैयार किया गया गाँव नजीर नक्शा

नित्या राठिया बताती हैं कि ‘कुरुंजखोल में सीएफआर का अधिकार हासिल हो जाने के बाद गाँव के लोगों को ही लेकर एक वन प्रबंधन समिति तैयार की गई है, जो प्रबंधन का काम तय करती है। समिति ने अपना काम शुरू कर दिया है। जंगल को घना बनाने के लिए गाँव में नर्सरी तैयार की गई और बारिश में वृक्षारोपण का किया गया है। साथ ही मत्स्यपालन का काम भी शुरू किया गया है, इस काम से आमदनी की शुरुआत हो चुकी है। इस समिति का खाता खोलने की कार्यवाही चल रही है। इस अधिकार के मिल जाने के बाद जंगल की रखवाली के लिए ठेकापाली नियम बनाया गया है, जिसमें छोटे-छोटे समूह बनाकर जंगल की रखवाली की पाली तय की गई है कि उनके अधिकार में आए जंगल की कटाई या उसका उपयोग किसी अन्य गाँव या कोई भी दूसरा बिना उनकी अनुमति के न करे। सबसे महत्त्वपूर्ण और विस्तृत काम जैवविविधता की मैपिंग किया गया है।

क्या सीएफआर से महिलाओं का सशक्तिकरण होगा

छतीसगढ़ आदिवासी प्रधान राज्य है। इन आदिवासियों के जीने और कमाने के संसाधन जंगल से ही मिलते हैं। जब कोई सरकारी योजना नहीं थी तब ये अपनी जरूरत का  इकट्ठा करते और आसपास के खुले बाजार में बेचकर कमाते थे लेकिन छतीसगढ़ सरकार ने आदिवासियों के हित को ध्यान में रखते हुए एक अलग विभाग छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज संघ प्रबंध बनाया है, जिसने 61 प्रकार के वनोपजों का समर्थन मूल्य तय कर दिया है। जिसका फायदा यह होता है कि अपने आसपास के जंगलों से वनोपज इकट्ठा कर उसे एक निश्चित मूल्य पर सरकार खरीद लेती है।

नित्या राठिया ने बताया कि ‘सीएफआर अधिकार लागू होने से पहले आदिवासी जब जंगल से कोई भी वनोपज लाते थे, तब फॉरेस्ट गार्ड नाका पर पकड़ कर लेता था और जुर्माना वसूल करता था और अपमानित भी करता था। जंगल से उन्हें बचते-बचाते हुए जरूरत का सामान लाना पड़ता था। लेकिन सीएफआर अधिकार मिले गाँव अब इस भय और अपमान से मुक्त हुए हैं क्योंकि इसके इन्हें किसी से पूछने या बचने की जरूरत नहीं है।’

भूडू खोखडी,थेल्को का फूल,बांस पुटू,डांग कांदा (वनोपज )

सबसे महत्त्वपूर्ण बात महिलाओं की आमदनी को लेकर हुई है। जंगल से वनोपज संग्रहण  के बाद गाँव में ही महिला समूह ने स्व सहायता समूह बनाकर इसकी खरीद-बिक्री का काम करती हैं। इससे एक बात हुई कि अपने संग्रहित वनोपज को बेचने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं पड़ती और आर्थिक रूप से सरकार द्वारा तय समर्थन मूल्य प्राप्त होता है।

महिला समूह ने जंगल से झाड़ू लाकर छत्तीस हजार झाड़ू इकट्ठा कर बिक्री किया है। अलग-अलग गाँव में महिलाओं के सात स्व सहायता समूह हैं जो अपने क्षेत्र के वनोपज के हिसाब से काम करते हैं, जैसे अभी एक समूह महुआ नपाने का काम कर रहा है। एक समूह झाड़ू इकट्ठा कर रहा है। सभी एकत्रित कर एक संगठन को देते हैं, जिसके बदले उन्हें पैसा मिलता है। समूह की तरफ से मछलीपालन का काम किया जा रहा हैं, वन समिति की तरफ से आने वाला पैसा उन्हें दिया जाता है। इसका फायदा सीएफआर अधिकार प्राप्त गाँव को मिल रहा है।

स्व सहायता समूह द्वारा झाड़ू,जो बनने की प्रक्रिया में है ।

नीलकुमारी कहती हैं ‘सामुदायिक वन संसाधन अधिकार मिले हुए फुलिकुंडा  गांव में महिलाएँ स्व सहायता समूह बनाकर गोबर खरीद कर जैविक खाद बना रही हैं।  इस खाद को तैयार करने में एक से दो माह लग जाते हैं। तैयार होने के बाद यही समूह आवश्यकतानुसार छोटी-बड़ी बोरियों में पैक कर बेचने के लिए तैयार करती है। जैविक खाद को बोरे में पैक कर मंडी भेजा जाता है। जहां प्रति किलो दस रुपये के हिसाब से खाद का दाम मिलता है। इस काम में स्व सहायता समूह हजारों रुपये तक का मुनाफा कमा रहा है।

सामुदायिक वन संसाधन अधिकार वितरित फुलीकुंडा का फुटहामुड़ा ग्रामसभा

इसी में साथ ही स्व सहायता समूह की महिलाएँ नर्सरी तैयार कर पौधे बिक्री का काम कर फायदा कमा रही हैं। सामुदायिक वन संसाधन जहाँ जंगल के संरक्षण, उपयोग और पुनरुत्पादन के के लिए अधिकार प्रदान करता वहीं महिला सशक्तिकरण के लिए आजीविका का बंदोबस्त भी करता है।

 

नर्सरी तैयार करते गाँव वालों के साथ नीलकुमारी

आदिवासियों को साल भर अलग-अलग सीजन में कुछ न कुछ मिलता है जैसे महुआ, डोरी, तेंदू पत्ता और तेंदू फल, कंदमूल, खोंखड़ी बांस, करील, पूटु, काँस, कई प्रकार की भाजी आदि। नीलकुमारी राठिया ने बताया कि ‘जंगल में इतना वनोपज है कि बहुत सी चीजों का नाम उन्हें याद नहीं है और बहुत से के नाम भी  नहीं मालूम हैं।’

सही भी है। जब तक जंगल के करीब रहते हुए उन वनोपजों का उपयोग न किया जाए तब तक उनकी पहचान कैसे हो सकती है? संभव है सामुदायिक वन अधिकार बहुत सी चीजों को नष्ट होने से बचाए और बहुत सी नई चीजों को जोड़े भी।

(फोटो क्रेडिट – सविता रथ)

 

गाँव के लोग
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