कबीर शांत कवि नहीं थे। उनके अंदर विद्रोह था। वे बड़ी सख्ती से मनुवादी कारखानों का विरोध करते थे। लेकिन यह तो कहना ही पड़ेगा कि वे अहंकारी नहीं थे। वे इश्क करते थे समाज से। वे चाहते थे समाज में समता हो, बंधुता हो।

कबीर ने ब्राह्मणवाद के खात्मे तथा समाज में समता, बंधुता और न्याय की स्थापना के लिए ब्राह्मणवादी संस्थाओं की साख पर हमला बोल था। वे उन्हें पाखंड से परिपूर्ण बताते थे। आरएसएस उनकी इस नीति को दूसरे रूप में यानी नकारात्मक रूप में व्यवहार में ला रहा है। वह इस देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं को निरीह और अप्रसांगिक बना देना चाहता है।




नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
बहुत बढ़िया। यथार्थ का सटीक आकलन। धन्यवाद।