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ग्राउंड रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश में निवेश : सपने और ज़मीन की लूट की हक़ीकत को जागकर देखने की जरूरत है

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रदेश में तीस लाख करोड़ के निवेश को दावे को पेड मीडिया ने जितने जोर-शोर से प्रचारित करना शुरू किया उतनी शिद्दत से इस निवेश के कारण किसानों की ज़मीनों की लूट और हड़प की मंशा पर विचार नहीं किया गया लेकिन अयोध्या में हुई ज़मीनों की लूट और प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में विभिन्न योजनाओं के लिए कि सानों की ज़मीन औने-पौने में हथिया लेने की चालाकियों ने लोगों के कान खड़े कर दिए हैं। इस निवेश की सचाई बहुत भयावह है। उत्तर प्रदेश में भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी स्थितियों और गतिविधियों पर मनीष शर्मा की यह खोजपूर्ण रिपोर्ट।

पिछले दिनों अयोध्या में जमीन खरीद की हैरत में डालने वाली खबरें आने के बाद से, जमीन का सवाल उत्तर प्रदेश में, बहस के केंद्र में आ गया था। आस्था में अंधा कर, लंबे समय से किस-किस तरह के धंधे किए जा रहे हैं, इस पर जनता ने अब उंगली रखना शुरू कर दिया है।

विकास की बात कर उत्तर प्रदेश में, किसका और कहां-कहां विनाश करने की तैयारी चल रही है, इस पर नागरिक व राजनीतिक विपक्ष का ध्यान जाने लगा है।

ठीक-ठीक कहिए तो उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार की दिशा ही पलट दी गई है। कारपोरेट जमींदारों को खड़ा करने और भूमिहीनता को विस्तारित करने की तैयारी जोर-शोर से चल रही है। हमें इन सब पहलूओं पर अब खुलकर बात करने की जरूरत आन पड़ी है।

अयोध्या में आस्था : धंधे के फंदे में

पिछले सात सालों से अयोध्या में सर्किल रेट बढ़ने ही नहीं दिया गया। 2019 से ही यानि मंदिर के पक्ष में फैसला आने के बाद से ही क्या नेता, क्या अधिकारी, क्या उद्योगपति, सबने सैकड़ों एकड़ जमीनें औने-पौने दामों में खरीदीं।

यूपी एसटीएफ के प्रमुख से लेकर हिमाचल प्रदेश के डिप्टी सीएम, अडानी की कंपनी, यूपी शिक्षा विभाग के संयुक्त निदेशक, रेलवे के डिप्टी चीफ इंजीनियर, एडिशनल एसपी अलीगढ़, यूपी के एक पूर्व डीजीपी, प्रधान कार्मिक अधिकारी उत्तर मध्य रेलवे जैसे लोगों के लिए सर्किल रेट को बढ़ने से रोककर रखा गया। जबकि इसी दौरान अगल-बगल के सभी जिलों में सर्किल रेट स्वाभाविक रूप से बढ़ता रहा, लेकिन केवल अयोध्या में इसे रोक कर, किसानों को करोड़ों की चपत लगाई गई।

जिस दौर में पूरे उत्तर भारत में नागरिकों को राम मंदिर के नाम पर आस्था की अंधी गली में ढकेला जा रहा था, ठीक उसी दौर में राममंदिर के आस-पास 15-20 किलोमीटर के दायरे पर धंधेबाजों द्वारा कब्जा भी किया जा रहा था। आस्था के इलाके को प्राइम रियेल एस्टेट लोकेशन में तब्दील किया जा रहा था।

स्थानीय नागरिकों के सैकड़ों घरों और दुकानों को भी नये लोकेशन के हितों को ध्यान में रखते हुए शिकार बनाया गया।

अयोध्या में सड़क विस्तारीकरण के लिए हुई तोड़फोड़
फोटो साभार – गूगल

बनारस : विकास या किसानों का विनाश

वाराणसी में भी हाइवे और रिंग रोड के आस-पास के इलाके तथाकथित विकास के निशाने पर हैं। पूरे के पूरे ग्रामीण बनारस को विकास की योजनाओं ने आतंकित कर रखा है। बनारस प्रशासन शासन की शह पर भूमाफियाओं की तरह पेश आ रहा है।

