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ग्राउंड रिपोर्ट

जौनपुर : शादी की 40वीं सालगिरह पर बांटे 40 बक्सा पुस्तकालय, अतुल यादव रच रहे हैं सामाजिक चेतना का नया संसार

अतुल यादव विगत कई वर्षों से पढ़ने वाले तेज लेकिन आर्थिक रूप से विपन्न विद्यार्थियों के लिए किताबें मुहैया कराते आ रहे हैं। वह बताते हैं कि हर साल सेशन की शुरुआत में बच्चों को किताबें देते हैं और उनके अगली कक्षा में जाने के बाद उन्हें उस कक्षा की किताबें देकर पिछली किताबें लेते हैं और अन्य बच्चों को किताबें मुहैया कराते हैं।

आमतौर पर शादी की दसवीं, बीसवीं, चालीसवीं या पचासवीं सालगिरह को यादगार बनाने के लिए लोग लंबी यात्राएं और भव्य आयोजन करते हैं ताकि इस अवसर की खूब चर्चा हो और यह लंबे समय तक याद रहे। यह मौका निजी तौर पर व्यक्तियों की समझ और सरोकार का पैमाना तय करता है। अतुल यादव और उनकी पत्नी जीता यादव भी इसे अपने प्रियजनों के साथ एक यादगार मौका बना देते लेकिन उन्होंने इसे बिलकुल अलग अंदाज में सेलिब्रेट किया और अपनी शादी की चालीसवीं सालगिरह को बक्सा पुस्तकालयों की स्थापना की एक मुहिम में बदल दिया है।

बेशक यह एक प्रेरक और आकर्षक उदाहरण है कि डिजिटलीकरण के इस हिंसक और एकतरफा दौर में एक दंपत्ति किताबों के प्रति न केवल लोगों में राग पैदा कर रहा है बल्कि अपने पैसे से बक्सा-पुस्तकालयों की एक शृंखला भी बना रहा है। चालीसवीं सालगिरह पर चालीस किताबों से समृद्ध चालीस बक्से तो मात्र एक उदाहरण है जबकि अतुल यादव विगत कई वर्षों से पढ़ने वाले तेज लेकिन आर्थिक रूप से विपन्न विद्यार्थियों के लिए किताबें मुहैया कराते आ रहे हैं। वह बताते हैं कि हर साल सेशन की शुरुआत में बच्चों को किताबें देते हैं और उनके अगली कक्षा में जाने के बाद उन्हें उस कक्षा की किताबें देकर पिछली किताबें लेते हैं और अन्य बच्चों को किताबें मुहैया कराते हैं। हर साल किताबों की संख्या बढ़ती जाती है। यह ‘समाज को वापस लौटाने’ की उनकी भूमिका है। आइये जानते हैं कि अतुल यादव कौन हैं और उन्हें इससे क्या खुशी मिलती है?

जौनपुर जिले के सिकरारा ब्लॉक के ग्राम पाण्डेयपुर के मूलनिवासी अतुल यादव बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रशासनिक अधिकारी हैं और साहित्य तथा लोकसंस्कृति के गंभीर अध्येता और मर्मज्ञ हैं। अपने छात्रजीवन से ही वे लोकगीतों और गाथाओं के प्रति गहरी रुझान रखने लगे थे और इसी वजह से आकाशवाणी इलाहाबाद ने उन्हें लोकसंगीत कार्यक्रमों के निर्माण तथा लोककलाकारों से साक्षात्कार करने के लिए अनुबंधित कर लिया। उनसे लोकगीतों और सांस्कृतिक परंपरा पर कभी भी विचारोत्तेजक बात की जा सकती है। संगीत, इतिहास और दर्शनशास्त्र में गहरी दिलचस्पी रखनेवाले अतुल जी स्वयं सिद्धहस्त गद्यकार हैं और उनके लेखन में उनके अनुभव संसार का वैभव दिखता है। ज़ाहिर है इन खूबियों ने उन्हें अपने जीवन को अलग तरह से अनुशासित करने को प्रेरित किया। घर में बहुजन चेतना का कबीरी माहौल है और अब उनके घर का आलम यह है कि उनके बच्चों ने भी पिता की खूबियाँ ग्रहण कर ली हैं। लंबे समय तक पूजा-पाठ में लीन उनकी पत्नी अब जयभीम से अभिवादन करती हैं और अपने पति के सामाजिक निर्णयों में बराबर की भागीदार हैं। अतुल यादव कहते हैं कि ‘मैंने उन पर या बच्चों पर कोई दबाव नहीं बनाया। यह उनकी स्वतः प्रेरणा है।’

