18 सितम्बर:पुण्यतिथि पर विशेष
मान्यवर जी (जन्म-13-03-1903, मृत्यु-18-09-1995) का जन्म ग्राम खरिका (वर्तमान नाम तेलीबाग) लखनऊ में 13 मार्च, 1903 को हुआ। इनके पिता का नाम मा. पराग राम चौरसिया था। चौरसिया जी का बाल्यकाल गुलामी और सामाजिक परतंत्रता के युग युग में बीता था, जिसमें बहुजन का बच्चा अपने माता-पिता के साथ विद्यालय में नाम लिखाने के लिए जाता था तो उसे उसके माता-पिता के सामने ही तिरस्कृत कर दिया जाता था और जातीय धंधे की याद दिलाकर वापस घर लौटा दिया जाता था। बहुजन के लिए जातीय धंधे के सिवाय पढ़ना लिखना कतई मना था। शासन और शिक्षा की बागडोर आर्य ब्राह्मणों के हाथ में थी।
वह माता- पिता धन्य हैं जिन्होंने सामाजिक भेदभाव, जाति ग्रस्तता और अमानवीय छुआछूत के युग का मुकाबला किया और वीर बालक चौरसिया जी को पढ़ाने-लिखाने का साहस जुटाया।
मुफ्त कानूनी सहायता
गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता देना उनके जीवन का एक बहुत अहम लक्ष्य रहा। इस कार्य में उन्होंने सर्वप्रथम जस्टिस एच. एन.भगवती (जज सुप्रीम कोर्ट) को प्रभावित किया और जस्टिस भगवती जी के चेंबर में फ्री कानूनी सहायता देने वाली बैठकें की। चौरसिया जी के सतत प्रयासों से ही अदालतों में नि:शुल्क कानूनी सहायता का प्रचलन हुआ और संसद में कानून पारित करवाकर भारतीय संविधान में जुड़वाकर इस व्यवस्था को संवैधानिक समर्थन दिलाया। जिसमें अब गरीबों को नि:शुल्क और यथासंभव त्वरित न्याय दिलाने की संवैधानिक व्यवस्था हो गई है। लोक अदालतें उसी विधि की एक कड़ी हैं। कानून और अदालत के क्षेत्र में गरीबों के हितार्थ चौरसिया जी की यह बहुत बड़ी देन है।
शिक्षा पर जोर
चौरसिया जी को बहुजनों की शैक्षिक दुर्दशा से बड़ी पीड़ा होती थी। वे व्याप्त निरक्षरता को बहुजनों के पतन और दासता का कारण मानते थे। इसलिए वह शिक्षा पर बहुत अधिक बल देते थे। शिक्षा को ही राष्ट्रीयता का आधार बनाना चाहते थे।
दृढ़ निश्चय
चौरसिया जी अपने दृढ़ निश्चय के साथ कहा करते थे कि मेरा नाम चौरसिया है। और मैं हिंदू समाज की असमानता को चौरस करके ही मरुंगा। शूद्र राज अवश्य आएगा और मेरे जीवनकाल में ही आएगा।
लोहिया से विवाद
डॉ. राम मनोहर लोहिया ने समस्त पिछड़े वर्गों को 60 प्रतिशत की सीमा तक ही प्रतिनिधित्व दिए जाने का निश्चय किया और समस्त नारी समाज को भी इसमें जोड लिया।लोहिया ने जिस पिछड़े वर्ग के 60 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा उछाला, उसमें सभी वर्ग की महिलाओं को भी पिछड़ा ही कहकर सम्मिलित किया,जिसका चौरसिया जी ने विरोध किया।
ब्राह्मणवादी बहुजन से अपना पेट पालने वाला शक्तिशाली परजीवी होता है। आज भी परजीवियों के लिए समस्त पिछड़े वर्गों की 6743 जातियों के लोग नजर पर रहते हैं। ये उसका हक मारने और पीडित करने में देर नहीं लगाते।
इस तरह अपने जीवन काल में लोहिया ने लाखों-करोड़ों पिछड़े वर्ग के लोगों को खूबसूरत ढंग से बेवकुफ बनाया और उनकी आंखों में समाजवाद के नाम पर लाल मिर्च झोंकी और बहुजन आंदोलनों को कमजोर करते रहे। इसके अलावा समय समय पर उनका हक मारकर ब्राह्मणवाद को परोसा और बढ़ावा दिया।