किसानों की सहमति-असहमति को दरकिनार कर आधा दर्जन के करीब नये टाउनशिप बनाने का ऐलान कर दिया गया है। ग्राम सभा और भूमि संबंधी मामलों को देखने वाली समिति से भी पूछने की ज़हमत नहीं उठाई गई।

5000 से ज्यादा काश्तकारों को नोटिस थमा दी गई है, यानि अब वे अपनी जमीन बेच या खरीद नही सकते हैं। हर एक टाउनशिप में 10-12 गांवों की अधिकतर जमीनें चली जाएंगी।

जैसे काशी द्वार योजना के तहत चकइंदर, जद्दूपुर, पिंडरा, पिंडराई, बहुतरा, बसनी, बेलवां, पूरा रधुनाथपुर, कैथौली, समोगरा जैसे गांवों की ज्यादातर जमीनें और बहुत सारे घरों को भी ले लिया जाएगा।

उसी तरह बनारस के सारनाथ इलाके में वैदिक सिटी टाउनशिप के तहत भी हसनपुर, पतेरवां, सिंहपुर, सथवां और हृदयपुर जैसे बड़े-बड़े गांवों की भी अधिकतर जमीनें ले ली जाएंगी।

वर्ल्ड सिटी के नाम पर बझियां, बिशुनपुर, देवनाथपुर, हरहुआं, इदिलपुर, मिर्जापुर, प्रतापपट्टी, रामसिंहपुर, सिंहापुर, वाजिदपुर आदि गांवों की कृषि भूमि और और बहुत सारे आवासीय इलाकों को नोटिस थमा दिया गया है।

रिंग रोड फेज दो के दोनों तरफ़ वरुणा विहार सिटी एक व दो के लिए भी किसानों को नोटिस जारी किए जाने के खिलाफ कैलहट, भगतुपुर,  कोइराजपुर, गोसाईपुर अठगांवा, लोहरापुर, गोसाईपुर, वीरसिंहपुर, सरवनपुर, वाजिदपुर, सहाबुद्दीनपुर, रामसिंहपुर, सिंहापुर, देवनाथपुर जैसे गांवों में आंदोलन अभी भी जारी हैं।

अयोध्या की ही तर्ज पर वाराणसी में भी इन सभी 50-60 गांवों के सर्किल रेट को बढ़ने से रोक दिया गया है, यानि इस वर्ष नया सर्किल रेट लाया नहीं गया। यहां भी मनमाने रेट पर भूमाफियाओं वाले अंदाज में किसानों को औने-पौने दामों पर अपनी कीमती ज़मीन बेचने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

और ठीक इसी तर्ज पर शहर के अंदर भी गांधी विचार के ऐतिहासिक केंद्र सर्व सेवा संघ को तो अवैध घोषित कर हड़प लिया गया, और विश्वनाथ कारिडोर के नाम पर भी बहुत कुछ बर्बाद कर दिया गया। अब गंगा, वरुणा और असि के किनारे की जमीनें भी निशाने पर हैं।

हालांकि इस लोकसभा चुनाव में जनता ने पलट कर जबाब दिया है। प्रधानमंत्री मोदी खुद हारते-हारते बचे हैं। बावजूद इसके अभी भी सत्ता के रुख़ में बदलाव होना बाकी है

33 लाख करोड़ का निजी निवेश, किसकी क़ीमत पर

जैसे मोदी जी 5 ट्रिलियन आकार वाली अर्थव्यवस्था का नारा दे रहे हैं उसी तरह योगी आदित्यनाथ भी उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को 1 ट्रिलियन डॉलर तक ले जाना चाहते हैं। इसी योजना के तहत लखनऊ में 10 फरवरी 2023 को एक वैश्विक बिजनेस समिट का भव्य आयोजन किया गया।

