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जनता की लड़ाई के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है – सविता रथ

सविता रथ का परिवार काफी पढ़ा-लिखा और नौकरीपेशा रहा है लेकिन सविता सरकारी नौकरी छोड रायगढ़ जिले के आदिवासीबहुल इलाके में पूँजीपतियों के खिलाफ डटकर लड़ाई लड़ रही हैं।

सविता रथ के बारे में उनके रिश्तेदारों और जाननेवालों ने जो भविष्यवाणियाँ की थीं वे सब झूठी साबित हो गईं, क्योंकि सविता ने कभी हार नहीं मानी। सविता ने हर स्थिति का सामना किया और उन सबको गलत साबित कर दिया जो सोचते थे कि यह लड़की ट्रेड यूनियन जैसे कामों में भला कितने दिन चल पाएगी। या तो यह एक दिन भाग जाएगी या कोई न कोई रेप करके इसे मारकर फेंक देगा। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ और सविता को आज जो भी जानता है उनकी कर्मठता, सरोकार, साहस  और जीवट के लिए जानता है। पैसे-पैसे को मुहताज हो जाने के हालात में भी उन्होंने अपनी चिड़ियों सी हंसी और मनोबल पर आंच नहीं आने दिया। बेशक सविता की राह कठिन थी लेकिन वे आगे बढ़ती रहीं।

सविता ने पिछले मई महीने में अपना चौवालीसवाँ वर्ष पूरा किया और इस बीच एक बार बहुत गंभीर बीमार भी पड़ी लेकिन अब वे फिर से अपनी मंजिलों की ओर हैं। 22 मई 1978 को रायगढ़ जिले के आदिवासी बहुल गाँव बरलिया में सविता का जन्म एक उड़िया परिवार में हुआ। सविता बताती हैं कि स्कूल में मेरी जन्मतिथि 22 मई 1976 लिखी गई है क्योंकि बड़े बच्चों को देखकर मैं चार साल की उम्र में ही स्कूल जाने की जिद करने लगी थी जबकि वहाँ तो छः साल का होना जरूरी है। इसलिए दो साल बढ़ा कर लिखी गई । मेरे पिता का नाम अशोक कुमार रथ एवं माता का नाम बसुमती है। मैं चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी हूँ। वे तीनों शादीशुदा हैं परन्तु मैंने विवाह नहीं किया है।’

आदिवासियों के लिए जल,जंगल,ज़मीन की लड़ाई में अगुवाई करने वाली सविता रथ प्रकृति का आनंद लेते हुए

ऐसे शुरू हुआ सफर

सविता के सामाजिक जीवन का सफर सन 1991 में स्कूल के दिनों से शुरू हुआ जब वे जन-साक्षरता अभियान में शामिल हुई थीं। उस समय के रायगढ़ के जिला कलेक्टर हर्षमंदर थे। उनकी प्रेरणा से सविता ने अपनी पढ़ाई के साथ शिक्षा के प्रचार-प्रसार में दिलचस्पी लेना शुरू किया और धीरे-धीरे वे सामुदायिक शिक्षा से जुड़ती गईं। पाँच साल बाद1996 में उन्होंने एक शिक्षिका के रूप में रायगढ़ जिले के रेगड़ा गाँव में 2002 तक काम किया।

“सविता आगे बताती हैं कि ‘इसलिए मैं रम नहीं पाई। उन खाली पेट, मैले-कुचैले, उलझे बालों वाले बच्चों के साथ जब मैं साथी अध्यापकों के दोयम दर्जे के व्यवहार और भेदभाव को देखती तो मुझे लगता कि इन बच्चों की जगह मैं ही अपमानित हो रही हूँ। जब कोई इनका मज़ाक उड़ाता तो मैं लड़ जाती। ऐसे में मैं भी किसकी प्रिय बनी रह सकती थी”