साइमन कमीशन के समक्ष रामचरनलाल निषाद की अगुआई में बहुजनों का पक्ष रखना
भारत में संवैधानिक सुधारों के द्वारा वंचित वर्गों को उनका हक और अधिकार देने के पक्ष में आया था। परंतु उच्चवर्णीय लोगों को बहुजन पर शासन करने की आजादी खिसकती हुई नजर आने लगी। इसलिए उन्होंने जोरदार विरोध किया। यह संवैधानिक व्यवस्था की शुरुआत थी। उपरोक्त विधान के तहत साइमन कमीशन ने भारत के विभिन्न प्रांतों का दौरा शुरू कर दिया और वंचितों को शासन सत्ता में प्रतिनिधित्व देने के लिए भारतीय सांविधानिक आयोग ने 5-1-1928 में लखनऊ का दौरा किया। हजारों की संख्या में भीड में एकत्र होकर विभिन्न संगठनों, पार्टियों, दबाई सताई वंचित समाज की विभिन्न जातियों आदि द्वारा साइमन सर को ज्ञापन सौंपे गए। जिसकी अगुआई रामचरनलाल निषाद एडवोकेट एमएलसी जी ने किया।
वंचित समाज की विभिन्न जातियों संगठनों द्वारा दिए गए ज्ञापन तथा बतौर गवाहों की हिंदी में व्यक्तिगत सुनवाई को अंग्रेजी में अनुवाद कर साइमन सर को बताना व लिखकर देना चुनौतीपूर्ण कार्य कर उन्होंने रामचरणलाल निषाद जी के साथ मिलकर बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। कार्यक्रम के अंत में स्वयं डिप्रेस्ड क्लासेज की ओर से अपना क्रांतिकारी बयान कलमबंद करवाया।
अम्बेडकर का करना पड़ा विरोध
रामचरनलाल निषाद एडवोकेट व इनके सहयोगी रामप्रसाद अहीर प्लीडर, शिवदयाल चौरसिया, राजाराम कहार, बीएस जैसवार आदि सभी शूद्र जातियों के लिए समान व्यवस्था व अधिकार के पक्षधर थे, लेकिन अम्बेडकर सिर्फ़ अछूत जातियों की वकालत कर रहे थे। यहीं नहीं जब लोथियन कमेटी यानी मताधिकार समिति का आगमन हुआ तो अम्बेडकर सिर्फ़ अछूत पिछड़ी जातियों के दोहरे मताधिकार के पक्ष में प्रत्यावेदन दिए,जो रामचरनलाल निषाद व उनके सहयोगियों को नागवार लगी,इसलिए लखनऊ में अम्बेडकर का जमकर विरोध हुआ। यही नहीं 1930 में बेगम हज़रत महल पार्क में डिप्रेस्ड क्लास की एक रैली का आयोजन किया गया था। लेकिन उसके पूर्व ही जब अम्बेडकर का सछूत व अछूत के बीच अलग नजरिया देखने को मिली तो अम्बेडकर का जबरदस्त विरोध हुआ और अम्बेडकर को बिना सभा सम्बोधित किये वापस लौटना पड़ा।
रामचरनलाल निषाद की टीम सभी शूद्रों के समान मताधिकार के थे पक्षधर
बाबू रामचरनलाल निषाद एडवोकेट के सहयोगी सभी शूद्रों यानी डिप्रेस्ड क्लास के समान मताधिकार के पक्ष में लोथियन कमेटी के समक्ष प्रत्यावेदन देकर अपना पक्ष रखे,वही अम्बेडकर शूद्रों में सिर्फ़ अछूत शूद्रों को दोहरे मताधिकार के समर्थन में प्रत्यावेदन दिए।जिसको लेकर बैकवर्ड फेडरेशन लीग के नेता नाराज़ हो गए।कम्युनल अवॉर्ड में भी अम्बेडकर का सिर्फ़ अछूतों के दो मत का प्रस्ताव रखा गया।जो डिप्रेस्ड क्लास की एकता को कमजोर करने वाला निर्णय था।
अन्य पिछड़ी जातियों के हक और अधिकारों की रक्षा