अतुल यादव को सामाजिक चेतना और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा अपने पिता शंभूनाथ यादव, जो गाँधी आश्रम में मुलजिम और खाँटी गाँधीवादी थे, से मिली जो अक्सर होम करते हुये अपने हाथ जला लिया करते थे। फिर भी दूसरों के लिए मुसीबत मोल लेने में वे कोताही नहीं करते थे। पिता की यह फितरत अतुल में भी आ गई। इसलिए जब वे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हुये तब उन्हें समाज की याद आई और सामाजिक न्याय का तक़ाज़ा था कि वे गाँव-गिरांव के विपन्न और मजबूर विद्यार्थियों को शिक्षा पाने में मदद करें और यही उन्होंने किया। यहीं से किताबों के दान में उनकी दिलचस्पी बनी।

अपने पिता से अटूट लगाव रखने वाले अतुल यादव ने 2001 में पिता का देहावसान होने के बाद उनकी स्मृतियों को ताजा बनाए रखने के लिए पुस्तकें दान करने का निर्णय कर लिया था। इसकी शुरुआत उन्होंने जनवरी 2015 में की। पिता के लगाव ने उन्हें अपने गाँव से अधिक दिन दूर नहीं रहने दिया और लखनऊ जैसे बड़े शहर का मोह छोड़-छाड़ वे अपने गाँव आ गए। बक़ौल अतुल यादव उनके कई मित्रों ने कहा कि ‘तुम अत्महत्या करने गाँव क्यों जा रहे हो?’

स्वयं अतुल जी को यह अहसास बहुत जल्दी हो गया कि गाँव में रहना बिलकुल आसान नहीं है। लेकिन वे फिर से शहर जाने के लिए गाँव नहीं लौटे थे और अपने अनुकूल माहौल बनाने का उनका संघर्ष आज भी जारी है। उन्होंने अपने जीर्ण-शीर्ण पैतृक मकान की मरम्मत कराई और सामूहिक सहयोग से गाँव के संपर्क मार्ग को ठीक कराया। अपने घर में पिता शंभूनाथ यादव की स्मृति में एक पुस्तकालय की नींव रखी। यह पुस्तकालय आज कई हज़ार से अधिक मूल्यवान पुस्तकों से सज्जित है। उन्होंने इसकी चाबी गांव के उन बच्चों को सौंप दी है जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। पुस्तकालय में नियमित रूप से समाचार पत्र, प्रतियोगी और जनरल नॉलेज की पत्रिकाएं, साहित्यिक पुस्तकें, संविधान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें मँगवाई जाती हैं।

गाँव में रहने पर अतुल जी को कई अन्य मूल्यवान अनुभव हुये। मसलन ढेरों बच्चे किसी प्रोत्साहन और उचित मार्गदर्शन के अभाव में अपनी रुचि के हिसाब से विषय और पाठ्यक्रम का चुनाव ही नहीं कर पाते। इसका परिणाम यह होता है कि जब तक उन्हें अपनी वास्तविक रुचियों का ज्ञान होता है तब तक समय बीत चुका होता है। इसके साथ ही उन्होंने पाया कि आर्थिक अभाव के कारण बहुत से बच्चे पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। ऐसे बच्चों के लिए उन्होंने किताबों और फीस के लिए अपने वेतन का एक हिस्सा सुनिश्चित किया।