इस दौरान सविता ने साथी शिक्षकों के मार्गदर्शन में  पर शिक्षा की स्थिति और उसके महत्व को बारीकी से देखने-समझने की कोशिश की लेकिन सविता बताती हैं कि ‘मैं नई-नई बातें सीख रही थी, किन्तु मुझे पता नही क्यों पढ़ाई से ज्यादा स्कूलों की अधोसंरचना, शिक्षा पद्धति में बदलाव यानी रट्टू पढ़ाई की बजाय खेल-खेल में शिक्षा का तरीका पसंद आता था। इन सबसे बढ़कर आदिवासी एवं दूसरे दूर-दराज से स्कूल आनेवाले बच्चों की फटी हुई शर्ट,  टूटे बटन और खाली पेट जैसे अपनी ओर खींचते थे। मैं उस तरह से अच्छी शिक्षिका नहीं थी जो स्कूल के समय आकर अपना कोरम पूरा कर दे और खुशी-खुशी लौट जाये। मुझे एक तरह से घुटन और डिप्रेशन महसूस होता था।’

सविता आगे बताती हैं कि ‘इसलिए मैं रम नहीं पाई। उन खाली पेट, मैले-कुचैले, उलझे बालों वाले बच्चों के साथ जब मैं साथी अध्यापकों के दोयम दर्जे के व्यवहार और भेदभाव को देखती तो मुझे लगता कि इन बच्चों की जगह मैं ही अपमानित हो रही हूँ। जब कोई इनका मज़ाक उड़ाता तो  मैं  लड़ जाती। ऐसे में मैं भी किसकी प्रिय बनी रह सकती थी। मेरे घर, गाँव, स्कूल प्रबंधन और सरपंच से लेकर शिक्षा मंत्री तक मेरी जमकर शिकायत हुई। इस प्रकार अंत में सन 2002 में मैंने स्कूल से त्यागपत्र दे दिया हालांकि मेरे घर के लोगों ने इसका विरोध भी किया।’

लेकिन इसके बाद सविता ने दलित एवं आदिवासी बस्तियों की झुग्गियों तक इन्हीं मासूम बच्चों के माध्यम पहुंच बनाई और उन परिवारों को नज़दीक से देखा कि उनकी वास्तविक समस्याएँ क्या हैं? सबसे पहले सविता को समझ आया इन परिवारों को कृषि-मजदूरी से केवल इतना ही मिल पाता है जिससे बमुश्किल पेट भर सके। बाकी सभी सुविधाओं और निर्णयों पर दबंग और राजनितिक पहुँच वाले लोगों का अधिकार था।

आदिवासियों के हक़ के लिए ज्ञापन देने के लिए कलेक्ट्रेट रायगढ़ में सविता रथ

सविता बताती हैं कि ग्राम पंचायत में आरक्षित सीट होने से इसी मोहल्ले से दो या तीन लोग चुनकर हमेशा आते थे लेकिन उन्हें निर्णय लेने का नहीं बस सहमति देने का अधिकार था। सभी मूलभूत सुविधाएं बस्ती के बड़े लोगों  के लिए थीं। सड़क, पुल, शुद्ध पेयजल, भवनों की स्वीकृति, वन समितियों, शिक्षा समितियों तथा अन्य पंचायत संबंधित सुविधाएं सब कुछ उनके हाथ में था।

ग्राम-पंचायत के सचिव भगवान की तरह होते थे जो कि राशन-पेंशन जैसी सरकारी सुविधाओं पर कब्जा अपने चहेतों को ही देते थे। इंदिरा आवास जैसी सुविधा को बेचा जाता था और इन गरीबों के हिस्से में केवल अपमान और गालियाँ और फरेब आता था।

दूसरी बात कि इन लोगों को सरकारी सुविधाओं के लाभ की कानूनी जानकारियां भी नहीं थीं।  बस्ती के बड़े लोग इन्हें मानसिक गुलाम बनाए हुये थे।  धार्मिक गुलामी की बेड़िया भी बड़ी सफाई से इन दलित और आदिवासियों के पाँव में डाली गई थीं। वहाँ न तो स्कूल था और न ही टीकाकरण करने नर्स जाती थी। आगंनबाड़ी नहीं, शुद्ध पेयजल, बिजली एवं जंगली नाले को पार करने पुल तक नहीं था। लेकिन एक मंदिर और एक चर्च मिट्टी के घर में आराम से चल रहे थे।  जो हिन्दू थे वो रोज मंदिर जाते और ईसाई धर्म को अपनाने वाले प्रति रविवार चर्च में जरूर जाने लगे थे।