लौह पुरुष कहे जाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अछूतों के अलावा शूद्र जातियों को प्रतिनिधित्व (तथाकथित आरक्षण) देने के लिए बाबा साहब को साफ मना कर दिया और कहा कि हमें आरक्षण की क्या जरूरत? फिर भी डॉ. अंबेडकर ने शूद्र जातियों के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग बना दिया तथा उनके लिए संविधान में प्रतिनिधित्व पाने के हक की व्यवस्था कर दी।
प्रथम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग
भारतीय संविधान में अनुच्छेद- 340 की व्यवस्था के अंतर्गत 29-1-1953 में भारत के राष्ट्रपति जी द्वारा अन्य पिछड़ी जातियों को परिभाषित करने, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक उत्थान एवं प्रगति हेतु एक आयोग गठित किया गया। उनके चौरसिया जी आयोग के महत्वपूर्ण गैर कांग्रेसी सदस्य मनोनीत किए गए। इस संबंध में 30.10.1953 को वह डॉ. अंबेडकर से विचार विमर्श हेतु दिल्ली गए थे। आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर पूना के निवासी एक ब्राह्मण थे। चौरसिया जी ने अपनी बनाई गई रिपोर्ट अन्य पिछड़ी जातियों के पक्ष में ही दी, जिसे देखकर नेहरू आग बबूला हो उठे थे। नेहरू ने काका कालेलकर से ना चाहते हुए भी रिपोर्ट खारिज करने की सिफारिश लगवाई। नेहरू ने 16 वर्ष तक भारत के प्रधानमंत्री के पद पर रहकर उच्च वर्णों की उन्नति और मूलनिवासी बहुजनों की अवनति के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। न्यायपालिका में भी अपने समर्थक आर्य ब्राह्मण न्यायाधीशों की नियुक्ति करवाते रहें ताकि भविष्य में मूलनिवासियों को कोई हक और अधिकार मिलने के पक्ष में कभी कोई निर्णय न होने पाए।
काका कालेलकर के द्वारा दिए गए विरोधाभासी पत्र ने चौरसिया जी एवं डॉ. अंबेडकर जी के जीवन भर की मेहनत पर पानी फेर दिया। यह अन्याय न केवल उनके साथ बल्कि करोड़ों पिछड़ों के साथ हुआ और उन जातियों को सदैव आर्यों की दासता का जीवन बिताने के लिए विवश कर दिया गया।
इस सब के बावजूद चौरसिया जी चुप और शांत नहीं बैठे। अन्य पिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जातियों को लामबंद करने के लिए देशभर के प्रायः सभी राज्यों में अपना संघर्ष और आंदोलन तेज कर दिया। इसका लाभ यह हुआ कि पिछड़े वर्ग की विभिन्न जातियों के लोग चुनकर संसद में आने लगे और उनके अंदर दासता के विरुद्ध जागरुकता एवं विद्रोह का संचार पनपने लगा। चूँकि संवैधानिक हक पाने के लिए संसद में बहुमत की आवश्यकता है परंतु संसद में बहुमत ना होने से यह मामला ब्राह्मणवाद की चोट और धोखा खाकर संसद में लटकता रहा । इन जातियों की सांसो की डूबती हुई धड़कनों को बचाने के लिए बहुत विलंब से वर्ष 1989-90 में मा. विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में ऑक्सीजन तो दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऑक्सीजन की पूरी मात्रा देने से रोक लगा दी ।
मान्यवर कांशीराम जी से मुलाकात
