दिल्ली विश्वविद्यालय शैक्षिक भेदभाव के मामले में आये दिन सुर्ख़ियों में बना रहता है। उसका यह भेदभाव चाहे प्रोफेसर पद की चयन प्रक्रिया में दलित, पिछड़े एवं आदिवासियों का ‘नॉट फाउंड सूटेबल’ के रूप में हो या फिर ओबीसी के विद्यार्थियों को छात्रावासों में 27% सीटों पर एडमिशन न देकर जारी रहता है। डीयू ऐसे ही तमाम तरीकों से पिछड़े समाज के विद्यार्थियों के साथ भेदभाव करता रहता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय देश की राजधानी दिल्ली में स्थित है। इसमें पढ़ने के लिए देश के कोने-कोने से छात्र आते हैं। इसमें एडमिशन अनारक्षित, अन्य पिछड़ा वर्ग, आनुसुचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं सुदामा कोटे के तहत दिया जाता है। लेकिन डीयू के छात्रावासों में पिछड़ों और दरिद्र सवर्णों या सुदामा कोटा वालों के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं है। पिछड़ों को सवर्ण प्रोवोस्ट और वार्डेन छात्रावास में कमरे आवंटित नहीं करते हैं जबकि सवर्णों को जाति, जनेऊ, जुगाड़, टीका एवं एंटीना देखकर कर देते हैं।
डीयू के छात्रावासों में संविधान लागू होने के 74 वर्ष बाद भी पिछड़ों के लिए 27% आरक्षण लागू नहीं है। इसमें केवल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का आरक्षण लागू है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 27% ओबीसी आरक्षण के तहत पिछड़े वर्ग के छात्रों का एडमिशन कर लिया जाता है जबकि उन्हें छात्रावासों में मिलने वाली 27% सरकारी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है। यह खेल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से प्रेरित कुलपति प्रोफेसर योगेश सिंह की देखरेख में किया जाता है, जिस पर डीयू के मनुवादी एवं ब्राह्मणवादी प्रोफेसर फूले नहीं समाते हैं।
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डीयू के मानसरोवर छात्रावास में एडमिशन के लिए कुल 102 सीट निकाली जाती है, जिसमें सामान्य, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं दिव्यांग श्रेणी के तहत कुल 95 छात्रों का एडमिशन पहली सूची में किया जाता है। इस सूची में 27% पिछड़े छात्रों का हक़ ओबीसी आरक्षण लागू न होने की वजह से डीयू प्रशासन लील लेता है। इसके प्रोवोस्ट प्रोफेसर सुरेन्द्र सिंह और वार्डेन डॉ. नेत्रनंदा साहू हैं, जो कुलपति प्रोफेसर योगेश सिंह एवं कुलाधिपति जगदीप धनखड़ के मार्गदर्शन में पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए डीयू के छात्रावासों में 27% ओबीसी आरक्षण लागू नहीं कर रहे हैं।
ग्वयेर हॉल छात्रावास में 64 छात्रों का एडमिशन किया जाता है। इसमें भी ओबीसी आरक्षण लागू नहीं है। पिछड़े समाज के छात्रों के साथ यह भेदभाव कब तक किया जाएगा? इसके प्रोवोस्ट प्रोफेसर गजेन्द्र सिंह और वार्डेन डॉ. कमाखिया नरैन तिवारी हैं।
डी. एस. कोठारी छात्रावास में 33 छात्रों का एडमिशन किया जाता है। इस छात्रावास में भी ओबीसी आरक्षण के तहत एक भी ओबीसी छात्र का एडमिशन नहीं किया जाता है। इसके प्रोवोस्ट प्रोफेसर आशीष रंजन और वार्डेन डॉ. हेमंत कुमार सिंह हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजवादी, मार्क्सवादी, अम्बेडकरवादी एवं मनुवादी विचारधारा के प्रोफेसर पढ़ाते हैं। प्रोफेसर लोग मूलतः शिक्षक हैं। लेकिन सभी का झुकाव किसी न किसी विचारधारा के प्रति खुलकर रहता है। ये सभी मिलकर पिछड़े समाज के छात्रों को मिलने वाली सरकारी सुविधाओं का क़त्ल खुलेआम करते हैं।
छात्रावासों में ओबीसी आरक्षण की माँग करने वाले प्रोफेसर दिखावा के लिए एक पत्र कुलपति को लिखते हैं और ईमेल करते हैं, जिसका जवाब कुलपति की तरफ से कुछ नहीं आता है और न ही ओबीसी आरक्षण लागू होता है जबकि कुछ छात्रावासों में सुदामा कोटा रातोरात लागू कर दिया जाता है। यह है प्रोफेसरी जीवन की महिमा और उसका शैक्षिक भोग-विलास।
बिना अवसर के योग्यता नहीं निखरती है। यह पिछले दो साल में दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग 4700 असिस्टेंट प्रोफेसर के चयन में भलीभांति दिखाई देती है। कारण यह है कि जितनी सुविधा, सुगमता, सहजता और आसानी छात्रावास में रहने वाले छात्रों को प्रोफेसर का नौकर, सेवक, चरण-चुम्बक, सहायक बनने में होती है, उतनी किराये पर कमरा लेकर रहने वाले छात्रों को नहीं क्योंकि छात्रावास में रहने वाले छात्रों को न तो सब्जी खरीदनी होती है और न ही खाना बनाना होता है जबकि किराये पर रहने वाले छात्रों को यह सब करना होता है इसलिए छात्रावास में रहने वाले छात्रों को प्रोफेसरों की घरेलू सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है।
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यही सेवा छात्रावास वाले छात्र किये रहते हैं, जिन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर पद वाली मेवा उनके मालिक, आका, गॉडफादर, गॉडमदर जैसे प्रोफेसर जोड़-तोड़, जुगाड़ एवं तिकड़म से पकड़ा देते हैं। इस खेल को देखते हुए ‘संतोषम परम सुखं’ वाली प्रतिभा ‘मौनं स्वीकृति लक्षणं’ का जाप करने लगती है जबकि ‘मांगे सबकी खैर’ वाली प्रतिभा अभ्यास के सहारे ‘व्याकुल मन’ से जितना प्रोफेसरों से सीखी रहती है, उतना समाज को लौटाने का कार्य करती है।
इस व्यवस्था के जन्मदाता सवर्ण रहे हैं इसलिए सवर्ण छात्र इसका भरपूर फायदा उठाते हैं। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शासित भाजपा सरकार डीयू के छात्रावासों में ओबीसी आरक्षण लागू नहीं करती है, जो कुलपति जितना ज्यादा पिछड़े वर्ग के छात्रों का दमन करता है उसका उतना ही विकास भाजपा सरकार करती है। इसलिए बहुत-से विश्वविद्यालयों के कुलपति राज्यपाल बनने की मंशा पाल लेते हैं।