रोजगार का कोई व्यवस्थित और लाभदायक साधन नहीं था। बस जंगलों से जलाऊ लकड़ीलाना, वनोपज संग्रहण करना, पशुपालन, छोटे रकबों में धान/उड़द की खेती, सब्जियां उगाना और कृषि मजदूरी थी जो स्त्रियों के जिम्मे था जबकि पुरुषों के हिस्से में शहरों में मजदूरी करना, डम्फरों में खलासी का काम और बड़ी  बस्ती में कमिहा (वार्षिक गुलामी वाला घरेलू नौकर) जो कि कृषि कार्य के अलावा घरेलू कामों में मदद करता था।  इनमें ज्यादातर ऐसे लेाग थे जो अपनी शादी-ब्याह, जन्म-मृत्यु के समय बड़े किसानों से कर्ज लेते थे।

इनकी महिलाओं और बच्चों का कोई सम्मान नही था क्योंकि इन दलित/आदिवासी बस्तियों में शराब हड़िया (चावल का शराब) महिला/पुरुष दोनों ही पीते थे और इस शराब को कई बार जरूरत पड़ने पर बेचते भी थे।  मांस और मछली का छोटा-मोटा कोई धंधा भी होता था। बड़ी बस्ती से भी कई बार वहाँ ग्राहक आते थे।

“मैं केवल उड़िया ब्राह्मण ही नहीं, बल्कि एक बेहद रूढ़िवादी, पारंपरिक और सामंती सोचवाले पितृसत्तात्मक परिवार से आती हूँ। ऊपर से आदिवासियों, जंगलों और नदी के बीच बसा गांव जो शहर से महज दस किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन उस समय किसी टापू से कम नहीं था। केलो नदी के कारण शहर और सुविधा दोनों से कटा था। जिससे गाँव में कोई भी सुविधा नहीं थी। न ही कोई संचार सुविधा उपलब्ध थी।”

इन सब कारणों से शाम को झगड़े भी होते रहते। कई बार हत्या तक हो जाना साधारण बात थी। अपने ही घर में, अपने ही परिवार के लोगों से महिलाओं को केवल आर्थिक ही नहीं, शारीरिक और मानसिक यातना मिलनी एक सामान्य प्रक्रिया थी। लेकिन सरकारी अमले के नाम पर उनके केवल पुलिस ही आती थी। बच्चों की ओर किसी को देखने का कोई समय नहीं था और ये बच्चे जन्म से ही घृणा और दया के पात्र होने के लिए मजबूर थे।

जन्म से ही मुसीबतों का सामना

अपने पारिवारिक परिवेश और बचपन के बारे में सविता बताती हैं कि ‘मैं केवल उड़िया ब्राह्मण ही नहीं, बल्कि एक बेहद रूढ़िवादी, पारंपरिक और सामंती  सोचवाले पितृसत्तात्मक परिवार से आती हूँ। ऊपर से आदिवासियों, जंगलों और नदी के बीच बसा गांव जो शहर से महज दस किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन उस समय किसी टापू से कम नहीं था।  केलो नदी के कारण शहर और सुविधा दोनों से कटा था। जिससे गाँव में कोई भी सुविधा नहीं थी। न ही कोई संचार सुविधा उपलब्ध थी।

इसीलिए इस गाँव के लोगों को कोई सामाजिक और राजनीतिक समझ नहीं थी। जानकारी थी तो केवल धान और जंगल के वनोपजों की। सांपों की प्रजाति में समझ थी। स्त्रियों की क्या हालत रही होगी आप इसका अंदाज़ा लगा सकती हैं। उन्हें फैसले लेने का हक कतई नहीं था। यहाँ तक खाना पकाने के तरीके से लेकर पहनावे तक में पुरुषों का दखल रहता था।’