अतुल बताते हैं कि वे बच्चों और युवाओं को पढ़ने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते थे। उनके शिक्षा कार्य में आर्थिक सहयोग भी प्रदान करने लगे। उनके इस कार्य से कई गरीब बच्चों को शिक्षा पूरी कर अपने पाँव पर खड़े होने की प्रेरणा मिली। वह कहते हैं ‘हम सबने समाज से बहुत कुछ पाया है लेकिन एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में समाज को वापस लौटाना (Pay Back To The Society) हमारा दायित्व ही नहीं धर्म भी है।’

अतुल यादव ने इस काम को केवल अपने गाँव तक सीमित नहीं रहने दिया बल्कि साल दर साल अपने काम का दायरा बढ़ाते रहे। मोबाइल और डिजिटल मीडिया के बढ़ते वर्चस्व के बीच केवल किताबें बांटना ही काफी नहीं है बल्कि बच्चों को विभिन्न कार्यों के जरिये प्रोत्साहित करना भी जरूरी है। उन्होंने महापुरुषों की जीवनियों और प्रेरक कथाओं पर संवाद की भी एक शृंखला शुरू की।

नए पाठकों की तलाश

अतुल यादव कहते हैं कि यह मेरे लिए उलझन पैदा करनेवाली बात है कि दस-दस लोग एक साथ बैठे हुये हैं और सब के सब अपने-अपने मोबाइलों में डूबे हुये हैं। न कोई संवाद न बहस-मुबाहसा। उल्टे अपनी समझ को दूसरे पर थोपने के लिए लोग बदतमीजी और गाली-गलौज तक पर उतर आते हैं। इसी उलझन ने उन्हें पाठकों का एक नया संसार तलाशने का सूत्र दिया।

जल्दी ही उन्होंने समझ लिया कि दरअसल लोगों तक किताबें अथवा बेहतर सामग्री पहुँच ही नहीं रही है। चूंकि किताबों और ज्ञान-विज्ञान का कोई विकल्प नहीं है इसलिए मोबाइल ने सारा स्पेस घेर लिया। इसी क्रम में उन्होंने पाया कि अस्पतालों और हेयर कटिंग सैलूनों में लोगों को लंबा इंतज़ार करना पड़ता है। ऐसे में या तो वे अपने मोबाइल में व्यस्त रहते हैं अथवा वहाँ लगे टीवी पर बोरियत भरे कार्यक्रमों अपने को लुगधाए रहते हैं।

अगर अस्पतालों और सैलूनों में किताबों से भरा एक बक्सा रख दिया जाय तो! भक्क से एक उम्मीद की रौशनी जली और अतुल यादव ने यह काम कर डाला। अबतक कई विद्यालयों, अस्पतालों, सैलूनों और गांवों को बक्सा पुस्तकालय की सौगात मिल चुकी है।

अतुल यादव के इस अभियान की सराहना करते हुए जौनपुर के वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण कुमार मिश्रा कहते हैं, ‘निश्चित तौर पर अतुल जी का यह अभियान एक सार्थक और साहसिक, सामाजिक, समाजोत्थान से जुड़ा हुआ अनूठा प्रयास ही कहा जाएगा, वरना आज की भागम भाग वाली जिंदगी में लोगों के पास समय कहां है, जो पुस्तकों के जरिए लोगों को जागरूक एवं पढ़ने के लिए प्रेरित करें।’

हिंदी भवन में किताबों का बक्सा देते हुए

अतुल यादव के पुस्तकालय खोलने के अभियान की सराहना कराते हुए वे आगे कहते हैं, ‘आज के मोबाइल युग में लोग, खासकर युवा वर्ग किताबों से दूर होता जा रहा है, जो बेहद चिंतनीय है। माना कि किताबी ज्ञान के साथ-साथ तकनीकी माध्यमों का भी ज्ञान आज के दौर में काफी अहम हो चला है, बावजूद इसके किताबों की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता है।’ वे आगे कहते हैं, ‘किसी को पुस्तक दान कर उसके सामाजिक ज्ञान की प्रगति के साथ ही साथ उसे शिक्षा संस्कार से जोड़ना एक महान कार्य है। अतुल यादव बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। उनके सहयोग और प्रेरणा से गावों में रहने वाले कई गरीब परिवार के बच्चों को किताबों के जरिए आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली है।’