प्रधानमंत्री ने इसका उद्घाटन करते हुए कहा कि देश के ग्रोथ का इंजन बनने की क्षमता रखता है उत्तर प्रदेश। 40 देशों के 600 प्रतिनिधियों की भागीदारी का दावा किया गया। उत्तर प्रदेश सरकार के प्रवक्ता ने यह भी दावा किया कि 33 लाख करोड़ पूंजी निवेश के प्रस्ताव आए और 18650 समझौता ज्ञापनों (एमओयू) पर साइन किए गए।

भविष्य में होने वाले इस निवेश का 45 फीसदी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तथा लगभग 29 फीसदी पूर्वांचल के इलाके में खर्च होगा। मध्य क्षेत्र व बुंदेलखंड में भी 13-13 फीसदी निवेश की संभावना जताई गई है।

अगर इस निवेश के प्रस्ताव को वास्तव में अमल में लाने की कोशिश की गई, तो इसके मूल निशाने पर होंगी हजारों एकड़ खेती की जमीनें, क्योंकि इनमें से 60 फीसदी प्रस्ताव एग्रीकल्चर पर फ़ोकस है।

जमीनें पहले से ही इकठ्ठा करके रखने की तैयारी जोर-शोर से, शासन-प्रशासन के स्तर पर तेज़ कर दी गई है। सभी जिला अधिकारियों को सख्ती से बोल दिया गया है कि ज्यादा से ज्यादा लैंड बैंक तैयार रखें और उद्यमी की मांग को तत्काल पूरा किया जाए।

इधर वाराणसी,  सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली में येन-केन-प्रकारेण, भूमि अधिग्रहण को सत्ता ने अभियान में तब्दील कर दिया गया है। उसी तर्ज़ पर पश्चिमी ज़ोन व बुंदेलखंड इलाके में भी इस दिशा में रफ्तार बढ़ा दी गई है।

काशी द्वार परियोजना का विरोध

विशेष आर्थिक क्षेत्र के निशाने पर लाखों एकड़ ज़मीनें

अमेरिकी सलाहकार कंपनी डिलाइट ने योगी सरकार को सलाह और योजना दी है कि यूपी की अर्थव्यवस्था को 1 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था में बदला जा सकता है। इसी सलाह को अमल में लाने के मकसद से चार नए विशेष आर्थिक क्षेत्रों का चयन किया गया है।

ये जिले प्रयागराज, अलीगढ़, उन्नाव और झांसी होंगे। इन जिलों के चयन के पीछे की वज़ह है, इनका किसी न किसी हाइवे के पास होना।

ये हाइवे हैं, यमुना एक्सप्रेस-वे, निर्माणाधीन गंगा एक्सप्रेस-वे और बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे, जिनके आस-पास ही इन सारे विशेष आर्थिक क्षेत्रों का निर्माण किया जाना तय हुआ है।

नवउदारवादी दौर में और खासकर मोदी-योगी काल में यह आम चलन है कि पहले जनता के विकास के नाम पर किसानों की जमीन छीन कर एक्सप्रेस-वे बनाए जाते हैं, फिर उसके अगल-बगल की जमीनें भी किसानों के पास नहीं रहने दी जाती हैं। वह भी छीन ली जाती हैंऔर बेशर्मी से चहेते पूंजीपतियों को सौंप दी जाती हैं।

यानि समाज के नाम पर जमीन छीनों और बाज़ार के हवाले कर दो। उत्तर प्रदेश में भी यही हो रहा है।

बताया जा रहा है कि सबसे पहले बुंदेलखंड झांसी में इस योजना को अमल में लाया जाएगा, फिर इन चारों इलाकों की ज़मीनें येन-केन प्रकारेण छीनी जाएंगी और इन पूंजीपरस्त योजनाओं को हर हाल में अमल में लाया जाएगा।

इस पूरी योजना के लिए 0.81 लाख करोड़ रुपए के निवेश की बात की जा रही है और 1.2 लाख एकड़ जमीनें किसानों से लेकर कारपोरेट पूंजी को सौंप दी जाएगी।

अभी बस आप कल्पना कर सकते हैं कि आने वाले समय में कितनी तबाही खेती-किसानी के लिए आने वाली है?