सविता के पिता एक पारंपरिक जमीदार घराने से ताल्लुक रखते थे। उनके मामा ब्रिटिश पुलिस सर्विस में थे और आज भी कई लोग नेवी तथा पुलिस की नौकरी में हैं। यह उनकी एक तरह से परंपरा ही हो गई है कि किसी और नौकरी की बजाय वे फौज या पुलिस में जाना अधिक अच्छा मानते हैं।

कोटागिरी,तमिलनाडु में एक सेमिनार में आदिवासी महिलाओं के साथ सविता रथ

ऐसे में जब सविता ने सरकार की नीतियों की आलोचना करती तो उन्हें एकदम नागवार गुजरता। उन्हें यह  मंजूर नही था कि लड़की सरकार की नीतियों पर कोई सवाल उठाये। उनकी स्वयं की बेटी जमीन के हक की लड़ाई लड़े। दलितों और आदिवासी परिवारों के बच्चों के फटे-पुराने कपड़ों को घर लाकर दिन में पहले गर्म पानी में उबाल कर और फिर तालाब में धोए और धोबिन की तरह तालाब की मेड़ में सुखाकर लाए और घर में रात को सिलाई करके बटन लगाकर सुबह स्कूल ले जाए। ब्राह्मण घर की लड़की आदिवासियों के साथ उठे-बैठे और उनके साथ खाए-पिए।

सविता बताती हैं कि कोई नहीं चाहता था कि मैं ग्रामसभा में एक महिला होकर पुरुषों से सवाल करूँ। मर्दों की चौपाल में खड़े होकर जमीनों और सरकारी कानूनों पर लड़ती फिरूँ। इसलिए धीरे-धीरे शिकायतों का अंबार मेरे घर तक पहुँचने लगी और सबसे पहले यह बात उठी कि माँ ने कभी सही-गलत की समझ लड़की में नहीं डाला। माँ पर आरोप था कि वह आधुनिक विचारों वाली उस समय की मैट्रिक थी और एक पुलिस वाले की बेटी है इसलिए उसने पारंपारिक मान्यताओं को नहीं स्वीकारा और अपनी लड़की को पढ़ाने भेज कर आज घर की इज्जत नीलाम करवा रही है।

मेरे पिता सुरक्षा विभाग में थे और उन्हें भी मेरा काम पसंद नहीं आता था। उन लोगों ने मेरे विषय में उन्हें हमेशा गलत जानकारी दी, जिनके खिलाफ मैंने सवाल उठाई। पूरे परिवार को चिंता थी कि मेरे कारण बाकी भाई-बहन के अलावा चचेरे-ममेरे-फुफेरे तक अपमान महसूस कर रहे हैं। यही सब सोचकर पहले घर से ही मुझे चरित्र प्रमाणपत्र दिला दिया गया। जो लोग भी मुझे इस काम में मदद करने की कोशिश करते उन सभी का नाम मेरे नाम से जोड़ा गया। यह सब मेरे लिए बेहद अपमानजनक और पीड़ादायक था। अंत में मैंने अपना घर छोड़ दिया।

“पहले मैं सोचती थी कि बच्चों, आदिवासियों, दलितों महिलाओं और,  किसान जो अपनी मेहनत से केवल पेट पाल भर रहे हैं और जो सांमतवादी बंधुवा व्यवस्था में बंधे हैं। संस्थागत मदद दिला कर उन मासूमों को भूख और बीमारियों से बचाने की एक मुहिम चलना बहुत जरूरी है। लेकिन अब मेरी सोच में थोड़ा गुणात्मक परिवर्तन हुआ। मुझे लगा कि इन लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना सबसे ज्यादा जरूरी है। मुझे अन्याय और लूट का उद्गम समझ में आने लगा और मैं स्वतः एक प्रतिरोध की स्थिति में आती गई।”