दोनों की परस्पर समान विचारधारा होने के कारण एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने लगे। काशीराम जी (बामसेफ डीएस-4 के संस्थापक) एक जुझारू व्यक्ति थे। उस समय तक पिछड़े वर्ग के पास ऐसी कोई संस्था नहीं थी जो इस समाज की दिशा एवं दशा को तय करती। प्रिंट मीडिया पर केवल आर्यों का ही एकछत्र अधिकार था। इस समय तक बहुजन समाज में अनेक विचारक और चिंतक हुए परंतु अपनी अपनी जाति तक ही सीमित रहे और अपनी जाति की ही डोर पकड़कर कटी पतंग की तरह अधोगति को प्राप्त हुए। डी.के. खापर्डे, दीना भाना एवं काशीराम जी ने इस बुराई को पहचाना और एक ऐसे संगठन की रूपरेखा तैयार करने में लग गए, जो समस्त पिछड़े वर्ग के लिए हो। उन्हें एक झंडे के नीचे रखकर उनके हितों की रक्षा के लिए एक नए जोश खरोश के साथ संघर्ष शुरू किया। चौरसिया जी ने तन मन धन से सहयोग देकर इस संगठन की हौसला अफजाई की।
राज्य में सत्ता परिवर्तन के समय उन्होंने शुगर की बीमारी के बावजूद खुशी के दिन मिठाई खाई थी और कहा था कि मेरा संघर्ष और जीवन सफल हुआ।
परिनिर्वाण दिवस
चौरसिया जी 18-9-1995 को यशकायी होने के बाद एक बहुत बड़ा अनसुलझा प्रश्न छोड गए है, जिसको वह अपने जीवनकाल में पूरा नहीं कर पाए। वह कहा करते थे कि पिछड़ावर्ग और अल्पसंख्यकों की जातियों को उनकी जनसंख्या के आधार पर न्यायालयों, सरकारी नौकरियों आदि में प्रतिनिधित्व कब मिलेगा। आओ हम सब मिलकर उनके सपनों को पूरा करने का संकल्प लें।
रामचरनलाल निषाद, शिवदयाल चौरसिया, रामप्रसाद अहीर,राजाराम कहार,बीएस जैसवार आदि सभी पूरे शूद्र वर्ग को समान अधिकार की मांग को लेकर आवाज़ उठा रहे थे,वही अम्बेडकर सिर्फ़ अछूतों की ही बात कर रहे थे।वे अछूतों के दोहरे मताधिकार के पक्षधर तो थे,सछूत पिछड़े इनके एजेंडे में नहीं थे।जो सम्पूर्ण शूद्र वर्ग के लिए उनका व्यापक दृष्टिकोण नहीं था।
कम्युनल अवार्ड के तहत डॉ. अम्बेडकर सिर्फ़ अछूत पिछडों को दो वोट के अधिकार की मांग कर रहे थे, सछूत पिछडों को बाहर रखकर चल रहे थे।अम्बेडकर की इस विचारधारा से रामचरनलाल निषाद काफी दुखी थे।वे चाहते थे कि सभी शूद्रों या डिप्रेस्ड क्लास को समान अधिकार मिले।
गोलमेज सम्मेलन-1932 में डिप्रेस्ड क्लास का कैसे हो गया बंटवारा
गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट/भारत सरकार अधिनियम-1908 से 1931 तक डिप्रेस्ड क्लास(पददलित वर्ग) के नाम से सरकारी सहूलियतें मिलती थीं। गोलमेज सम्मेलन-1932 में डिप्रेस्ड क्लास का टचेबल डिप्रेस्ड क्लास व अनटचेबल डिप्रेस्ड क्लास में विभाजन हो गया,आखिर यह सब कैसे हुआ,किसने किया,और अम्बेडकर सहमत नहीं थे तो कैसे हो गया,यह अत्यंत गम्भीर व विचारणीय विषय है।इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि यह सब अम्बेडकर के संज्ञान या उनकी सहमति से ही हुआ,अन्यथा ब्रिटिश गवर्नमेंट को यह सब करना उचित नहीं था। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 में अछूत पिछड़ी व जंगली पिछड़ी जातियों(आज की एससी, एसटी) को शिक्षा,सेवायोजन में जनसंख्या अनुपात में प्रतिनिधित्व का कानून बन गया।गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1937 में इन्हें जनसँख्या अनुपात में अलग राजनीतिक प्रतिनिधित्व का भी आरक्षण मिल गया और टचेबल डिप्रेस्ड क्लास यानी आज की पिछड़ी जातियाँ आज़ादी के पूर्व ही छल कपट की शिकार हो गईं।
क्या अम्बेडकर बहुजन या 85 के नेता थे?