एनसीआर की तर्ज़ पर एससीआर व वृहद बनारस की योजना के पीछे क्या है मकसद

एनसीआर यानि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की ही तर्ज पर, लखनऊ को केंद्र कर अब एससीआर यानि राज्य राजधानी क्षेत्र के निर्माण का फैसला भी योगी सरकार ने कर लिया है। राज्यपाल से अनुमति लेकर एक अधिसूचना भी जारी कर दी गई है और उत्तर प्रदेश राज्य राजधानी क्षेत्र विकास प्राधिकरण का गठन भी कर लिया गया है, जिसकी अध्यक्षता खुद मुख्यमंत्री योगी करने जा रहे हैं।

लखनऊ के साथ-साथ हरदोई, सीतापुर, उन्नाव, रायबरेली और बाराबंकी जिले को भी इस योजना से जोड़ा जाएगा।

सरकार का कहना है कि इस योजना से यूपी की अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी और अनियोजित विकास से मुक्ति भी, पर हम सब जानते हैं कि यूपी में कोई भी योजना जो विकास के नाम पर आ रही है उसके केंद्र में जमीन की लूट ही होती है और इस योजना में भी यही हो रहा है।

शुरुआती चरण में ही 27860 वर्ग मीटर जमीन के अधिग्रहण का फैसला ले लिया गया है और इसे अमल में लाने की कवायद भी तेज कर दी गई है।

राज्य राजधानी क्षेत्र की तर्ज़ पर वृहद बनारस की योजना भी तैयार की जा रही है। नीति आयोग की टीम बनारस का दौरा कर चुकी है, योजना को ठोस शक्ल देने के लिए एक सक्षम टीम का गठन भी कर लिया गया है।

चंदौली, गाजीपुर, मिर्जापुर, जौनपुर, भदोही और सोनभद्र  को मिलाकर वृहद बनारस बनाने की योजना के केंद्र में भी ज़मीन ही है। सभी हाइवे और रिंग रोड के आस-पास के जमीनों का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण करने की योजना पर काम शुरू कर दिया गया है। इसके लिए नोडल अधिकारी के बतौर वाराणसी के मंडलायुक्त का चयन भी कर लिया गया है। ऐसा लग रहा है कि जल्दी ही समूची योजना भी सामने आ ही जाएगी।

ग्रामसभा की जमीनों को क्यों मुक्त कराना चाहती है सरकार

योगी सरकार, केंद्र सरकार के सहयोग से ‘स्वामित्व योजना’ पर काम करने जा रही है, जिसके तहत ग्राम सभा के अंतर्गत आने वाली निजी और सार्वजनिक परिसंपत्तियों का चिन्हिकरण कर, डिजिटली दर्ज किया जाएगा।

पहले चरण में उत्तर प्रदेश के 54000 गांवों को चिन्हित किया गया है, जहां यह योजना लागू की जाएगी। पायलट प्रोजेक्ट के तहत अभी बाराबंकी जनपद को चुना गया है। बताया जा रहा है इन गांवों की ड्रोन से निगरानी की जाएगी। निजी और सार्वजनिक परिसंपत्तियों को चिन्हित कर प्रमाण पत्र जारी किया जाएगा, ताकि निजी मकान और आबादी आदि के आधार पर लोन आदि लिया जा सके और सार्वजनिक तालाब, खलिहान या अन्य सार्वजनिक परिसंपत्तियों को कब्जे से आजाद कर सामूहिक उपयोग में लाया जा सके।

सरकारी नजरिए से देखा जाए तो यह योजना निजी परिसंपत्तियों का सीमांकन कर, भूमि विवाद को कम करेगा और सार्वजनिक परिसंपत्तियों को निजी क़ब्ज़े से मुक्त कर सामूहिक उपयोग के मातहत ले आएगा।

पर पिछले व वर्तमान अनुभव बताते हैं कि सार्वजनिक परिसंपत्तियों को मुक्त कराने का अभियान हमेशा ही गांव-गांव, दलित-आदिवासी-अतिपिछड़े समाज और सभी गरीबों को उजाड़ने के अभियान में तब्दील होता रहा है।