जनसंघर्षों के बियाबान में और जनचेतना के साथ जुड़ाव  

सन 2000 में जब मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ नया राज्य बना, तब पूरे छत्तीसगढ़ में मातृ-शिशु मृत्युदर अत्यधिक थी। साथ ही पूरे राज्य को मलेरिया पीड़ित बीमार राज्य का दर्जा मिला था। चार साल बाद 2004 में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ द्वारा सूचना के अधिकार और मजदूरों के हक के लिए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना तथा आदिवासियों के वनाधिकार पट्टे की मांग को लेकर पूरे भारत मे एक पदयात्रा निकाली गई।

सविता बताती है कि ‘तब मैंने जन संगठनों की वास्तविक ताकत तथा वैचारिक रूप से काम करने के महत्व को समझा। मुझे उनसे मार्गदर्शन मिलने की आशा जगी। पहले मैं सोचती थी कि बच्चों, आदिवासियों, दलितों महिलाओं और,  किसान जो अपनी मेहनत से केवल पेट पाल भर रहे हैं और जो सांमतवादी बंधुवा व्यवस्था में बंधे हैं। संस्थागत मदद दिला कर उन मासूमों को भूख और बीमारियों से बचाने की एक मुहिम चलना बहुत जरूरी है। लेकिन अब मेरी सोच में थोड़ा गुणात्मक परिवर्तन हुआ। मुझे लगा कि इन लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना सबसे ज्यादा जरूरी है। मुझे अन्याय और लूट का उद्गम समझ में आने लगा और मैं स्वतः एक प्रतिरोध की स्थिति में आती गई।

तमनार में आदिवासियों के साथ जल,जंगल,ज़मीन के अधिकार के लिए आवाज़ उठती सविता रथ

उस समय युवा सविता उत्साह और साहस से भरी थी। वह सुबह सबेरे कंधे पर झोला टाँगती और गाँव-गाँव जाकर महिलाओं को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करती। गरीब दलित और आदिवासी महिलाओं के प्रसव के समय सविता उन्हें हर संभव मदद देती। कभी स्वयं दाई बन जाती और कभी-कभी तो उनके बच्चों को ले जाकर तालाब में नहलाती। लोग सोचते कि कैसी लड़की है जो कोई छुआछूत ही नहीं मानती।

लगातार दौड़ती भागती सविता के न खाने का ठिकाना था न जाने की कोई सवारी थी लेकिन काम करने के जुनून में वह पैदल ही कई किलोमीटर घूम आती। रास्ते में कहीं जंगली फल मिल गया तो उसी से काम चला लेती और कभी किसी स्वास्थ्य मितानिन से कुछ मांग कर खा लेती। लोग कहते कि देखो इसकी खुद की तो शादी हुई नहीं बाल-बच्चेवाली महिलाओं को ज्ञान बाँट रही है।

घरवाले तो और कुपित थे। उनको लगता कि ब्राह्मण की लड़की होकर यह दलितों-आदिवासियों के घर में जाकर उनकी गंदगी साफ कर रही है और उनके साथ बैठकर खा रही है। जाति, समाज और उसके स्वयं के परिवार में लोग कहने लगे कि यह हमारी इज्जत खराब करने वाली बदमिजाज और जिद्दी लड़की है। उनकी चिंता थी कि ऐसे ही रहा तो इसकी शादी कैसे होगी। सविता उन दिनों को याद करते हुये हँसती है – ‘लोगों में मेरी बुरी छवि बनती चली गई। मैं उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थी। एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। वे चिंतित थे कि मेरी शादी और भविष्य क्या होगा? उनको लगता था कि मैं इसी काम के बीच किसी और जाति के लड़के से विवाह कर लूँगी तो उनकी इज्जत नीलाम हो जाएगी।’ बेशक सविता ने परिवार का उत्पीड़न सहा लेकिन पीछे नहीं हटी।