1932 के बाद अम्बेडकर की देखरेख में डिप्रेस्ड क्लास के विभाजन का जो कार्य हुआ,उससे यह सिद्ध होता है कि अम्बेडकर बहुजन या 85 के नहीं सिर्फ़ आज के एससी, एसटी के नेता थे,अन्यथा 1935 व 1937 में ये चाहे होते तो सभी शूद्रों को समान अधिकार मिल गया होता।डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण बहुजन के नहीं बल्कि सिर्फ़ अनुसूचित जातियों के के ही हितैषी नेता थे,अन्यथा ये शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन न बनाकर डिप्रेस्ड क्लास फेडरेशन बनाते।
हम मान सकते हैं कि जिस तरह पूना पैक्ट अम्बेडकर व गाँधी के मध्य आपसी सलाह मशविरा से हुआ,उसी तरह हो सकता है कि वर्णव्यवस्था की ताक़तों ने अम्बेडकर को गुमराह कर बहुजन वर्ग या डिप्रेस्ड क्लास का दो खंडों में बंटवारा करा दिया।
ओबीसी शब्द नेहरू ने दिया
13 दिसम्बर,1946 को संविधान सभा की बैठक में नेहरू ने ही Other Backward Class शब्द का प्रयोग किये। उन्होंने संविधान सभा की बैठक में कहा था कि जनरल व शेड्यूल्ड कास्ट के अलावा एक और वर्ग अन्य पिछड़ावर्ग भी है।
‘मेरा नाम चौरसिया है और मैं असमानता को चौरस करके ही दम लूंगा।’
बाबू शिवदयाल चौरसिया बहुत ही साहसी व दृढ़निश्चयी व्यक्ति के बहुजन नेता नेता थे। वह कहते थे कि मेरा नाम चौरसिया है और में हिन्दू धर्म में जाति पाति की असमानता को दूर करके ही दम लूँगा। अंतिम समय तक वे अपने इरादे पर अडिग रहे।
साइमन कमीशन के समक्ष हुए उपस्थित
जनवरी 1928 को साइमन कमीशन के लखनऊ आगमन पर कमीशन के सामने वंचितों के अधिकार की मांग रखी।पिछड़े समाज के विभिन्न जातीय संगठनों द्वारा दिए जा रहे ज्ञापन तथा गवाहों की सुनवाई में हिंदी को अंग्रेजी में अनुवाद कर कमीशन के समक्ष दुभाषिये का काम किया। साथ ही उनकी मांगों का मसौदा बनाने में कानूनी मदद भी की। उन्होंने अपना बयान भी साइमन कमीशन के सामने दर्ज कराया। आदि हिंदू महासभा के नेताओं ने वंचितों के लिए राजनीतिक अधिकार के साथ तरजीही व्यवहार की मांग की।उन्होंने तर्क दिया कि निम्न और डिप्रेस्ड दर्जे के कारण उन्हें कम भुगतान, छोटी नौकरियां मिलती हैं और उन्हें शिक्षा पाने में दिक्कत होती है और बेहतर रोजगार नहीं मिल पाता।उनका कहना था कि भारतीय समाज में आदि हिंदू दोहरी मार खा रहा है- एक तो वह अंग्रेज सरकार के अत्याचार सह रहा है, दूसरे वह जातिवादी हिंदुओं का शिकार है।
पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य के तौर पर भूमिका
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 340 की व्यवस्था के अंतर्गत 29 जनवरी 1953 को भारत के राष्ट्रपति ने अन्य पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने, उनके सामाजिक आर्थिक राजनीतिक उत्थान एवं प्रगति हेतु काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहले पिछड़े वर्ग आयोग का गठन किया।चौरसिया भी आयोग के सदस्य मनोनीत किए गए।इस संबंध में 30 अक्टूबर 1953 को उन्होंने डॉ. आंबेडकर के साथ व्यापक विचार विमर्श किया था।कालेलकर कमीशन के सदस्य के रूप में उनके लिखे असहमति नोट में मुख्य जोर पिछड़े को ज्यादा से ज्यादा अधिकार देने को लेकर ही था।
ओबीसी को दी अलग पहचान
चौरसिया 1929 में रामचरनलाल निषाद की अध्यक्षता में बने यूनाइटेड प्रॉविंस हिंदू बैकवर्ड क्लास लीग से शुरुआत से ही जुड़े रहे। उन्होंने 1930 के दशक के शुरुआत में हिंदू बैकवर्ड शब्द प्रचलित किया, जिससे पिछड़े समाज की डिप्रेस्ड क्लास से अलग पहचान हो सके।सामान्यतया डिप्रेस्ड क्लास से अछूत होने का अर्थ निकलता था। चौससिया ने यह कहा कि पिछड़े वर्ग के लोग दरअसल शूद्र हैं, जो भारत के मूलनिवासी हैं।