मिश्रा की बातों का समर्थन करते हुए सिकरारा के उपेन्द्र नाथ सिंह ‘गांव के लोग’ को बताते हैं कि ‘पहले तो लोग मज़ाक उड़ाया करते थे कि कैसा अफसर है जो लोगों को किताब बाँटता फिरता है। लेकिन आज वही लोग गर्व से अतुल यादव के पुस्तकें दान करने के अभियान की सराहना करते हुए नहीं थकते हैं। प्रतियोगी पुस्तकों के अभाव में बड़ी संख्या में विद्यार्थी परीक्षा से पीछे हट जाया करते थे लेकिन अब उन्हें पीछे हटने नहीं बल्कि आगे बढ़ने का रास्ता मिला है तो भला वह अतुल जी के अभियान की सराहना कैसे न करें?’

जिस स्कूल में पढ़ाई की उसे गोद लिया

अक्सर लोग गांव से जब शहरों, महानगरों की ओर रुख करते हैं तो अपने गांव की माटी को भूल जाते हैं। उस ओर झांकना भी गंवारा नहीं समझते हैं। शहरी जीवन की उन पर ऐसी छाप पड़ती है कि वह अपने गांव-गिराव और नाते-रिश्तेदारों को भी भूल बैठते हैं, लेकिन अतुल यादव ऐसे लोगों से अलग हैं। वे न केवल गांववासी हैं बल्कि यहाँ के लोकजीवन में रचे-बसे भी हैं। कार्यदिवसों में कहीं भी रहें लेकिन छुट्टी का समय हमेशा गाँव में ही बिताते हैं।

अतुल यादव ने प्राथमिक विद्यालय बेलगहन से प्राथमिक शिक्षा पूरी कर आगे की ओर बढ़ते हुए शहरों की ओर रुख किया था। नौकरी लगने के बाद प्राथमिक विद्यालय बेलगहन को गोद लेते हुए यहाँ 101 किताबों का सेट और बुक सेल्फ भेंट कर बच्चों को मिनी पुस्तकालय की सौगात दी। उनके इस कार्य की लोगों ने बहुत सराहना की। इससे प्रेरित होकर वे निरंतर आगे बढ़ते गए।

इसी प्राथमिक विद्यालय में अतुल यादव और उनकी बेटी तपस्या यादव ने शिक्षा ग्रहण की, यहाँ पर उनके द्वारा बनाया गया मिनी पुस्तकालय
जब एक घटना ने झकझोर दिया

अतुल यादव कुछ नया करने और ज्यादा से ज्यादा पुस्तकों को बांटने की योजना में उलझे हुए थे कि अचानक एक घटना ने उन्हें पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया। हुआ यह कि पांडेयपुर गांव में ही एक व्यक्ति की मौत पर अतुल वे शोक संवेदना जताने गए थे। वहीं पता चला कि मृत व्यक्ति के दो बच्चे थे जिनके पास पढ़ने के लिए किताबें तक नहीं थीं। पिता की मौत हो जाने के बाद अब उन्हें किताबें कौन देगा? यह जटिल समस्या बनी हुई थी। जबकि घर के लोगों पर श्राद्ध करने का दबाव था।

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उस परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि वह बच्चों के पुस्तकें तक नहीं खरीद सकता था। कुछ दिनों बाद अतुल जी ने जरूरी किताबों का एक सेट खरीद कर उन बच्चों को दिया। इससे बच्चे बहुत खुश हो हुये। अतुल जी बताते हैं कि बच्चों की इसी मुस्कान ने उनका उत्साह और भी बढ़ा दिया। आज भी जब विद्यालय सत्र बदलता है तो अतुल यादव गांव में गरीब बच्चों को पुस्तक भेंट करना नहीं भूलते हैं।