आदिवासियों के बीच वनोपज और वन संपदा के संरक्षण के लिए जंगल में

सविता ने 2003  में बरलिया ग्राम पंचायत की मुखिया का चुनाव भी लड़ा और सबसे ज्यादा मतों से जीत हासिल की। वह  2006 तक ग्राम पंचायत बरलिया की मुखिया रहीं। ऐसे में उनके घर वालों और अन्य ब्राह्मणों को यह उम्मीद थी कि यह अपनी लड़की है और केवल हमारे हित में काम करेगी। लेकिन सविता तो बिलकुल उलट निकली। जैसे ही उसने शपथ लिया वैसे अपनी ग्राम सभा को मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं की समीक्षा शुरू कर दी। आंगनबाड़ी, मध्यान्ह भोजन, वृद्धावस्था पेंशन, महिला सशक्तिकरण संबंधी योजनाओं और वन समिति की गतिविधियों का लेखा-जोखा देखने पर पता चला इस छोटी सी ग्राम पंचायत में भी काफी घपले हैं। सविता ने घर-घर जाकर सारा डाटा तैयार किया और उन सबको ग्राम पंचायत सचिव और सीडीओ को थमा दिया। इसका पता चलते ही गाँव और मेरे घर में हड़कंप मच गया।

सविता बताती है कि सब लोग तनाव में आ गए। मैंने मिड डे मील बनाने वाले एक स्थानीय एनजीओ को तत्काल हटाकर एसएचजी की महिला समूहों को आगे किया और राशन वितरण प्रणाली के संचालन में पंचायत की भूमिका पर सवाल उठाते हुए मैंने एसएचजी के हाथ में संचालन का जिम्मा दिया। ग्राम सभा की कोरम पूर्ति और स्कूल के शिक्षकों की मनमानी पर कलेक्टर तक जांच करवा कर उसे हटाया गया। इससे  गांव में तूफान आ गया। मेरे खिलाफ शिकायतें हुईं। जब जांच दल आया तो पुरुषों ने सरपंच का साथ दिया और महिलाओं ने मेरा।’  सविता हँसती है –‘लेकिन इसके बाद भी लगातार लोग चरित्र प्रमाण जारी करते रहे और मैं उसे इन एसएचजी समूहों को भेजती रही।’

“सविता ने 2003  में बरलिया ग्राम पंचायत की मुखिया का चुनाव भी लड़ा और सबसे ज्यादा मतों से जीत हासिल की। वह  2006 तक ग्राम पंचायत बरलिया की मुखिया रहीं। ऐसे में उनके घर वालों और अन्य ब्राह्मणों को यह उम्मीद थी कि यह अपनी लड़की है और केवल हमारे हित में काम करेगी। लेकिन सविता तो बिलकुल उलट निकली। जैसे ही उसने शपथ लिया वैसे अपनी ग्राम सभा को मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं की समीक्षा शुरू कर दी।”

राजेश त्रिपाठी और जनचेतना का साथ 

रायगढ़ में सविता रथ और राजेश त्रिपाठी के संघर्षों का एक पूरा दौर है। ऐसे फटेहाल लेकिन समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता बहुत कम होते हैं जो किसी लाभ-लोभ से अलग जनता के बीच काम करते जाएँ। राजेश को अपनी मोटरसाइकिल में तेल और दो-चार गुटखे मिल जाएँ तो बाकी चीजों की कोई चिंता नहीं। इन दोनों ने रायगढ़ में जितना समय दिया है वैसे में दोनों चीजें लंबे समय के लिए राजेश को उधार मिल जाया करती हैं। सविता हालांकि गुटखे आदि का शौक नहीं रखती लेकिन जनचेतना की व्यवस्था और वक्त जरूरत पर उसे भी उधार का संकट नहीं था। लोगों को इन पर भरोसा था कि न ये भागने वाले हैं और न रास्ता बदलने वाले।