चौरसिया ने आरक्षण पर काफी जोर दिया।उनका मानना था कि जब तक किसी समुदाय को महत्वपूर्ण स्थानों तक पहुंचने का मौका नहीं मिलता, तब तक समाज में बदलाव नहीं हो सकता। अगर उच्च शिक्षित व्यक्ति और डिग्रीधारक व्यक्ति को प्रमुख पद पर बैठाया जाए, तभी वह किसी चीज को नियंत्रण करने की स्थिति में आ सकता है। चौरसिया ने विधानसभाओं और लोकसभा में भी पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिए जाने की मांग की थी।
जनता की जेब में पैसा पहुंचाए बिना नहीं संभलेगी अर्थव्यवस्था
साइमन कमीशन के गठन के फैसले और 7 नवंबर 1927 को इसकी घोषणा के बाद वंचितों के लिए संघर्ष कर रहे स्वामी अछूतानंद ने उत्तर प्रदेश के आगरा, इलाहाबाद, बस्ती, इटावा, फर्रूखाबाद, फतेहगढ़ और मैनपुरी जैसे शहरों में बैठकों का आयोजन किया। आदि हिंदू महासभा के नेता के रूप में चौरसिया और राम चरण निषाद ने साइमन कमीशन के समक्ष व्यापक प्रदर्शन किया। चौरसिया जनवरी 1928 को उसके लखनऊ आगमन पर कमीशन के सामने मजबूती से अपना पक्ष रखे।
बैकवर्ड क्लासेस लीग
इन्होंने लखनऊ के अपने साथियों – एडवोकेट गौरीशंकर पाल,रामचरण मल्लाह,रामप्रसाद अहीर,राजाराम कहार, बदलूराम रसिक, महादेव प्रसाद धानुक,छंगालाल बहेलिया, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, रामचंद्र बनौ, स्वामी अछूतानंद आदि के साथ मिलकर बैकवर्ड क्लासेस लीग की
स्थापना की। बाद में देश भर में इसका गठन किया।यह रामचरनलाल निषाद एडवोकेट के परममित्र व सहयोगी के तौर पर काम करते रहे।
इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़े चुनाव, के के बिड़ला को राज्यसभा चुनाव में दी मात
शिवदयाल चौरसिया 1967 में इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से लोकसभा चुनाव भी लड़े। 1974 में कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश से इन्हें राज्यसभा भेजा । वह प्रसिद्ध उद्योगपति के. के. बिड़ला को चुनाव में हरा कर राज्यसभा में गए। वह सांसद रहकर देश के गरीबों के लिए विधि निर्माण में लगे रहे। कांग्रेस (आई) के सदस्य के रूप में चौरसिया 3 अप्रैल 1974 से लेकर 2 अप्रैल 1980 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे और संसद में रहकर उन्होंने वंचित तबके की आवाज बुलंद की।
गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता देना उनके जीवन का अहम
वंचित वर्ग को निःशुल्क व सस्ती कानूनी सहायता के पक्षधर रहे। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एचएन भगवती के साथ मुफ्त कानूनी सहायता देने के सिलसिले में उन्होंने बैठकें की।चौरसिया के प्रयासों से अदालतों में निःशुल्क कानूनी सहायता का प्रचलन हुआ और संसद में कानून पारित करवाकर भारतीय संविधान में जुड़वाकर इस व्यवस्था को संवैधानिक समर्थन दिलाया गया। लोक अदालतों को उसी विधि की एक कड़ी माना जा सकता है।इन्हें लोक अदालत का जनक कहा जाता है।
चौरसिया को बहुजनों की शैक्षिक दुर्दशा से बड़ी पीड़ा होती थी। वे व्याप्त निरक्षरता को बहुजनों के पतन और दासता का कारण मानते थे।इसलिए वह शिक्षा पर बहुत अधिक बल देते थे। चौरसिया अपने दृढ़ निश्चय के साथ कहा करते थे कि मेरा नाम चौरसिया है और मैं हिंदू समाज की असमानता को चौरस करके ही दम लूंगा।
लेखक सामाजिक न्याय चिन्तक व भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।