वह कहते हैं कि पुस्तक भेंट करने से पहले विद्यार्थियों के परिवार के लोगों की जानकारी एकत्र करते हैं, उसके बाद ही किताबें देते हैं, ताकि वह किताबों का सदुपयोग करे। आमतौर पर अक्सर देखा जाता है कि महंगी से महंगी पुस्तक लेने के बाद भी लोग उनका ठीक ढंग से अध्ययन न कर उन्हें इधर-उधर फेंके रहते हैं। इससे न केवल ज्ञान का तिरस्कार होता है, बल्कि उन्हें भी इससे कष्ट होता है। इसलिए वह विद्यार्थियों का आंकलन करना नहीं भूलते हैं, ताकि उनका दान व्यर्थ न जाने पाए।

अब तक कुल 6 कालेजों को आलमारी सहित 101 किताबों का सेट प्रदान कर ‘मिनी पुस्तकालय’ के तौर पर लाभान्वित कर चुके अतुल यादव बताते हैं कि उनके द्वारा अब तक सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय, गुदरीगंज; पहल पुस्तकालय, नौपेड़वा; जनता जनार्दन इंटर कॉलेज, मेंहदीगंज; राधा कृष्ण इंटर कॉलेज, गुदरीगंज; पतिराजी शिवराम इंटर कॉलेज कुंवर्दा इत्यादि को मिनी पुस्तकालय की सौगात देने के साथ-साथ वह हर साल उन्हें पुस्तकों का सहयोग करना नहीं भूलते हैं।

इसी तरह वे अपने जन्मदिन पर भी पुस्तकें बांटते हैं। अपने शादी की 40वीं सालगिरह यानी 2023 में उन्होंने लकड़ी के बक्से में 40 किताबों के 40 सेट बनवाए। कुल 1600 किताबों में हिंदी साहित्य की उपन्यास, कहानी, यात्रा-वृतांत सहित अनेक विधाओं की रचनाएँ हैं। इन बक्सों को उन्होंने जौनपुर जिले के 40 स्थानों पर रखवाया है। जौनपुर, मिर्जापुर और  चंदौली के वृद्ध आश्रमों में भी इनके द्वारा पुस्तकों की मिनी लाइब्रेरी प्रदान की गई है।

वृद्धाश्रम में भी दी पुस्तकें।

अतुल यादव बताते हैं कि ‘पुस्तकालयों में बच्चों के मानसिक विकास से जुड़ी हुई पुस्तकें रखवाना मेरा मुख्य लक्ष्य है। इसी प्रकार नई-नहीं तकनीक से ग्रामीण प्रतिभाओं को लाभान्वित कराना, विज्ञान के जरिए उन्हें आगे बढ़ाने में प्रेरक पुस्तकें प्रदान करना, संविधान से जुड़ी हुई पुस्तकें देकर युवाओं को अपने मौलिक और संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक करना ही मेरा मकसद है।’

निर्गुण्ठ और वातावरण को हिला देनेवाले ठहाकों के स्वामी अतुल यादव तीन बच्चों के पिता हैं। उनकी बड़ी बेटी तपस्या मिश्रिख (सीतापुर) में तहसीलदार के पद पर कार्यरत हैं। जबकि दो बेटे आईआईटी दिल्ली से ग्रेजुएट होकर गुड़गांव में कार्यरत हैं। दामाद कैसरगंज, गोंडा में तहसीलदार के पद पर कार्यरत हैं। अतुल जी की शादी मात्र 15 साल की उम्र में हो गई थी लेकिन उनका दाम्पत्य गर्मजोशी और सामंजस्य से भरा हुआ है। उनकी पत्नी कंधे से कंधा मिलाकर उनकी मुहिम में शामिल हैं।

वह आसमान में सुराख करने का दावा नहीं करते लेकिन पूरी तबीयत से एक पत्थर उछालने में एक रत्ती भी पीछे नहीं हैं। वे देश और समाज के अच्छे भविष्य की उम्मीद से भरे हैं। उनका सपना है कि उनके गांव में एक भव्य पुस्तकालय का निर्माण हो जो पूरे जिले में एक अद्भुत पुस्तकालय के रूप में जाना जाए।

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संतोष देव गिरि
संतोष देव गिरि
स्वतंत्र पत्रकार हैं और मिर्जापुर में रहते हैं।

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