राजेश से सविता की मुलाक़ात रायपुर में ज्यां ट्रेज की पदयात्रा के दौरान हुई थी। उसने देखा कि एक बड़े सभागार में लोगों की भारी भीड़ के बीच राजेश धाराप्रवाह अपनी बात रख रहे थे। उन्होंने राबो डैम के कारण होनेवाले विस्थापन का सवाल उठाया। इसमें एक औद्योगिक घराने की संलिप्तता और प्राकृतिक संसाधनों की लूट को लेकर राजेश ने प्रशासन की संदिग्ध भूमिका को सामने रखा। हालांकि सविता उन्हें पहले से, साक्षरता अभियान के समय से ही, जानती थी लेकिन सुना नहीं था। उसके लिए विस्थापन, पुनर्वास, जनसुनवाई जैसे शब्द नए थे।

रायगढ़ में औद्योगिक लूट, अवैध खनन और किसान-मजदूरों के पक्ष में बोलते हुए जनचेतना के राजेश त्रिपाठी

पदयात्रा में सविता ने रायपुर से अंबिकापुर भागीदारी की और राजेश से साथ काम करने का आग्रह किया। वह बताती है कि ‘मुझे नये तरीके से अपनी समझ बढ़ाने का मौका मिला। एनजीओ अथवा किसी एक मुद्दे से बंधकर काम करने की मेरी फितरत कभी नहीं रही। मैं बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभाव पर समझ विकसित करने के लिए ही इसमें शामिल हुई थी। मेरी समझ बहुत ही कम थी।’

‘उन्हीं दिनों जनचेतना के गठन का निर्णय लिया गया। राजेश के पुराने साथियों ने एक सामुदायिक वैचारिक  समझ वाले बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं, विषय विशेषज्ञों और मीडिया से जुड़े लोग थे। यह कोई एनजीओ नहीं था बल्कि जनता से जुड़े मुद्दों पर पूरी ताकत से लड़नेवाला समूह था। मुझे यहाँ बहुत अधिक काम करने का मौका मिला। अनेक संवेदनशील मुद्दों और मानवाधिकार पर मेरी समझ बनी।’

जनचेतना ने रायगढ़ में औद्योगिक लूट, अवैध खनन और किसान-मजदूरों के पक्ष में लगातार काम किया है। सविता ने जनचेतना के साथ अपने को पूरी तरह जोड़ दिया। इस संस्था का निर्माण गैर लाभकारी संस्था के रूप में हुआ था। किसी समुदाय के अंतिम व्यक्ति के हित में गाँधीवादी तरीके से शोषण और दमन के खिलाफ न्याय आवाज को बुलंद करना था।  वहीं महिला नेतृत्व को आगे लाकर व्यापक पैमाने पर तत्कालीन मुद्दों पर समझ और सामूहिक निर्णय क्षमता को बढ़ावा देने की परिकल्पना थी।

राजेश त्रिपाठी ने 1990-91 से ही जागरूकता अभियान शुरू किया था और अनेक अध्ययनों के बाद जनचेतना ने अपनी जनपक्षधर गतिविधियों की शुरुआत की। लेकिन वंचित समुदायों के लिये काम करने वाले साथियों का समर्पित समूह होने के बावजूद संस्था के पास अपना एक कंप्यूटर तक नहीं था। जबकि वह समय कम्प्यूटर क्रांति का था। जरूरी संदेशों, मेल आदि को भेजने-मंगाने और दस्तावेजों को संकलित करने के लिए कंप्यूटर बहुत जरूरी था। इसके लिए भी एक साथी की तलाश थी। इसी खोज में सत्यम कम्प्यूटर के संचालक के रूप में रमेश अग्रवाल संपर्क में आएं।

रमेश अग्रवाल जिन्हें पर्यावरण के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार गोल्डमैन एवार्ड से नवाजा गया

इसके बाद जनचेतना के विचारों जमीन जागरूकता तथा अध्ययनों से निकले आंकड़ों से अधिकाधिक मजबूत होती गई। सविता बताती हैं कि वह स्वयं बहुत सक्रियता से जनचेतना के कामों में लगीं और एक लंबे संघर्ष के बाद इस संस्था की एकदम अलग पहचान कायम होती गई।