और इस बार भी यही हो रहा है,यानि जिन सार्वजनिक जमीनों पर कई पीढ़ियों से दलित आदिवासी बसे हुए हैं, जिन पर कायदे से उनके नाम के पट्टे हो जाने चाहिए थे। उन्हीं को नये कानून का दुरुपयोग कर, उन्हें ही भूमाफिया बता कर, योगी सरकार द्वारा उजाड़ने का अभियान और तेज कर दिया गया है।

इस दौरान एक और कानून में परिवर्तन कर दिया गया है, उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता (तृतीय संशोधन) अधिनियम 2020 को मंजूरी दे दी गई है, जिसके चलते अब,विकास योजनाओं के लिए ग्रामसभा की जमीनों को लेना आसान कर दिया गया है।

यानि जिस जमीन के लिए पहले ग्रामसभा की भूमि प्रबंध समिति से अनुमति लेनी पड़ती थी, अब सीधे एसडीएम के प्रस्ताव पर डीएम के आदेश द्वारा अधिगृहीत किया जा सकता है, इसी कानून में एक और परिवर्तन कर, दलितों की जमीनों को खरीदना-हड़पना भी अब आसान बना दिया गया है।

इस पूरे घेरेबंदी के तहत, दबंग जातियों, वर्चस्ववादी ताकतों के कब्जे में जो सार्वजनिक परिसंपत्तियां है उन्हें तो छुआ भी नही जा रहा है।

पर नट-मुसहर समाज या दलितों को आवंटित पट्टे की जमीनों या प्रजापति समाज को मिट्टी के लिए आवंटित जमीनों, खलिहान, पोखरे के किनारे बसे गरीबों आदि को बड़े पैमाने पर उजाड़ा जा रहा है।

और फिर इन नये अधिनियमों-कानूनों के जरिए ये जमीने या तो विकास के नाम पर कारपोरेट हाथ में चली जा रही है या फिर गांव के ही दबंग जातियों के कब्जे में आ जा रही हैं।

यह सिलसिला योगी सरकार के दौर में बेहद तेज़ गति से चल पड़ा है, पर राजनीतिक व नागरिक विपक्ष और खासकर सामाजिक न्याय या वर्ग संघर्ष की ताकतों का इस पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं है।

आदिवासियों को उजाड़ने का हथियार बन गया है वनाधिकार अधिनियम

लंबे संघर्ष के बाद 2006 में वन अधिकार अधिनियम को सरकार द्वारा लाना पड़ा। ,इसका मक़सद था, आदिवासियों को अतिक्रमण कर्ता के बतौर न देखा जाए,  बल्कि  सामुदायिक और व्यक्तिगत जमीनों पर उनके अधिकारों की गारंटी की जाए। जंगल पर आदिवासियों के परम्परागत अधिकारों को फिर से बहाल किया जाए।

पर लगभग 18 साल बाद भी यह लक्ष्य पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा है। पूरे देश में आदिवासियों की तरफ़ से, लगभग 50 लाख दावे किए गए, पर आदिवासियों के प्रति ख़ास नज़रिए के चलते, अधिकतर दावों को, हर जगह ख़ारिज़ किया गया।

जैसे पश्चिम बंगाल में 67 फीसदी, महाराष्ट्र में 63 फीसदी, मध्यप्रदेश में 59, दावों को बिना किसी घोषित प्रक्रिया में जाए बिना ही ख़ारिज़ कर दिया गया।

पर उत्तर प्रदेश, आदिवासियों के साथ ज्यादा निर्ममता से पेश आता रहा है। इसे आंकड़ों में भी देखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में केवल 20 फीसदी दावों को स्वीकार किया गया है और 80 फीसदी दावों को जो देश में सबसे ज्यादा है, ख़ारिज़ कर दिया गया है।

वनाधिकार अधिनियम के तहत सामुदायिक अधिकारों के दावों का भी मज़ाक बना कर रख दिया गया है।