जन आंदोलनों को दिशा देने के लिये जनचेतना रायगढ़ ने एक बड़ी लड़ाई लड़ी है और लगातार लड़ाई जारी है। विकास के नाम पर विस्थापन, बहिष्कार, वन अधिकार, पेसा कानून को लेकर जन जागरूकता अभियान, जनसुनवाई की एकतरफा कार्रवाइयों के खिलाफ जनमत तैयार करने सहित 2 अक्तूबर 2012 में कोयला सत्याग्रह जैसे बड़े आंदोलन में जनचेतना की भूमिका अग्रणी है। इन सभी में सविता ने हर तरह से जोखिम लेकर काम किया।

कोयला सत्याग्रह में एकत्रित आदिवासियों को संबोधित करते हुए

ज़ाहिर है कि कोर्ट में और आमने-सामने की इन लड़ाइयों के कारण सविता, राजेश और रमेश अग्रवाल जैसे साथी दुश्मनों के हमलों के भी शिकार हुये। कागजों की लड़ाई और संगठनात्मक जमीनी लड़ाई जनचेतना ने  कोर्ट केस में जीत हासिल की। लेागों के हकों को दिलाने में सफलता पायी। जिदंल उद्योग के विरोध में किये गये कोर्ट केस के कारण 7 जुलाई 2011 को दिन के पौने बारह बजे जिंदल प्रबंधन ने दहशत फैलाने के लिये सत्यम कम्प्यूटर के दफ्तर में रमेश अग्रवाल पर गोली चला दी। यह दरअसल अग्रवाल की हत्या का प्रयास था। गंभीर रूप से घायल अग्रवाल लंबे तक अस्पताल में रहे और जीवन भर के लिए बैसाखी के सहारे आ गए। बाद में उन्हें पर्यावरण के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार गोल्डमैन एवार्ड से नवाजा गया।

जन आंदोलनों को दिशा देने के लिये जनचेतना रायगढ़ की एक बड़ी लड़ाई कोयला सत्याग्रह, जिसकी अगुवाई करते हुए सविता रथ

रायगढ़ कभी छूट न सका

सविता के सामने कई बार बाहर जाकर दूसरे संगठनों के साथ काम करने का ऑफर मिला लेकिन रायगढ़ से जाने का मन न हुआ। सविता बताती हैं कि ‘मैं जाती तो सबसे पहले मुझे गरीबी से छुटकारा मिल जाता। यहाँ कोई नियमित आमदनी नहीं थी। जैसे-तैसे काम चल रहा था। रायगढ़ में मे एक तो काफी महत्वपूर्ण मुद्दों पर मेरा काम रहा है । साथ ही स्थानीय होने के कारण यहाँ की भाषा-बोली मेरे खून में प्रवाहित थी। एक मन होता कि निकाल जाऊँ लेकिन फिर किसी न किसी कारण आगे जाने का विचार ही गायब हो जाता।’

रायगढ़ को लेकर सविता में एक गहरा, प्यार और पागलपन था। वह किसी अन्य शहर या राज्य से उसकी तुलना करती तो भी उसे रायगढ़ बेहतर समझ में आता। अंततः उसे लगा कि उसने अब तक जिन लोगों के लिए और जिनके साथ काम किया है, रायगढ़ छोड़ना उनके साथ धोखा होगा। फिर उसने हमेशा के लिए रायगढ़ से बाहर जाने का विचार त्याग दिया।

सविता बताती है कि ‘मुझे रायगढ़ की बोली-भाषा, खान-पान, पहनावा सबकुछ सम्मोहित करता है। यहीं रहकर मैंने ढेरों सपने देखे और अनेक आँखों में सपने बोये भी। अब अपने निजी लाभ और पहचान के लिए उन सबको धोखा नहीं दे सकती थी। आखिर मेरे ऊपर किए गए उनके भरोसे का क्या होगा। यह तो बेवफाई होगी।’ वह हँसते हुये कहती है ‘इस शहर के प्यार में गिरफ्तार होकर रह गई हूँ।’

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।
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