2018 में केवल सोनभद्र के 32 गांवों ने सामुदायिक अधिकार का दावा किया था, पर इस मांग को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। इसी ज़िले से पचासों हजार व्यक्तिगत दावे भी ख़ारिज़ किए जा चुके हैं।

2019 में तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा,जिन दावों को सरकार ने ख़ारिज़ कर दिया है, उन आदिवासियों को अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया गया और उन जमीनों को ख़ाली कराने का आदेश भी दे दिया गया।

मोदी सरकार ने कोर्ट में कोई बचाव भी नहीं किया, बाद में बढ़ते जनदबाव के बाद सरकार को पुनर्याचिका करनी पड़ी, जिसके बाद कोर्ट का फैसला बदला और आदिवासी समाज को राहत मिली।

पर सरकार ने देशभर में और खासकर उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर आदिवासियों को उजाड़ना ज़ारी रखा है, जबकि वास्तविकता यह है कि वनाधिकार कानून के जिला स्तरीय समिति को दावे ख़ारिज़ करने का अधिकार ही नहीं है, वह रिव्यू के लिए उपखंडीय समिति या ग्राम सभा को वापस कर सकती है।

असल में वनाधिकार कानून एक विशेष कानून है, जिसमें सारे अधिकार ग्राम सभा में निहित है, चूंकि कानून में वन भूमि को राजस्व का दर्जा दिया जाना है और जिला प्रशासन को उसे मान्यता देना है।

इसलिए दावे प्रक्रिया में कोई कमी है तो जिला उन्हें ग्रामसभा को वापस कर सकता है लेकिन ख़ारिज़ नहीं कर सकता है।

इस कानून में खारिज करने का कोई प्रावधान ही नहीं है, कानून, वन भूमि पर अधिकार को मान्यता देने का है, खारिज करने का बिल्कुल नहीं। बावजूद इसके आदिवासियों की उनकी जमीनों से बेदखली अभियान अभी भी युद्धस्तर पर जारी है।

किस तरह के संकट में फंसेगा उत्तर प्रदेश

भूमि प्रश्न को, जो राजनीतिक ताकतें अप्रासंगिक प्रश्न मानने-जानने लगी थीं या पुराना पड़ चुका विचार समझने लगी थीं, उन्हें अपनी उदार समझ पर फिर से पुनर्विचार करना पड़ेगा।

भूमि प्रश्न पर ग़लत समझ के चलते ही, मुकम्मल भूमि सुधार की मांग जैसे-जैसे धीमी पड़ती गई है। वैसे-वैसे शासक वर्ग, उल्टे भूमि सुधार की ओर तेज़ रफ़्तार से बढता गया है।

उत्तर प्रदेश सरकार जितनी तेजी से, दर्जनों योजनाओं के माध्यम से, जमीन पर कारपोरेट व उसके सहयोगी वर्णवादी, सामंती नियंत्रण को बढ़ाने जा रही है, उससे आने वाले समय में उत्तर प्रदेश की जमीन व उसकी राजनीति पर बड़ी पूंजी व उसके सहयोगी ताकतों के नियंत्रण में गुणात्मक विस्तार होने जा रहा है।

यह भी गहन शोध का विषय है कि भूमिहीनता और भुखमरी का भूगोल कितना विस्तार लेने जा रहा है। चरम विपन्नता, सामाजिक भेदभाव को कितने नए रूपों में निर्मित करने जा रहा है।

ख़तरनाक स्तर पर डेमोग्राफी में भी बदलाव होना तय है। प्रदेश से पलायन और बढ़ेगा। साथ ही खाद्यान्न संकट भी और बेहद गहरा होगा।

अगर समय रहते नागरिक और राजनीतिक विपक्ष ने गंभीर हस्तक्षेप नही किया तो  उत्तर प्रदेश,भारी संकट में पड़ने जा रहा है,जिसका असर मुल्क के हेल्थ पर भी पड़ना निश्चित है।

 

मनीष शर्मा
मनीष शर्मा
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बनारस में रहते हैं।

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